रविवार, 27 दिसंबर 2009

ठोकर लाएगी रंगत

मुझे उम्मीद है।
एक रोज़,
ठोकर लाएगी रंगत।
उसका रंग उस दिन,
उस खूं सा लाल नहीं होगा।
जो खूं जमा हुआ है,
कुछ ठोकरों की बदौलत।
गिरेबां में झांककर देखूंगा उस दिन,
कि ठोकर क्यों लगी थी।
लेकिन अब तक,
हर ठोकर जवाब सवाल पूछती है मुझसे?
कि क्यों मुझे हर बार,
इसी पैर में लगना था।
मैं उस सवाल की उलझन में इतना उलझा जाता हूं।
कि अक्सर खुद सवाल करता हूं?
कि क्यों मेरा पैर पत्थर से टकराता है?
मैं कोई राम तो नहीं!
जो अहिल्या मेरी ठोकर से आएगी।
लेकिन उम्मीद है मुझे।
हर ठोकर रंग लाएगी।

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

गुटखा नॉट अलाउड

हाल ही की बात है हमारे खबरनबीसों के दफ्तर में गुटखा, पान, सुपारी खाने पर पाबंदी लगा दी गई है। यानि कार्यालय परिसर में जो गुटखा खाता दिखाई दिया उस पर औकातानुसार कार्यवाही की जाएगी। दफ्तर में अंदर से लेकर बाहर तक इस हिदायती फरमान की चिट्ठियों को चिपकाया गया है। लेकिन इतिहास गवाही देता है कि जब-जब क्रांतिकारियों के खिलाफ तुगलगी फरमान जारी किए गए । वो और आगबबूला हो गए। एक बार फिर वैसा ही हुआ और किसी ने दफ्तरी प्रशासन को ललकार लगाते हुए उस नोटिस पर ही गुटखे की पीक से फाइन आर्ट बना दी ।
ये बताना जरुरी है कि ये फरमान आखिर क्यों दफ्तर में जारी किया गया। दरअसल हमारे ऑफिस में गुटखोरों की खासी तादात है । ज्यादातर के मुंह में गुटखा दबा ही रहता है। अगर इस दौरान कोई उनसे बात करता है तो ये उनके दिन का सबसे बुरा वक्त होता है। क्योंकि बात करने के लिए या तो उन्हें गुटखा थूकना पड़ता है। या फिर लीलना पड़ता है। और अगर थूकना पड़ता तो जाते कहां? या तो दफ्तर के शौचालय में या किसी कोने को शिकार बनाना पड़ता । शौचालय तो बेचारा वैसे ही लोगों की शूशू का शिकार बनता है अब उस पर पीक मार- मार कर लोगों ने और दुर्दशा कर दी थी। रही बात कोने-छातर की तो उस पर लोगों की कुछ ज्यादा ही कृपा रहती थी। खास कर वहां पर जहां सीढ़ी से चढ़ते हुए न्यूज़ रुम में दाखिल हुआ जाता है। उस कोने पर तो जैसे लोगों को प्राइमरी अधिकार मिला हुआ था कि न्यूज़ रुम में घुसने से पहले यहां पर एक बार पिच्च-पिच्च जरुर करें। पीक के कीर्तिमान स्थापित करता दीवार का वो कोना गुटखोरों का शिकार बन चुका था। पीक की दिन-ब-दिन बढ़ती परतें तमाम पेंट कंपनियों को मुंह चिढ़ाती सी नज़र आती थी। क्योंकि अब वहां से पेंट नदारद था। और रंगीन मिजाज गुटखा दीवार के उस हिस्से को अपने आगोश में ले चुका था। गुटखे की आड़ में छिपती दीवार अब दफ्तरी प्रशासन के लिए भी चुनौती बन चुकी थी। लिहाज़ा गुटखा नॉट अलाउट इन ऑफिस प्रीमिसेस नाम का बोर्ड जरुरी हो चला था।
ऑफिस का ये फरमान तमाम गुटखोरों के लिए एक बड़ी परेशानी का सबब था। क्योंकि कई लोगों को दिल और दिमाग की बत्ती इसी के बल पर जलती है। अब भला जब दिल और दिमाग में ही अंधेरा होगा तो काम क्या होगा खाक ! चूंकि मैं गुटखा नहीं खाता इसलिए इसका आनंद भी नहीं बखान कर सकता । इसलिए इस विषय पर शोध हेतु मैने कुछ लोगों की जाने-अनजाने बाइट ली। तो लोगों का कुछ यूं कहना था।
सबसे पहले पीसीआर में ऑनलाइन ग्राफिक्स डिपार्टमेंट ले चलते हैं। जहां मौजूद एक किशोर से मैने बात की तो उनका कहना था। कि जब तक ससुरा ई (गुटखा) मूं में न भरा हो सब ऑनलाइन ऑफलाइन नज़र आता है। दिल ही नहीं लगता है भाई। दिन पूरा गुम सुम सा बीतता है। हमारा तो सुसरा जीना ही हराम हो गया। एकाग्रता ही नहीं बनती है क्या करें ? पीसीआर के किशोर से बात करने के बाद रुख करते हैं न्यूज़ रुम का, जहां गुटखोरों का असली जमावड़ा लगता है। ट्रेनी से लेकर अधिकारी वर्ग सभी गुटखे के बेहद शौकीन हैं। लोगों की कॉपी पर कैंची चलाने वाले एक एडिटर महोदय का इस मामले में दर्शन ही अलग नज़र आया। हनुमान सरीखा मुंह लिए बैठे एडिटर महोदय अपनी बाइट देने से पहले दो तीन बार सोचते नज़र आए कि बोला जाए या नहीं । हालांकि बाइट ऑफ द कैमरा थी इसलिए कोई दिक्कत भी नहीं थी। लेकिन गुटखा जो मुंह में था। और थूकने कहीं जा नहीं सकते। खैर सारी खुशी लीलते हुए बोले भई ये जो गुटखा है न कमाल का आइटम है। दो रुपए में जन्नत की सैर से कम नहीं। जब गुटखा हो मुंह में तो कमाल का हाथ चलता है कीबोर्ड पर। गुटखा खाने में चौदह साल का अनुभव रखे एक जनाब(जो सीएनबीसी आवाज़ से जुड़े हैं) भी इसके बगैर सबकुछ अधूरा सा महसूस करते हैं। महोदय अर्थजगत से जुड़ी खबरें देखते हैं। और गुटखे की करामात से सेंसेक्स को उठाते गिराते है। हालांकि बाज़ार दो दिन बंद रहता है। लेकिन इनका मुंह गुटखा खाने के लिए सातों दिन खुला रहता है।
अब मिलवाते हैं आजाद न्यूज़ के अनोखे राम ड्रैगन शर्मा से । अपने जीवन का ज्यादातर समय इन्होंने गुटखा खाने और पीकने में व्यतीत किया है । इसलिए इनका अनुभव मेरे लिए मायने रखता है। वैसे तो ये बेहद गुस्सैल प्रवर्ति के हैं जैसा कि नाम से पता लग रहा होगा। लेकिन जब ये गुटखा खाते हैं तो काफी घंटों तक न्यूज़ रुम में शांति होती है। इस दौरान इन्हें किसी का खलल पसंद नहीं। इन्होंने भी ऊपर वालों की ही तरह गुटखे की अद्भुत महिमा का विशद वर्णन किया। लेकिन इन्होंने एक ऐसे व्यक्ति के बारे में भी बताया, जो गुटखा खाने के मामले में लौहपुरुष है। ड्रैगन के मुताबिक अमुक शख्स ने कभी गुटखा थूका ही नहीं। हाजमा इतना दुरुस्त की कि बगैर हाजमोला ईंट तक चबा जाएं। शर्मा जी ने मुझे नाम तो बताया लेकिन ये भी हिदायत दी कि इनके नाम का इश्तेहार न किया जाए। यही कारण रहा कि मैने इन महान विभूति के नाम का ज़िक्र नहीं किया।
खैर विदाउट गुटखा लोग हलकान हैं। लेकिन मैं पहले ही कह चुका हूं गुटखे की क्रांति लाने वालों को कब तक रोकोगे। मौका लगते ही वो आंदोलन कर देंगे। बंदिश-ए- थूथ कब तक चलेगी। और वैसे भी लोगों ने सुस्त प्रशासन की तरह पुराने ढर्रे पर चलना शुरु कर दिया है। अब दफ्तरी प्रशासन के लिए एक और चुनौती है। छुपे हुए आंदोलन कारियों से निपटने की ।

शनिवार, 14 नवंबर 2009

बुढ़ापे की संवेदना

बूढ़ा होता है हर कोई
ढलती हुई उम्र के साथ
ऐसा बूढ़ा न हो कोई
उस बूढ़े, बुढ़िया के जैसा
न खाना है
न दाना है
साथ नहीं है अपनों का
एक सहारा बस बाकी है
लाठी और अकेलेपन का
सावन भी अब बूढ़ा सा है
पतझड़ से सारे मौसम हैं
एक अकेली कोंपल को
बस तरसे विचलित सा उनका मन है
बचपन को पाल बुढ़ापे में
सब छोड़ चले अब उनको
उम्मीदों की बुझती लौ
तरस रहे तिनके-तिनके को
तन की सिलवट
सिमट रही है
कलयुग के उजियारे में
जीवन अपना काट रहे बस
थोड़े से अंधियारे में

सोमवार, 9 नवंबर 2009

कचरा-कचरा “यम की बहना”

ज़रा विचारिए कि जब हमारे सामने यमराज की खौफजदा कल्पना होती है। तो चित्र में भैंसे पर सवार एक बेहद ही बेडौल और खाए-पिए खानदान से ताल्लुक रखने वाले मनुष्य की छवि अकस्मात ही सामने आ जाती है। हाथ में कांटेदार गदा और अपने मन में मौत सरीखा भय लिए यमराज की ये तस्वीर बेहद भयावह है। लेकिन इस बार जब नोएडा से कालिंदी कुंज होते हुए जब मैं दिल्ली जा रहा था। तो मेरी मुलाकात यमराज की बहना से हो गई। फेस-टू-फेस तो नहीं, लेकिन कल्पनाओं के घोड़े दौड़े तो एक छवि उनकी भी मैने उकेर ही ली। इन बहना रानी का स्कूल का नाम उनके पिताजी ने यमुना रखा था । बड़े ही लाड़ और प्यार से पाला गया था यमुना जी को। पश्चिमी हिमालय पर एक फ्लैट भी यमुना जी को दिया गया। जहां से निकल कर निश्चित मार्गों से होकर वे कहीं भी सैरसपाटा कर सकती है। अब यमुना जी की तो चांदी ही चांदी थी। और हां एक बात और समझाई गई थी यमुना जी को, कि आपकी दो सहेलियां गंगा और सरस्वती आपको इलाहाबाद में मिलेंगी। जिनसे मिलकर आपका नाम भारत में बड़ी श्रद्धा से लिया जाएगा। अपने पिता की असीम अनुकंपा से यमुना रानी निकल पड़ीं सैर सपाटे को । शायद ऐसा ही सफरनाम रहा होगा अपनी यम की बहना का।
पुराणों की मानें तो यमुना जी को बेहद पवित्र और कई संस्कृतियों से सराबोर माना गया। लेकिन यहां तो मैने यमुना का उस दिन दूसरा ही चेहरा देखा। अब तक तो लोगों के मुंह से ही सुना था। कि अपने अंदर जीवन दायिनी जल समेटे यमुना अब मैली हो चुकी है। और उस दिन देख भी लिया। कालिंदी कुंज के करीब से बहने वाली यमुना फैक्ट्रियों से निकले रसायन की बदौलत साबुन सरीखी झाग से नहा रही थी। वो झाग इतनी सफेद थी कि मुझे अलास्का की बर्फ याद आ गई । सोचा कि वाह यमुना जी के तो वारे-न्यारे हो गए। बड़ा ही सुंदर स्नान कर रही हैं मैडम। और कमाल की बात तो ये यमुना को भी नहाने की जरुरत पड़ गई। दरअसल वो अलास्का की बर्फ मेरा भ्रम थी। मेरे साथ में ही मौजूद जब मेरे एक मित्र कलीम खान जी ने मुझे प्रदूषण की परिभाषा समझाई तो समझ आया, कि ये डव की झाग नहीं, बल्कि फैक्ट्रियो से निकला वो रसायन है, जो यमुना के जल को जहरीला बना रहा। खैर अब भ्रम का टाटी उड़ चुकी थी। और हकीकत सामने थी। यमुना जी का जल जलजला बन चुका था। ऐसा लग रहा था मानों हजारों मछलियों की मौत का टेण्डर यमुना जी ने ले लिया हो। यमुना जी का पुश्तैनी धंधा एक बार फिर फलीभूत होता जान पड़ रहा था। खैर कसैली गंध लिए यम की बहना का रंग भी उस झाग के नीचे अब काला पड़ चुका था। जिस सूर्य पुत्री यमुना की कल्पना मैं सुंदर कर बैठा था। वो निहायत ही बदसूरत हो चुकी है। अगर मैं कुछ कर सकता तो शायद फेयर-एंड-लवली मुहैया करा सकता था। जिससे वो सात दिनों में ही निखर जातीं। लेकिन फेयर-एंड-लवली से काम न होने वाला था। क्योंकि हजारों कुंटल के मेरे पास तो पैसे भी नहीं थे। बेचारी कचरा-कचरा “यम की बहना” का वो बेनूर चेहरा वाकई आघात पहुंचा रहा था।
जिसके शरीर पर गहनों की कल्पना मैने की थी। उसका शरीर फैक्ट्रियों और मिलों की गंदगी, अधजली लाशों, मरे हुए जानवरों, की गंदगी से सराबोर था। वाकई यम की बहना दुर्दशा के दौर से गुजर रही है। मेरे बस में उसका कोई उपचार नहीं था। शायद सरकार के पास हो। अगर है तो जल्द कुछ करे। वरना ये यम की बहना जीते जी कालकल्वित हो जाएगी।

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

घासीराम का आतंक

(बीबीसी हिंदी डॉट काम की खबर से प्रेरित होकर लिखा गया है, जिसमें ये कहा गया था कि हाल ही में एक भारतीय टिड्डा ब्रिटेन जा पहुंचा है।)
यूं तो हमारे एक मित्रवर हैं जिनका राशि का नाम घासीराम है। लेकिन न तो वो आतंकी हैं। और न ही घासखोर। उनके अंदर कोई भी ऐसी आदत नहीं कि वो दिन में भोजन करते हों, और रात को समाज की नज़रों से बचकर घास ही चरते हों। लेकिन फिर भी वो घासीराम है। हालांकि उनका शुभनाम कुछ और ही है। खैर यहां हम उनकी किसी कला का वर्णन नहीं कर रहे हम तो आज आपको एक नए घासीराम से मिलवाना चाहते हैं। जो घासखोर भी हैं। और एक प्रशिक्षित आतंकी भी। विलायती लोगों की भाषा में उन्हे ग्रासहोपर कहा जाता है तो हिंदी में उसे घासखोर की संज्ञा दी जा सकती है। कमाल के ढांचाबदर ये घासखोर अपने रंगीन बदन के लिए भी जाने जाते हैं। सतरंगी छटाओं से लैस इनके बदन हर एक पार्ट खुदा की नियामत से बड़े ही अजीबो-गरीब ढंग से सजाया गया है। इनको देखकर ऐसा लगता है कि बड़ा ही गुमान होगा इन्हें अपनी इस विस्मय काया पर। और जब ये घासखोर महाराज उड़ान पर निकलते हैं तो ऐसा लगता है कि कोई अमेरिकी ड्रोन विमान शिकार पर निकला हो। लेकिन इनके लिए एक बात मैने बहुत पहले पढ़ी थी The Ant and the Grasshopper नामक अध्याय में। पाठ इनके चरित्र को बखूबी बयां करता था। कि एडम और ईव के समय की पैदाइश ये घासखोर निहायत ही हरामखोर प्रवर्ति के हैं। पाठ में हमें बताया गया था कि ये घासखोर टिड्डे के नाम से जाना जाता है। लेकिन यहां इनका एक और चरित्र भी आज मैंने खोजा है। वो है बगैर वीसा और पासपोर्ट के विदेश यात्रा करने का। यानि ये घासखोर कबूतरबाजी में भी माहिर हैं। फर्जीवाड़ा करके ये विदेशों की सैर भी कर लेते हैं। हाल ही में ये भारत से चलकर ब्रिटेन के दौरे पर हैं। राजनेताओं की तरह इनके इस गुपचुप दौरे को लेकर ब्रिटेन का खाद्य एवं पर्यावरण संस्थान यानी फ़ेरा हलकान है। सबसे पहले इसी संस्था को पता चला कि इनके देश में कोई घासीराम नाम का घुसपैठिया घुस आया है। न तो उसके पास वीसा है और न ही पासपोर्ट। ब्रिटेन की भी चिंता वाजिव है, क्योंकि घासीराम घास खाने में पारंगत हैं। इन्हें हरियाली कतई बर्दाश्त नहीं। इस मामले में इनके पेटूपन का भी कोई सानी नहीं । जहां इन्हें अपने मन का खाना दिखता है। वहीं इनका आतंक शुरु हो जाता है। और पल भर में ये हजारों एकड़ फसल अपने मासूम से उदर में पचा लेते हैं। नियति का खेल तो देखिए हमारी नुमाइंदगी करने वाले कुछ लोग इन्हीं से प्रेरित जान पड़ते हैं। और कई एकड़ घास घोटाला उनके खाते में चढ़ चुका है। टिड्डा एक कीट है लेकिन वो एक इंसान हैं। लेकिन मैने कई बार सुना है कि इंसान के जीवन में कोई भी उसका आदर्श बन सकता है। पर पहली बार ये सुना है कि कोई इंसान किसी कीट को अपना आदर्श मानता हो। खैर टिड्डे की इसी महामाया ने इसको तालिबानी लड़ाकों जैसा बना दिया है। कई बार ये आत्मघाती का काम करते हैं। क्योंकि इनकी ज्यादातर मौत स्वाभाविक नहीं बल्कि अपनी उदर छुदा मिटाने की खातिर होती है। मतलब साफ है ये जान हथेली पर लेकर शिकार को निकलते हैं। भारत से लेकर पाकिस्तान तक घासीराम का आतंक कई बार देखा गया। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि कुछ छोटे देशों की फसल चट कर इन्होंने वहां की अर्थव्यवस्था का सूरत ए हाल ही बिगाड़ दिया। बचपन से ही उड़ान में दक्ष इनकी सेना का हर सिपाही एक कुशल पायलट और कुशल आतंकी है। क्योंकि इनको मारने के सारे प्रयास धरे के धरे रह चुके हैं। और इस बार ये घासखोर ब्रिटेन पहुंच चुका है। इस पर फ़ेरा के कीटविज्ञानी क्रिस मैलंफ़ी ने कहा, “ये सैलानी टिड्डा इतना पेटू है कि जब इसे अलग ले जाकर प्रयोगशाला में रखा गया तो इसने बंदगोभी पर ऐसा हमला बोला कि उसे खाते हुए बंदगोभी के अंदर पहुंच गया.” देखा आपने कितना भयावह दृश्य रहा होगा। घासी राम हैं या ड्रिलमशीन। ऐसा लगता है ये कहीं भी सेंध लगा सकते है। हालांकि ब्रिटेन की फेरा संस्था इस बात से ज्यादा चिंतित नहीं है कि कोई घुसपैठिया उनके दर पर आ चुका है। क्योंकि ब्रिटेन ऐसा मानता है कि मौसम उसके माकूल नहीं है लिहाज़ा वो यहां पर अपनी पलाटून पैदा नहीं कर पाएगा । इसलिए घबराने की जरुरत नहीं। लेकिन आतंकी तो आतंकी होता है। और फिर जब वो एशियाई देश से आया हो । तो मुसीबत का सबब होता ही है। लिहाज़ा घासीराम के आतंक से सावधान। क्योंकि पिछले कई बर्षों से इन्होंने हमारा जीना हराम कर रखा है।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

इंदिरा अम्मा

वज्र से इरादे
बेबाक शैली
हिमालय से विचार
हिंदुस्तान की जनता
और
मुहब्बत का अंबार
एक बेटी
एक दुल्हन
एक मां
इंदिरा अम्मा, इंदिरा अम्मा, इंदिरा अम्मा

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

काश, मैं जख्मों को खरीद सकता

अभी कल ही की बात है
ऑफिस से निकला ही था
दिमाग में कुछ हलचल सी थी
मन व्यथित सा था
आंखों में चुभन थी
दिनभर के काम की
सब कुछ तो ठीक था
लेकिन फिर भी
पता नहीं वो कौन सी बात थी
जो टीस दे रही थी।
अजीब सी उदासी
अजीब सा मौसम
न जाने क्या होने वाला था।
कि अनायास ही नज़र
एक वृद्धा पर पड़ती है
उसकी गोद में एक नवजात था
जो दर्द से तड़प रहा था, शायद
ये दर्द किस बात का था
नहीं जानता
शादय वो भूखा था
कई रोज़ से
और वैसी ही भूखी उसकी दादी
एक कोने में बैठे वो लोग
किसी के इंतजार में थे
शायद किसी अपने के
लेकिन अब जो मैने देखा
वो विचलित कर सकता था
किसी को भी
उस नवजात के शरीर से खून रिस रहा था
उसकी दादी बार-बार
अपने चीथड़ों से
उसके ज़ख्मों को पोछ रही थी
शरीर पर उसके कपड़ा सिर्फ इतना था
कि बमुश्किल ही
अपनी लज्जा को आड़ दे पा रही थी
लेकिन किसी बच्चे को इतना लाड़
शायद मैने पहली बार देखा था।
वो बच्चा तो सिर्फ
चीख ही रहा था
दर्द की कराहट
उसके पेट में मौजूद पानी को भी सोख चुकी थी
अब उसके जख्मों की आवाज़
भरभरा उठी थी
मैं मजबूर था, बेबस था।
क्योंकि न तो मेरे पास इतना पैसा ही था
और न ही इतना ररुख
कि अनजान शहर में
काश, मैं उसके ज़ख्मों को खरीद पाता।

रविवार, 16 अगस्त 2009

अनोखा सफर और वो हाइटेक बाबा

कुछ ही दिन पहले की बात है। नोएडा से गृहनगर लौट रहा था । चुनावों में सारी बसें लगी होने के कारण ट्रेन में काफी भीड़ चल रही थी बीते दिनों। मैं लखनऊ मेल में गाजियाबाद से बैठा। उस दिन भी ट्रेन में भयंकर भीड़ थी। लेकिन एक डिब्बा खाली था। दरअसल ये वो वाला डिब्बा था, जिसमें सामान वगैरा रखा जाता है। वो डिब्बा बंद था । मैने खटखटाया, तो अंदर बैठे एक बाबा ने खोला । वो बाबा अकेले ही उस डिब्बे में सवार हो लिए थे । ऐसा मालूम होता था। क्योंकि अंदर से बंद करने का मतलब तो यही जान पड़ता था कि वो किसी औऱ को जगह नहीं देना चाहते थे। मेरा उस दिन भाग्य अच्छा था जो बाबा ने अंदर से दरवाजा खोल दिया। वरना उस दिन तो मेरी ट्रेन छूट ही जाती । क्योंकि इतनी भीड़ में किसी डिब्बे घुसना युद्ध करने के समान था। खैर मैं उस सामान वाले डिब्बे में बैठ गया। और दरवाजा बंद कर लिया। क्योंकि बाबा ने कहा, बेटा दरवाजा बंद कर लो वरना और लोग घुस आएंगे। ट्रेन जैसे ही स्टेशन पार करेगी तब दरवाजा खोल लेना। महज दो मिनट ठहरने के बाद ट्रेन को हरी बत्ती का इशारा मिला । और वो चल दी, मेरे गंतव्य की ओर। धीमे धीमे ट्रेन रफ्तार पकड़ रही थी। मैने स्टेशन पार होते ही दरवाजा खोल दिया । ठंडी हवा अंदर आ रही थी। मैने बैग से निकाल कर चादर बिछा ली। और लेट गया । ट्रेन अपनी रफ्तार पकड़ चुकी थी।
और यहीं से शुरु होती है, उस बाबा की कहानी। बाबा मेरे पास ही बैठे थे। लेकिन पहले बाबा की काया का वर्णन करना जरुरी है। उम्र लगभग 75 की रही होगी। कद करीब 5 फुट 11 इंच। बाल जैसे कपास की खेती। माथा बिना प्रेस का कपड़ा। और दोनो गाल स्रंग गर्त से नज़र आते थे। मुंह में दो दांत ही थे शायद, जो उनकी बत्तीसी के इतिहास की गवाही चीख चीख कर दे रहे थे। वो दांत अब शायद खाने के भी थे और दिखाने के भी। बदन को ढंकने के लिए एक सूती कुर्ता था। लगता था उस कुर्ते ने काफी दिनों से निरमा नहीं खाया होगा। लेकिन जो धोती उन्होंने पहन रखी थी वो काफी उजली थी। लगता था उसे रिन सुप्रीम का भोग लगाया गया हो।
खैर ये तो था बाबा की हैल्थ का एक छोटा सा परिचय। अब कुछ दिलचस्प बातें। कुछ देर बाद बाबा ने अपनी जेब से दूरभाष यंत्र निकाला। लग रहा था किसी से बात करने के मूड में हैं। लेकिन मजा तो तब आया जब बाबा ने उस बड़े से दिख रहे मोबाइल को चलाने के लिए स्टिक का प्रयोग किया। अब आप ही अनुमान लगाइये कि सीन क्या रहा होगा। बाबा बैठे हैं ट्रेन में और मिला रहे हैं किसी अपने का नंबर।वो भी स्टिक से। इस बीच मुझे ये पता लगा कि बाबा के पास जो मोबाइल था वो एचटीसी का था। लेकिन बाबा तो जैसे उस मोबाइल से बड़े फैमिलियर थे।
अब वो नंबर मिल चुका था जिससे बाबा बात करना चाहते हैं। पहली दुआ सलाम से ये पता लग चुका था कि डायल्ड नंबर उनके घर का है। बात शुरु होती है। हैलो के उच्चारण के साथ । उधर से पॉजिटिव रिस्पॉन्स मिलने के बाद बाबा ने हा बहू हम ट्रेन मा बैइठि गए हैं। औ सुबह तक शइजहांपुर पहुंचि जइहीं। बाबा अपनी लोकल लैंग्वैज में बात कर रहे थे। बात जारी है फोन पर। हाल चाल लिए जा रहे हैं। ऐसा लग रहा था कि काफी दिनों बाद घर वापस जा रहे है। बहू जा बताबऊ कि छुट्टन की तबियत हरी भइ की नाई। अभी नाई पिता जी । शायद कुछ ऐसा ही जवाब आया था बहू की तरफ से । क्योंकि बाबा के चेहरे पर छुट्टन की तवियत को लेकर उदासी के भाव थे। इस बीच फोन बहू ने किसी और को दे दिया। उधर से मर्दानी ध्वनि सुनाई दे रही थी। पाइं लागूं पिता जी । जीते रहऊ बाबा की तरफ से आशीर्वाद के रुप में। दुकान ठीक चलि रही हअइ कि नाइ। हां ठीकइ चलि रई हइ। पिता जी कब लऊ आइ रए। भुरारे पहुंचि जइहीं, बाबा का जवाब था ये बेटे के पूछे जाने पर। बात करते करते 20 मिनट हो चले थे। लेकिन बाबा तो लगता फुल चार्ज थे । फोन रखने का नाम ही नहीं ले रहे थे। लेकिन इस बीच ये फोन रखने की नौबत तब आई जब सिगनल चले गए । और फोन अचानक ही कट गया । बाबा का चेहरा देखने वाला था उस समय दूरभाष मिनिस्ट्री को सैकड़ों खरी खोटी सुना दी। ससुरे पता नाइ का करत हइं। पइसा निरो लइ लेत सरकार से अऊ टाबर कहूं नाइ लगाउत। बात ससुरी बीचइ मा कटि जात। खैर इस बीच सिगनल फिर आ जाते हैं। और उनका बेटा उधर से ही फोन मिला देता है। उनके फोन पर जो गाना बज रहा था। वो था ‘आए हो मेरी जिंदगी में तुम बहार बनके’। मेरी हंसी चरम पर थी। भइ कमाल के बाबा हैं। क्या गाना लगा रखा है। कब्र में पैर लटके हैं और अभी भी किसी के इंतजार में जवान बने रहने की चाहत है।
बाबा और बेटे की बात फिर शुरु हो जाती है। लेकिन अभी भी वही हाल चाल पर ही बात हो रही है। बातचीत का ये सिलसिला दस मिनट तक चला होगा। बाबा बोले अइसो करऊ अब रक्खि देऊ फोन। रोमिंग लगि रही हइ। हमारो भी कटि रहो। और तुम्हारो भी पइसा कटि रहो। फायदा कोई नाइ। इस बीच एक बार फिर बाबा ने दूरभाष मंत्रालय को गरिया दिया। फोन पर बाबा ने इतिश्री कर दी।
अब चालू होता है फोन से फोटो लेने का सिलसिला। मन ही मन हंसी आ रही थी मुझे। बाबा के हाथ उस स्टिक से इतने फैमिलियर थे कि पूछिए मत। धड़ाधड़ फ्रेम बनाकर बाबा ने बीस पच्चिस फोटो खींच डालीं। साथ ही बना डाली रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों की वीडियो भी। फोटो खींचते-खींचते और वीडियो बनाते-बनाते बाबा बोर हो चुके थे, तो अब बारी थी । गाने सुनने की। बाबा ने मीडिया प्लेयर खोला और कइ सारे गानों को एक साथ उस स्टिक के माध्यम से सेव कर लिया। मैने सोचा बाबा पुराने जमाने के हैं। तो कुछ पुराने गाने ही सुनेंगे। लेकिन जो गाने उन्होंने सुने वो उनकी जवानी का इतिहास बताने के लिए काफी थे। कि बाबा ने अपनी जवानी के समय खूब गुल खिलाए होंगे। जो गाने मैने उनके मोबाइल पर सुने वो थे। फूलों सा चेहरा तेरा कलियों से मुस्कान है, परदेसी परदेसी जाना नहीं मुझे छोड़ के, दिल धड़के मेरा दिल धड़के कोई नहीं जाने बाबा क्यों धड़के (बाबा सहगल की अलबम वाला गाना था ये), कुल मिलाकर जो भी गाने बजाए जा रहे थे, वो प्यार मोहब्बत से लबरेज़ थे। और ये चित्रहार का सिलसिला अगले तीन घंटे तक चलता रहा । ट्रेन भी बरेली पहुंचने वाली थी। जहां से मेरा घर शाहजहांपुर मजह 70 किलोमीटर ही था।
चूंकि बाबा जानी को हमारे ही डेश्टिनेशन पर उतरना था। सो बस अब दोनो को शायद इसी बात का इंतजार था कि कब शाहजहांपुर आए। सुबह के पांच बजने वाले थे, उस दिन लखनऊ मेल कुछ धीमी थी, शायद तभी पांच बजे तक बरेली ही पहुंची थी। लेकिन बतोलेबाज बाबा के चक्कर में सफर का पता ही नहीं चला । सचमुच मेरे लिए ये सफर अनोखा था।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

मैं हिंदुस्तान हूं

मैं हिंदुस्तान हूं
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
इन सबकी शान हूं
मैं हिंदुस्तान हूं
मेरी धरा ही, मेरी मां है
मेरी अपनी भारत मां
खून से सींची इस धरती पर
नाज़ मुझे हर दम रहता
इस मिट्टी में जन्मे जो
है गर्व उसे हर पल रहता
एक टीस मुझे जब-तब रहती
जब गुलाम भारत था मैं
उखड़ी सांसे
मां की तड़पन
और तड़प, हिंदुस्तां की
याद रहेगी हर पल मुझको
उनकी उस कुर्बानी की
दगती तोप, चली थी गोली
भारत मां की छाती पर
सिसक, सिसक
हर कोई रोता
अपनी मां के आंचल पर

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

सफ़र

उस आने वाली बारिश की बूंदो ने
हवा को, श्रंगार का अहसास कराया।
घर की कुछ यादों का,
दोस्तों की चटपटी बातों का,
और मां के दुलार का,
मन को बहुत कुछ याद आया,
उस सफ़र में।
छुक-छुक दौड़ रही थी गाड़ी
मेरे घर की ओर।
खेतों को सहलाती पवन,
खेल रही थी,
खेल कुछ और।
काली घटाओं से,
आच्छादित था अंबर,
शायद बारिश ही आने वाली थी।
वो शीतल समीर,
तन के हर हिस्से पर,
मरहम लगा रही थी।
मरहम, उस अकेलेपन पर,
जो उस सफ़र में,
दर्द बनकर कचोट रहा था।
याद दिला रहा था,
बीते हुए वक्त को
गोधुली बेला में, धूल के गुबार,
शांत पड़ने लगे थे,
रिमझिम फुहार सी, गिरने जो लगी थी,
आंचल फैलाई बारिश
सोंधी मिट्टी की खुशबू को
आगोश में लेने लगी थी।
खेतों के किनारे
उस माटी की मढ़इया से
कुछ आंखें, आकाश की ओर, निहार रहीं थीं
इस आस में,
कि और बारिश हो।
और बारिश होती भी रही
उस पूरे सफ़र भर।
लेकिन प्रकृति की माया अजीब है
कहीं धरा प्यासी है
तो कही जलजला है
नियति का खेल ही ऐसा है
कि ज़िदगी के सफ़र में
हर ख्वाहिश अधूरी है
और हर अधूरी, ख्वाहिश
जहां खुशी है
वहीं गम भी
और इनको जीने वाला
एक अच्छा हमसफ़र है...

शनिवार, 4 जुलाई 2009

वाह रे “वरुण पुराण”

गरुड़ पुराण के बारे में तो सबने सुन रखा होगा। ये 19 हजार श्लोकों का एक ऐसा पुलिंदा, जिसकी जरुरत तब पड़ती है। जब किसी की मृत्यु हो जाती है। तथाकथित जिस व्यक्ति की मृत्यु होती होती है, उसकी आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए इस पुथन्ने का पाठ किया जाता है। घर के सभी सदस्यों के बीच कदाचित् राधे महाराज जैसे ही कुछ ज्ञाता इसका पाठ पढ़ते हैं।
ये तो रही बात गरुड़ पुराण की, लेकिन हाल ही में लॉंच हुआ वरुण पुराण बीजेपी का एक ऐसा एडीशन है, जिसकी प्रति आम चुनावों से पहले बेतरतीब बिकी। खूब ढोल बजा पुराण-ए-वरुण का। युवा पीढी़ को लीड करने वाले जवां गांधी की कारगुजारी खूब पसंद की जा रही थी। और पार्टी के आला अफसर भी उस जश्न में शामिल थे। सबको विश्वास था कि चुनाव बाद वरुण पुराण पार्टी की आत्मा को शांति देगा। यानि पार्टी, सबको चित कर विजय श्री हासिल करेगी। लेकिन क्या हुआ इसका ज़िक्र कुछ देर बाद किया जाए तो बेहतर होगा। उससे पहले ये जान लेना जरूरी है कि आखिर ये गरुड़ ....मेरा मतलब है वरुण पुराण है क्या ?
सात मार्च 2009 की ही बात है। जब पीलीभीत में आम जनता को संबोधित करते हुए वरुण गांधी के मुंह से ऐसे श्लोक निकले जो वरुण पुराण के लिए पहला पन्ना बने, इसके के बाद आठ मार्च को भी ऐसा ही हुआ। यहां भी पीलीभीत के बरखेड़ा गांव में वरुण आग उगलते नज़र आए। और ये आग थी वरुण पुराण का बाकी हिस्सा पूरा करने के लिए।
सबसे पहले पढ़वाते हैं पुराण के कुछ अंश। अगर कोई हिंदुओं की ओर हाथ बढ़ाता है, या फिर ये सोचता हो कि हिंदू नेतृत्वविहीन हैं, तो मैं गीता की कसम खाकर कहता हूँ, कि मैं उस हाथ को काट डालूंगा."। इन संवादों की आत्मा फिल्मों से प्रेरित है। ऐसा जान पड़ता है। क्योंकि अगर किसी सिनेमा में ये संवाद बोले जाते, तो ताबड़तोड़ तालियां पीटी जातीं। और गदर एक प्रेम कथा याद आ जाती।
अब कुछ अगले पन्नों के अंश। अपना लिखित वक्तव्य पढ़ते हुए उन्होंने कहा, "मैं एक गांधी हूँ और एक भारतीय हूँ और समान रुप से एक हिंदू हूँ." "मुझे अपने हिंदू होने पर गर्व है."राजनीतिक षड्यंत्र का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, "यह मुझे सांप्रदायिक साबित करने की दुर्भावनापूर्ण कोशिश है." उन्होंने कहा, "मैं किसी संप्रदाय के ख़िलाफ़ नहीं हूँ.", "मैंने जो कुछ कहा उसका उद्देश्य किसी को भड़काना नहीं था. मेरे किसी भी संप्रदाय के ख़िलाफ़ होने का सवाल ही नहीं है. मेरी कोशिश एक ऐसे समुदाय के भीतर आत्मविश्वास पैदा करने की थी जो यह महसूस करती है कि वह अपने ही देश में बंधक है."
ये थे वरुण पुराण में लिखे गए लीपा-पोती के कुछ अंश । जो सबको बखूबी याद है। है कमाल की बात तो ये है की जिस गरुड़ पुराण की जरुरत हम सबको हमारी मौत के बाद पड़नी है उसका एक भी श्लोक हमें याद नहीं। लेकिन वरुण पुराण का हर एक श्लोक आत्मा तक में बस गया है। और वरुण पुराण की टीआरपी के तो क्या कहने । सारे चैनल पांच में से पांच सितारे ही दे रहे थे । इस फायरब्रांड युवा को । यानि एक दम मसाला पुराण बन गया था वरुण पुराण।
कुछ ऐसे भी थे जो बीजेपी के इस एडीशन के विरोध में थे । जाहिर सी बात है पहला नाम या तो बहिन जी का होता या कांग्रेस का । सो बहिन जी ने इस पुराण को सेंसर्ड कर दिया । पुराण को ए ग्रेड का सर्टिफिकेट गिफ्ट किया गया। यानि रासुका लगवा दी । पुराण को बक्से में बंद करवा दिया। मतलब वरुण को मखमल के बिस्तर से एटा जेल के दर्शन करवा दिए। जो अब तक शाही पनीर और कड़ाही पनीर खाते थे अब लौकी तोरई खाने को मजबूर थे। भई अब जेल के मोहनभोग तो ऐसे ही होते हैं। और ऐसे ही बहिन जी ने अपनी सारी खुन्नस निकाल ली। तो वहीं लालटेन के लाल बोले कि मैं इस पुराण रचयिता पर बुल्डोजर ही चलवा देता।
पुराण के विरोध जारी थे । लेकिन वरुण की टीआरपी नंबर बना रही थी। और बीजेपी को इसी पुराण की रचना के साथ ही मिला था। एक ऐसा नेता जो मोदी पुराण माना जा सकता था । जिसे संज्ञा भी दे डाली गई जूनियर मोदी पुराण की। बीजेपी के लिए तो ये भागते भूत की लंगोटी से कम न थी। आस थी की शायद यही लंगोटी यमुना पार लगा दे। सबको भरोसा था उस भड़काऊ पुराण पर, कि हमारे कुंवर साब खुद तो जीतेंगे ही, साथ साथ ही पार्टी की भी नैया पार लगा देंगे।
चुनाव से ठीक पहले वरुण को जमानत मिली। तो उनकी और जय-जय कार होने लगी। चहुंओर सिर्फ एक ही एक ही गूंज ही वरुण पुराण की। लेकिन पुराण रचयिता के मामा जो पीलीभीत में अच्छा खासा रसूख रखते थे। इस बार भी पुराने ढर्रे पर थे। मतलब उनका चुनावी बिगुल वरुण पुराण के खिलाफ फूंका गया था।
रिजल्ट आ गए। कोई जीता, कोई हारा। यहां भी वरुण बाबा की जीत हुई लेकिन वरुण पुराण हार गया । जिस सोच को लेकर इस पुराण को रचा गया । वो पार्टी के लिए एक छद्म साबित हुआ। और बीजेपी औंधे मुंह धड़ाम हो गई। अब सबके निशाने पर एक बार फिर वरुण पुराण ही था। कहा गया इसकी रचना ही गलत हुई। चुनाव से ठीक पहले जो बीजेपी के इस एडीशन को कंठस्य कर लेना चाहते थे, वही अब वरुण पुराण पर लाठी भांजने को उतारू थे। लेकिन कुछ भी हो पार्टी भले ही यमुना पार न लग पाई। लेकिन वरुण पहली बार संसद पहुंच कर अपने पुराण के लीड हीरो जरुर बन गई। वाह रे “वरुण पुराण” बीजेपी की आत्मा को कष्ट पहुंचाने के लिए।

बुधवार, 24 जून 2009

शराबनामा और दवानामा

दवा और दारु का संग बड़ा पुराना है। ज्यादा सुरा पान के बाद दवा पान की ही जरुरत पड़ती है। जिसने मधुपान नहीं किया वो जीवन के एक सुख से वंचित रह गया। ऐसा मैं नहीं कहता, पीने वाले खिलाड़ापीर कहते है। आरजू बानो कहती है कि पीना बहुत ज़रूरी है जीने के वास्ते। बचपन की कच्ची माटी में ये दर्शन गहरे पैठ बना बैठा। और बस, तब से ये सिलसिला बरबस ही जारी है, उनका। उनके लिए तो बस पीना बहुत जरुरी है जीने के वास्ते।
इस बार सूर्य देवता काफी कोपित नज़र आ रहे हैं। सो कोपभाजन हमें और आप को ही सहना पड़ रहा है। ऑफिस निकलने से पहले दस बार सोचना पड़ता है। और सोचते सोचते दोपहर 2 बजे की शिफ्ट में कब शाम के पांच बज जाते हैं। पता ही नहीं चलता। लेकिन उस समय भी नोएडा समेत पूरे एनसीआर में धूप दहाड़ें मारती नज़र आती है। किसी सिंह की तरह। अब शरीर के वो अंग काले पड़ चुके हैं। जिनपर कपड़ालत्ता नहीं होता। बेचारे इस भरी दोपहर में छिपकली से हो गए हैं।
लगभग पिछले सात आठ महिनों से एक ही रुट से ऑफिस जाना हो रहा है। सो जाहिर सी बात है जाने पहचाने चेहरे ही दीदार के लिए मिलते हैं। ऐसे ही कुछ मिलते हैं वो जिनके लिए पीना बहुत जरुरी है जीने के वास्ते। फिर चाहे गर्मी हो या सर्दी उन्हें तो एक घूंट में डकारनी है। बगैर डकार मारे। यानि मदिरा पान के लिए उनके मध्यप्रदेश (उदर) में काफी जगह है। साइड डिश के नाम पर वे हाजमोला से ही काम चला लेते हैं। एक हाजमोला में कब बोतल खत्म हो जाती है पता ही नहीं चलता । उसके बाद इस बदन जलाऊ गर्मी में वो जहां के तहां पड़े रहते हैं। न किसी के आने का पता न किसी के जाने का पता। बस अपनी ही धुन में रमें हैं।
चलिए अब आप को एक और जगह लेकर चलते हैं। ये वो जगह है जिसने मुझे ये ब्लॉग लिखने को प्रेरित किया। दिल्ली में एक जगह है जिसका नाम है कोंडली। मुझे एटीएम से गांधी बाबा निकालने थे सो वहां रुकना पड़ा। टेलर मशीन पर काफी संख्या में लोग मौजूद थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर बैंक ऑफ बड़ौदा के एटीएम पर इतनी भीड़ कैसे । क्या दिल्ली के सारे एटीएम रिक्त हो चले हैं। खैर मैं इधर-उधर फंटियाने लगा और अपनी बारी का इंतजार करने लगा।
एटीएम के ठीक पीछे जाने पर पता चलता है। कि मदिरालय के ठीक बगल में औषधालय है। अकस्तमात् ही मुख उवाच् उठा। बहुत सुंदर। मतलब एक तरफ दवा तो दूसरी तरफ दारु। वाह भई वाह । मदिरालय भी भरा हुआ। औषधालय भी । दोनो दुकानों पर भीड़ जबरदस्त थी। लोग दारु की दुकान से चवन्नी, अठन्नी खरीदते और फौरन औषधालय पहुंच जाते । दरअसल वो दवा की दुकान अब बन चुकी थी। दारु के बाद का सामान। प्लास्टिक के ग्लास, कुरकुरे, भुजिया, चिप्स, सिगरेट सब कुछ मौजूद था उस दुकान पर। ये तो सब मिल ही रहा था। साथ ही मिल रहा था। पीने वालों के दर्द दूर करने का सामान। यानि आफ्टर ड्रिंक। ताकि वहां से टल्ली होने के बाद लोग सही सलामत घर पहुंच सकें। कुछ लोग उस दुकान से वो दवाएं भी ले रहे थे जिससे उल्टी, सीधी हो जाए। यानि उल्टी निवारक दवा। देखते ही देखते भीड़ बढ़ने लगी। क्योंकि जैसे जैसे रात के दस बज रहे थे लोगों के मन में मदिरालय जाने का भूत कुलबुलाने लगता। वरना नोएडा से महंगी शराब जो खरीदनी पड़ती। इस होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। साम, दाम, दंड, भेद सबका इस्तेमाल करके लोग मैदान मार कर ही औषधालय तक पहुंचते।
मन ही मन बुजुर्गों का वो संवाद याद आ रहा था। कि यदा कदा लोग कह दिया करते थे। कि और भई दवा दारु सब ठीक चल रहा है न। और मैं भी कह देता था। सब कुशल मंगल। हाए री संजीवनी बूटी की वो दुकान। अगर बजरंग बली होते तो बड़ा गुस्सा करते। लेकिन मुझे तो सब कुछ कॉमेडी ही लग रहा था । इसलिए लिख दिया। अगर आपको भी शराबनामे से दवानामे तक का ये निराला सफर तय करना है तो एक बार बॉब के उस एटीएम तक जरुर जाएं। आशा करता हूं सब कुछ वैसा ही होगा जैसा मैने देखा।

शुक्रवार, 5 जून 2009

मत काटो मेरे यौवन को

मैं हूं एक वृक्ष
देता हूं लोगों को छांव
मुझपर बसते हैं पंछी
बनाकर अपना गांव
चाह नहीं मेरी कुछ भी है
सिर्फ चाहता हरियाली
सर्दी, गर्मी हर मौसम में
मेरा जीवन खुशहाली
लेकिन एक दर्द है मुझको
मत काटो मेरे यौवन को
इतना अहसान करो मुझ पर भी
बख्शो मेरे जीवन को
(पर्यावरण दिवस पर समर्पित ये चंद पंक्तियां, वृक्षों को बचाने की एक पहल है, इस मुहिम में सभी का स्वागत है)

मंगलवार, 26 मई 2009

वो चीफ प्रॉक्टर और वो चचेरा भाई

एक बार चीफ प्रॉक्टर ने विद्यालय में लगाया राउंड
लंबा था ग्राउंड
हाथ में डंडा
शक्ल से पंडा
रोबीला चेहरा देखकर
बच्चे सकपकाए
दौड़कर अपनी कक्षाओं में आए
किसी कक्षा में
कुछ बच्चे शोर कर रहे थे
और गालियों से अलंकृत कर रहे थे
चीफ प्रॉक्टर को गुस्सा आया
डंडा हिलाते हुए धमकाया
कि बोलो ये कुर्सियां किसने तोड़ीं
इस लड़के की खोपड़ी किसने फोड़ी
एक लड़का सीट पर तमतमा कर खड़ा हुआ
और बोला
गरुजी, डोनेशन चुकाया है
सीट पर बैठूंगा
अभी तो सर ही तोड़ा है
हाथ पैर तोड़ूगां
उस लड़के की उद्दंडता के पीछे कुछ राज़ था?
शायद किसी टीचर्स का ग्रुप उसके साथ था?
सभी टीचर्स चीफ प्रॉक्टर से खिन्न थे
उस छात्र की विलक्षण प्रतिभा के आगे प्रश्नचिन्ह थे?
एक बार चीफ प्रॉक्टर ने उस लड़के को
अपने ऑफिस में बुलाया
डंडा हिलाते हुए धमकाया
कि इस डंडे से सभी घबराते हैं
और प्रधानाचार्य जी थर्राते हैं
कि इस डंडे से सभी घबराते हैं
प्रधानाचार्य जी थर्राते हैं
लड़के ने हिम्मत दिखाई
ऑफिस में गोली चलाई
फायर हवाई था
वो और कोई नहीं
प्रधानाचार्य जी का चचेरा भाई था....
(नोट –ये कविता सत्य घटनाओं पर आधारित है)

शुक्रवार, 1 मई 2009

सत्यानासी काशी निवासी

प्रस्तुत होने वाली पंक्तियां मेरे पड़ोसी बर्बाद गुलिस्तां की पंडिताई से अवतरित हैं(नोट-बर्बाद गुलिस्तां माने पंडित का घर)। ये कहानी श्री-श्री 108 कदाचित् तामलोट लोटन प्रसाद सत्यानासी काशी निवासी पंडित राधेश्याम उपाध्याय की करतूतों से प्ररित होकर लिखी जा रही है। अपने आप को किसी की प्रेरणा का पात्र बनाने के लिए पंडित जी ने पूरे 60 बर्षों का कठोर तप किया है। किसी वन वगैरा में जाकर नहीं, बल्कि लोगों के घर में शादी से लेकर गरुण पुराण तक का इंतजाम कराने तक । कमाल के मैनेजर हैं पंडित जी। और वैसा ही कमाल की उनकी तोंद। जो उनकी पंडिताई के इतिहास की वीर गाथांएं सुनाती है। पेट का लंबा चौंड़ा घाट, कि जिस पर, बिछा लीजिए खाट। कुछ ऐसी ही सुंदर छवि है राधे महाराज की । नाम बेहद लंबा था पंडित जी का सो लोग उन्हें निकनेम से ही पुकारते हैं, जय हो राधे महाराज कहकर। अगर किसी को ज़ुबान दे दी तो कभी वापस नहीं ली, महाराज ने। बस पहुंच जाते हैं समय से एक घंटा पहले छप्पन भोग चटोरने। और अपने ज्ञान की गंगा बहाने। इस बार मैं उनसे पूरे एक साल बाद मिल रहा था। थोड़ा मैं भी बदल गया था । लेकिन वो कुछ ज्यादा ही बदल गए थे। इसलिए उनकी काया में थोड़ा संशोधन करके बता रहा हूं। पेट का लंबा चौंड़ा घाट कि जिस पर बिछा लीजिए एक बड़ी खाट। यानि पंडित जी की तोंद का साइज दिनों दिन तरक्की पर था। मंदी के दौर में जहां कॉरपोरेट जगत में पींगे लड़ाने वालों के गाल सूख चुके थे, वहीं पंडित जी के चेहरे पर बहार नज़र आ रही थी। पांच फिट सवा दो इंच लंबाई लिए पंडित जी जब फर्जी ज्ञान की गंगा बहाते । तो लोग उस बदबूमई गंगा स्नान करने से ना चूकते और तारीफों के पुल बांधने लगते और इस पल को देखते ही मेरा मन हमेशा की तरह बांकेलाल स्टाइल हो जाता(नोट-बाकेंलाल यानि कॉमेडी किंग, कॉमिक कैरेक्टर)। हाल ही की बात है एक विवाह समारोह में शिरकत करने आगरा गया था। फैमिली पंडित जी भी मौजूद थे। बरात चढ़ने से एक दिन पहले का समय था । दोपहर के 12 बजे होंगे। धूप उबाल मार रही थी। पसीना जलधारा बनकर निकल रहा था। इतने में शादी वाले घर पर राधे महाराज के कदम पड़ते हैं। अब पंडित जी पहले से ढाई गुना ज्यादा मोटे हो चुके थे और उनकी तोंद हमेशा की तरह गौरवमई इतिहास की गवाही दे रही थी। क्योंकि दरवाजे से अंदर जब वो आ रहे थे तो वो तो बाद में आए लेकिन उनका तोंद पहले घर में घुसकर अपनी प्रेजेंटेशन का अहसास करा चुकी थी।
जय हो राधे महाराज के संबोधन के साथ मैने उनका अभिवादन किया। जवाब भी मिला लेकिन अंजाना सा। शायद भूल चुके थे पंडित जी मुझ जैसे खुराफाती कैरेक्टर को । लेकिन मेरा ये सोचना गलत हो गया जब पंडित जी ने मुझे मेरे निकनेम से संबोधित कर कहा कि और नंदू भइया कइसे हौ ? कुशल मंगल महाराज। कुछ चाय पानी हो जाए क्या पंडित जी । मैने तो औपचारिकता मात्र पूछा था। लेकिन पंडित जी तो जैसे थाली चाटने को बेताब थे। बोले, भइया एक लोटा शीतल दूध ले आओ रुहआफजा डालकर। ओफ्फो आज तो लगता है आत्मा तृप्त करके ही दम लेंगे राधे महाराज। दूध प्रस्तुत किया गया । एक सांस में गटक गए पूरा एक लीटर दूध। ये तो शुरुआत थी क्योंकि अब तो भोजन भक्षण का खौफनाक आगाज होने वाला था। अरे ओ बड़े की बहू तनिक भोजन वोजन भी हो जाए। क्या लेंगे महाराज ? कुछ हल्का फुल्का जो बना हो वो ले आएं तो आनंदमंगल हो जाए। जी महाराज। भोजन के आते ही जुट पड़े राधे महाराज, ऐसा लग रहा था न जाने कितने जन्मों से भूखे हैं। जब खाने से छक गए तो अब बारी थी तोंद को तर करने की। पानी से कहां मानने वाले थे महाराज। कहा, बेटी अगर कुछ खीर जैसा बनाया हो तो दो वरना कोई बात नहीं। दरअसल पंडित जी को पूरा विश्वास था कि खीर बनी होगी। क्योंकि उनके पड़ोस में जो छोटा बच्चा खड़ा था उसका मुंह खीर की उपस्थिति की गवाही दे रहा था। और पंडित जी वो इतिहास पढ़ चुके थे। खैर उनकी वो मंशा भी पूरी हुई। और खीर से गले को तर किया गया। खाना खा चुके थे पंडित जी। अब बारी थी फलाहार की । मैं सोच रहा था कमाल की तोंद है इनकी कुछ पता ही नहीं चलता पता नहीं इतना खाना किस कोने में पहुंच गया। माया थी उनकी पंडिताई की जो बचपन से ही उनका पेट ज्यादा खाने की प्रैक्टिस में पारंगत था। इसी बीच फलाहार भी हुआ। बारी थी पूजा पाठ की जिसके लिए उन्हें अर्जेंट बुलाया गया था। वर पक्ष से दूल्हा तैयार था रस्मो रिवाज को। घर के आंगन में गड़े खंब के एक तरफ से राधे तो दूसरी तरफ थे भावी दूल्हा महाराज। और इन दोनो को घेरे हुए बैठी थी पूरी रिश्तेदार मंडली। पूजा पाठ आरंभ होता है (नोट-ये सारी रस्में शादी से एक दिन पहले की हैं) दूल्हे को प्रीपेयर करने के लिए पंडित जी पूरी तरह तैयार थे।
मंत्रोच्चार आरंभ होता है। ओइम गराणांत्वा गणपतिगोंगवा महे प्रियाणांत्वा प्रिय पति गोंगवा महे निधिनांत्वा निधिपति गोंगवा महे स्वाहा(स्पेलिंग मिस्टेक हो सकती है लेकिन मैं जैसा सुन रहा था वैसा ही लिख रहा हूं) । कलश के चारो ओर पान से जल प्रवाहित करें। दूल्हे से बोले राधे महाराज। और एक सौ एक रुपए भगवान के नाम चढा़ दें। दूल्हे की थाली में रखे हुए पैसों की ओर इशारा करते हुए हुए पंडित जी बोले । ओइम मंगलम भगवान विष्णु, मंगलम गरुणध्वजा, मंगलम पुंण्डरिकाछं, मंगलाय तर्णोहरि(स्पेलिंग मिस्टेक्स मे बी वो भी टू मच)। पुन: पैसे से भरी थाली की ओर इशारा करते हुए राधे महाराज ने 251 भगवान के नाम पर चढ़वा लिए। जैसे जैसे पंडित जी के वही रटे रटाए मंत्र बढ़ रहे थे। वैसे वैसे उनके ईश्वर अमीर होते जा रहे थे। लगभग बीस मिनट तक चले उस फर्जी मंत्रोच्चार ने भगवान को हजार पति तो बना ही दिया था। लेकिन दूल्हे महाराज बेफिक्र थे दनादन पैसों की बारिश कर रहे थे। आखिर जन्नत की सैर जो करने वाले थे कुछ ही घंटों बाद। उधर राधे महाराज पूजा समाप्त कर घर वापसी की तैयारी में थे। लेकिन उस बीस मिनट के पूजा सेशन में पंडित जी का पेट कुछ हल्का हो गया था। सो एक गिलास लस्सी की दरकार थी पंडित जी को। लस्सी का भी स्वाद चखा गया। और अब बारी थी पंडित जी की विदाई की । विदाई रस्म के अनुसार 501रु की तो बनती ही है। 501 रु लेकर ही माने काशीनिवासी राधे महाराज।
बारात वाला दिन। घर पर भीड़ बढ़ चुकी थी रिश्तेदारों की संख्या में ढ़ाई गुना इज़ाफा, घर पर तकरीबन अस्सी रिश्तेदार मौजूद थे। हर चीज़ के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ रहा था। चाहे बात फ्रेश ब्रश करने की हो, या फिर चाय नाश्ते की ही क्यों न हो। माहौल काफी कंजस्टेड हो चुका था। धीरे धीरे शाम हो चली थी। और बारात चढ़ने का समय करीब था।
मौका पाकर चौका मारने पंडित जी पधार चुके थे। इतने सारे रिश्तेदार देखकर पंडित जी की बांछें खिल गईं। मन ही मन जेब गरम करने के तरीके सोच रहे थे पंडित जी। आते ही आते रिश्ते में मेरे एक अंकल के हाथ टटोलने लगे। क्योंकि पिछली दफा उन्हीं अंकल से काशीनिवासी को बोनी हुई थी। मंशा इस बार भी कुछ ही थी । अरे जजमान इस बार तो आपके हाथ में एक नई रेखा जन्मी है। जो आने वाले 20 सालों तक आपके हाथ में राजयोग दिखा रही है। अंकल उनकी चालाकी से अंजान किंतु बेहद खुश। विदेश जाने का भी योग अतिशीघ्र बन रहा है। अंकल और खुश। पिछले 30 सालों से विदेश जाने की ही रट लगाए थे। हरबार पासपोर्ट और वीसा की दुहाई दिया करते थे। लेकिन इस बार तो पंडित जी ने उस पर हामी भी भर दी थी। और इस तरह पंडित जी की दिन की शुरुआत 251 रु से हो गई। देखा देखी में कई और लोग हाथ बढ़ाने लगे, फिर पंडित जी का वही पुराना प्रपंच शुरु हो जाता। मालूम हो कि कदाचित तामलोट महाराज लग्न मंडप में बैठने से पहले ही अपनी धोती काफी गरम कर चुके थे। जेब तो थी नहीं धोती में खूंट बांधकर पैसे रख रहे थे। खैर पुजापे का समय फिर चालू होता है। फर्जी ज्ञान के अंधकार में दिया जलाए बैठे पंडित जी पाल्थी मारकर मंडप में विराजमान होते हैं। वर-वधू तैयार हैं एक सात फेरे लेने के लिए और एक दूसरे को माला पहनाने के लिए। इतने में दूल्हे राजा के कानों में कुछ बुदबुदाने लगे पंडित जी। मैं समझ न पाया । लेकिन कुछ समय बाद दूल्हे के पिता की जेब से जो दान दक्षिणा बाहर आ रही थी। वो इस बात को चरितार्थ कर रही थी कि राधे महाराज ने क्या कहा होगा दूल्हे के कान में। कार्यक्रम आगे बढ़ता है। और वही पुराने मंत्रोच्चार जो एक दिन पहले मैं सुन चुका था । उन्ही की सीडी एक बार फिर रिपीट अवस्था में सुन रहा था। कई बार तो ऐसा होता कि न तो दूल्हे को मंत्र समझ आ रहे होते और न ही मुझे। पता नहीं कौन सी किताब पढ़ रहे हैं पंडित जी। सवालिया निशान तो बहुत सारे थे ।लेकिन टोकना उचित नहीं समझा। आखिर रिश्तेदार की शादी थी । गुस्से में कहीं उल्टे मंत्र पढ़ दिए तो पता नहीं क्या गजब हो जाए। और फिर दूल्हा ही जब इंटरफियर नहीं कर रहा तो मैं क्यों भांजी मारता। और हां एक बात तो बताना भूल ही गया इस बीच पंडित जी की करतूत जारी थी । वही बढ़ते मंत्र और बढ़ता पैसा। समय बीतता गया । पंडित जी का खूंट गर्म होता गया। अब तक तो लंबी चपत लगा चुके थे, सत्यानासी महाराज।
फेरों का कार्यक्रम समाप्त होता है। लेकिन पंडित जी का नहीं । वो वैसे ही जजमान नाम के एटीएम से गांधी जी बाहर निकालते रहे।
कहते हैं लालच बुरी बला है। लेकिन शायद सत्यानासी काशी निवासी पंडित राधेश्याम उपाध्याय के घर का नाम बर्बाद गुलिस्तां ऐसे ही थोड़े ही रखा था मैंने। क्योंकि उनके हालात भले ही सही हों लेकिन लोगों की हाय ले चुके महाराज की फैमिली में ऐसा कोई नहीं था जो समाज की ठेकेदारी न करता हो। सब एक से बढ़कर एक खुराफाती । पंडित जी कमाते थे और बीवी-बच्चे लुटाते थे। दूसरों को नोच-नोच कर प्लॉट बनाने वाले पंडित जी पता नहीं कब सुधरेंगे। ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन ये जरुर कहा जा सकता है। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाए।
जो इतिहास काली स्याही से लिख दिया गया हो वो भला कैसे मिट सकता है। पंडित जी के साथ भी कुछ ऐसा ही था।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

दइया रे दइया ‘बदल गई वो’

छरहरी काया, इठलाता बदन, बिल्कुल हिरणी के जैसा। आंखों में तीर सा चुभने वाला शार्प सा काजल, होंठों पर गुलाब की झलक। एक दम मादक सी हंसी। और उस पर गालों में पड़ने वाला भंवर। ओफ्फो एक अनूठी याद थी वो। लगता था कुदरत ने सारी फुरसत उसी पर उड़ेल दी हो। उसके बदन का हर एक पार्ट बड़े करीने से सजाया था खुदा ने। उस हूर का नूर कुछ ऐसा ही था। बस जहां से निकल जाए। हाएतौबा मच जाए। मार ही डालोगी, मर जांवा गुड़ खाके, मेरी दुकान पे आना मेरी जान, जैसे कमेंट उसे मिला करते थे । लेकिन उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। पता नहीं कौन सी मिट्टी से बनी थी। सबको कतार में ही रखती थी। किसी की सीट कंफर्म ना की उसने । और एक दिन न जाने कौन लंगूर उसे ले उड़ा। किसी को हवा तक न लगी। क्योंकि जिन गलियों से वो निकलती वहां से अब उसके बदन पर लगे इत्र की सुगंध भी न आती थी। कई दिन हो गए । लोग इंतज़ार करते करते थक गए। कि न जाने वो लाल दुपट्टे वाली कहां चली गई। उसी की राह तकते तकते छोटे की सात आठ चाय हो जाया करती थीं। लेकिन अब तो छोटे की दुकान भी सूनी सूनी रहती है। सब ऐसे उदास रहते जैसे उनकी अर्धांगिनी उन्हे किसी पराये मर्द के साथ भाग गई हो। पप्पू भइया तो उसके ग़म में ऐसे दीवाने हुए कि रामप्यारी का सेवन करने लगे। रात को जब उसका इंतजार करके घर लौट रहे होते तो कभी कभी हम लोग मिल जाया करते थे । बस शुरु हो जाती थी फ्रस्ट्रेटेड लवर की फ्रस्ट्रेटेड लव स्टोरी। यार वो चली गई। उसका इंतजार करते करते मेरे घर का बजट बिगड़ गया और वो है कि बिना बताए चली गई। हाय री बेवफा सनम। पप्पू की हालत देख कर एक जुमला बिल्कुल फिट बैठ रहा था। कि ‘पुतलियां पथरा गईं , और गर्क चहरा हो गया, डाल दो मुंह पर कफन, कह दो कि पर्दा हो गया’ । बेहद बुरे दौर से गुजर रहा था पप्पू। खैर रात गई बात गई। होली के आसपास की बात है। वो दिन हम सभी मित्रों को हमेशा याद रहेगा । सब रंग खेल रहे थे । छोटे की दुकान पर एक बार फिर जा पहुंचे । यादों को ताजा करने क्योंकि फिछली होली मैं भी घर नहीं जा पाया था। सो इस बार हम सब फिर साथ थे । पप्पू भी मौजूद थे। सब बेहद खुश थे। पुरानी यादें ताजा कर रहे थे। कि अचानक पड़ोस वाले मकान पर नज़र गई। उस मकान की छत पर लोग काफी लोग मौजूद थे। और उनके बीच मौजूद थी वो हुस्न ए बहार। शादी के बाद पता नहीं कब वापस आई। किसी को न पता चल पाया। सबकी निगाहें ऊपर ही थीं । टकटकी लगाए बस सारे के सारे छैला बिहारी निहारे चले जा रहे थे। इतने में वो नीचे उतर आई अपनी पुरानी सखियों के साथ। लेकिन जैसे ही वो नीचे आई। सबको झटका लगा। क्योंकि जिस हुस्न ने गली के 20 नौजवानों को मजनू बना दिया वो वो हूर कुछ और ही हो गया था। और अनायास ही पप्पू के मुंह से प्रस्फुटित हुआ ‘दइया रे दइया बदल गई वो’ । जिसकी जवानी के चर्चे चहुंओर से । वो शादी के बाद क्या हो गई। न तो वो छरहरी काया ही रही । न वो काजल । न वो गुलाब सी हंसी । सबकुछ मुरझाया सा लग रहा था। सब चकित थे । और एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। क्योंकि पहले तो उसकी त्वचा से उसकी उम्र का पता ही न चलता था । और अब है कि उम्र ही उम्र नज़र आती है। मेरा तो मन मान ही न रहा था । कभी मैदा की भेंड़ रही उस मनचली का रंग भी डाउन हो गया था। चूंकि पप्पू तो नशे में चूर था । और सब जानते हैं नशे में आदमी शेर होता है । किसी बात का डर नहीं होता। रोक ही लिया लड़की से आंटी हो चुकी श्रीमती जी को। एक ही सांस में सैकड़ों सवाल दाग डाले। और ये भी कह डाला हम से ही सेट हो जातीं तो क्या बिगड़ जाता । चली गईं लंगूर के पास। अब भला लंगूर की सोहबत में कोई इंसान रह सकता है क्या ? हीहीही....रामप्यारी का जोरदार भभका और फिर ये हंसी। और अचानक एक जोरदार साउंड। चांटा जड़ने का । बेचारे पप्पू का गाल हरे से गुलाबी हो गया। सब तितर-बितर हो गए उस एक विस्फोटक चांटे की बदौलत। लेकिन जिस चांटे का कहर पप्पू पर पड़ा। वो टस से मस न हुआ। नो डाउट ही वाज़ ए ब्रेब पर्सनालिटी। और फिर गिरते हैं शह सवार ही मैदान ए जंग में। लेकिन कुछ देर के लिए वातावरण शून्य हो गया था। लेकिन पप्पू की बात में वाकई सच था । उसकी ज़ुबान से उस दिन निकला एक एक शब्द उसकी उस व्यथा को बता रहे थे। जो उसने विरहा में बिताए थे। आज अचानक उसे देख मन का सारा गुब्बार सामने आया । जिसका रिज़ल्ट चांटे के रुप में पप्पू के गालों पर साफ दिखाई दे रहा था। खैर जो भी हो । वो वाकई अब वैसी नहीं रही थी । जिसकी बदौलत छोटे चाय कार्नर की का लाभ कभी-कभी 9000 रु प्रति माह को पार कर जाता था। उसके इंतजार में लोग चाय की रेलमपेल जो मचा देते थे। लेकिन फिर वही बात अब वो दिन कैसे लौटेंगें। अब लोग उसका इंतज़ार बिल्कुल नहीं करेंगे। क्योंकि ज़माने लद गये, जब पसीना गुलाब था, अब मलते हैं इत्र, पर बदबू नहीं जाती। और उसकी काया वाकई बदल गई है। सोच कर हैरत सी होती है। और लगता है अब किसी और का इंतज़ार करना पड़ेगा। लेकिन दुआ भी करनी होगी कि अब दइया रे दइया न हो। औऱ पप्पू की कोई घरवाली हो जाए।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

मिडिल क्लास भगवान

बारि मथे घृत होई, सिकता ते बरु तेल,।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल ।।
महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तर कांड में इन पंक्तियों का ज़िक्र किया है। जिसका अर्थ है कि हवा को मथने से घी बन सकता है, और रेत से तेल निकल सकता है, लेकिन बिना ईश्वर को याद किए इंसान इस भवसागर रुपी संसार को पार नहीं कर सकता। यानि ईश्वर ही सब कुछ है। इसके बगैर इंसान कुछ नहीं। लेकिन बदला ज़माना, बदला परिवेश, बदले चेहरे, और बदल गया चरित्र । अब भवसागर पार करने के लिए भगवान की नहीं, दो घूंट बाटली की जरूरत होती । औऱ खुद आदमजात खुदा हो जाता है। इस खुदा को अगरबत्ती नहीं सिर्फ चार कश श्वेत दंडिका के चाहिए वो भी सुबह सुबह। अर्ली मॉर्निंग। आखिर प्रेशर का सवाल है। ये खुदा अब तकिया छोड़ अखबार पढ़ने को बेताब है। जल्दी जल्दी सारी ख़बरें चाट लेंते हैं, न जाने कितने चटोरे हैं भगवान। और इसी बीच चाय समोसे हो जाएं फिर तो समझो भगवान की लॉटरी लग गई। ओए होए मजा ही आ गया (ये भगवान की फीलिंग है मेरी नहीं) । मजे की बात ये भगवान मिडिल क्लास हैं। मतलब जिनकी मार कभी कभी राक्षस भी लगा जाते है। तो छोटे मोटे राक्षसों पर विजय पाकर ये भगवान अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इन भगवान की एक धर्मध्वजा भी हैं। वो और देवियों की तरह शर्मीली सी नहीं दिखतीं कैलेंडर में। वो बेहद आधुनिक हॉट एंड सेक्सी दिखने की होड़ में कभी कभी मार्केट चली जाती हैं। तो बेचारे भगवान की दो जून की बाटली पर ही बन आती है। मिडिल क्लास भगवान की मिडिल क्साल धर्मध्वजा। वैसे भगवान की फैमली का ये छोटा सा लेखा जोखा था। खैर अब चाय समोसा हो चुका । टाइम है आवारागर्दी करने का । एक बात और इन दिनों ये मिडिल क्लास भगवान भी मंदी की चपेट में हैं। सो स्वर्ग लोक से धक्का देकर इन्हे कहीं और ही भेज दिया गया है। इस समय खाली हैं। जिन कपोलों पर कभी लालिमा सी हुआ करती थी । वो कपोल अब रामचंदर सूखे के गालों की तरह गर्त में जा चुके हैं( रामचंदर एक बहुत ही सूखा सींक सा व्यक्ति, ये व्यक्ति सिर्फ हमारे शाहजहांपुर में ही पाया जाता है ) । चूंकि दौरे आवारागर्दी है। लेकिन भगवान हैं। इज्जत का सवाल है। लोग टोंकेंगे कि कैसे भगवान हो खाली रहते हो। बस इन्ही सब वजहों से आजकल साइडबिजनेस और लोगों पर फर्जीवाड़े का रौब झाड़ने के लिए बमपुलिस की जमादारी का टेंडर हाथ में ले लिया है। छोटे मोटों को हड़का कर दाम कमा लेते हैं। और हाफटाइम ही काम करके घर लौटने की चिंता सताने लगती है। इस हाफटाइम में भी पूरी हरामखोरी रहती है। खैर भगवान का अब घर लौटने का समय हो चुका है । बेहद कम पैसे लेकर लौटे भगवान को इस बात का ज़रा भी इल्म ना था कि आज उनकी बेलन से मार होने वाली है (ध्यान रहे, कि भगवान कभी अंतर्यामी थे, उन पर कोई संकट आने वाला होता तो उन्हें पहले से ख़बर लग जाती, लेकिन मंदी के दौर में हाइकमान ने उनसे ये ताकत भी छीन ली, जिसके चलते उनकी अंतर्यामी होने की ताकत जाती रही)।और वो ख़तरे को भांप ही न सके जो उन पर आने वाला था। घर के दरवाजे खुलते हैं। आवारागर्दी के दौरान कुकर्म किए वो मुंह से महक के रुप में वापस आ रहे थे । घर में घुसे ही थे कि गालियों की बौछार से कैलेंडर वाली माता ने उनका स्वागत किया। आ गए पीके। कुत्ते, कमीने हरामजादे। घर में नहीं खाने को, और अम्मा चलीं भुनाने को । घर में ढेला नहीं है और तुमने दारु की अती कर रखी है। कम्बखत कहीं के । बड़े आए भगवान बनने । इसी दौरान एक बेलन भी फेंक कर मार दिया। जैसे तैसे खोपड़ी झुकाकर बच पाए मिडिल क्लास भगवान। दौर ए अब्यूज़ जारी है। कैलेंडर वाली माता कहती हैं, हमें तो एक साड़ी कभी न लाकर दी। खूंटी देवी पर तो बड़े मेहरबान होते हो। सारी ख़बर मुझे पता चल चुकी है। दिन में कहीं और रात में कहीं और । तुम्हारे सारे कुलच्छनों का चिट्ठा मेरे पास है। अगर आइंदा से मेरी सौतन के पास गए तो तुम्हारे प्राण हर लूंगी (मालूम हो कि स्वर्ग में भी महिलाओं की तरह देवियों को आरक्षण दिया गया है, इस आरक्षण की वजह से कैलेंडर वाली माता की सारी दिव्य शक्तियां अभी तक बरकरार है, यही कारण है कि उन्होंने भगवान से प्राण हरने वाली बात कही) । खैर जैसे-तैसे प्राणों की प्यासी कैलेंडर वाली माता से छुटकारा मिला । अगेन गम गलत करने ठेका कच्ची शराब की दुकान पर जा पहुंचे। एक पाउच में ही टल्ली हो गए। पहले से जो पी रखी थी। कैलेंडर वाली माता के सदमे से उबरने के लिए और दिल की भड़ास निकालने के लिए, लोगों को गलियाने लगे । पब्लिक प्लेस पर दारू और ऊपर से गलियाना किसी बडी़ मुसीबत को दावत देने जैसा ही था। एक बार फिर याद दिला दें कि ये भगवान अपनी सारी शक्तियां खो चुके हैं, जिसके चलते उन्हें ये अंदेसा ही नहीं रहा कि वो किस मुसीबत में फंसने वाले है। पुलिस आई और बजाए चार पांच बेंत पिछवाड़े पर। अब भगवान लगे गिड़गिड़ाने। कैलेंडर वाली माता की दुहाई देने लगे। रिश्वतखोरों ने कुछ ले देकर छोड़ दिया। भगवान सोच रहे थे । आज ससुरा कुछ दिन ही अच्छा नहीं है। पहले धर्मध्वजा से पिटा और अब पुलिस से। अभी भी मानने को तैयार नहीं एक बीड़ी का बंडल खरीद ही लिया। घर के बाहर खड़े होकर आसमान में देखने लगे । सोच रहे थे कि शायद हाइकमान से बुलाबा आ जाए और मेरी स्वर्ग में फिर से बहाली हो जाए। इतने में उनके पुराने दोस्त रहे मान न मान मैं तेरा मेहमानाचार्य ऋषी टपक पड़े। कष्ट से घिरे भगवान को देखकर दारुण हो उठे। बोले भगवन अगर आप कहें तो में दुश्कर्मा जी से बात करुं वो ही आपकी बात ऊपर तक पहुंचा सकते हैं ( आपको पता होना चाहिए कि गर्मी के मौसम में मान न मान मैं तेरा मेहमानाचार्य ऋषी हमेशा छुट्टी पर निकलते हैं, इसी दौरान घूमते हुए उन्हे उनके पुराने मित्र मिले,­ ऋषी काफी सोर्स फुल हैं, अपनी पंडिताई के बल पर इन्होंने परलोक में एक नया फ्लैट लिया है वो भी कैश इन हैंड देकर) । उधर मिडिल क्लास भगवान पर कृपादृष्टि करने को आतुर ऋषी ने इतनी देर में कई सुझाव दे डाले। लेकिन उन्हे कोई रास न आया । उन्हे तो बस एक ही धुन थी। कि कैसे भी उनकी वो ताकतें वापस आ जाएं। जो खो चुकी थीं। लेकिन मंदी से त्रस्त स्वर्ग लोक उनका नाम रजिस्टर में लिखने को तैयार ही न था। क्योंकि भगवान की लतों के बारे में सब जानते थे । उनका खर्चा कौन संभालता। जब स्वर्ग लोक में थे तो बिल्कुल कुंवर साहब बनकर रहते थे उस समय कपोल भी लाल-लाल टमाटर से थे। एक दम हस्ठ पुष्ठ। मिडिल क्लास भगवान। अब कोई सुनवाई को तैयार न था बेचारे कुंवरसाब की कहने का मतलब है भगवान की सुनवाई को कोई तैयार नहीं था। अपनों में बेगाने से नज़र आते थे। हर कोई दुश्मन लगता था। लेकिन समझने वाली बात ये है वो तो भगवान थे । लेकिन हम तो आम हैं ऐसे में हमारी क्या दुर्दशा होती। जब भगवान ने भगवान को न छोड़ा तो हमारी क्या औकात। इसलिए ज़रा संभल कर भगवान बनने की कोशिश करें। नहीं तो खुदा के फेर में ज़िंदगी से जुदा न होना पड़ जाए। जय बजरंग बली।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

भाषा तो ऐसी होती है (शाहजहांपुर के गंवार से दिल्ली की ‘खड़ी बोली’तक)

सतत्, निरंतर, लगातार, यही परिभाषा है समय की। जो न कभी थकता है, न किसी का इंतज़ार करता है, और न ही किसी का मोहताज है। सबको इसी के हिसाब से चलना पड़ता है। मिट्टी की खुशबू हमेशा ज़हन में बसी रहती है सो आज भी वही सुगंध एक बार फिर हिलोरें मारने लगी। और खुशनुमा मौसम ने उस सुगंध और भी महक उड़ेल दी है। कुछ लिखने का मन करने लगा, सोचा बदलते मौसम के साथ, “भाषा और बदलते परिवेश” पर ही लिख दूं। ये सफर शाहजहांपुर से दिल्ली तक की कहानी बयां करता है। कि दिल्ली आया एक युवा समय के बदलाव का कैसे शिकार हुआ। चलिए पहले आपको शाहजहांपुर लिए चलते हैं। दिल्ली से 330 किलोमीटर दूर ये शहर मुगल कालीन सभ्यता का परिचायक शहर रहा है। इस शहर को क्रांतिकारियों का शहर भी कहा जाता है। रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्ला जैसे क्रांतिकारियों की कर्मभूमि रही है शाहजहांपुर की मिट्टी। भाषा भी बेहद निराली है यहां की । अगर बड़े बूढ़ों के बीच बैठ जाएं तो जो गंवई अंदाज़ ए बयां होता है। वो वाकई अनूठा अहसास कराता है। और यदि शहर से सटे गांव चले जाएं तो और भी आनंदमंगल । गांव के एक स्कूल में एक बहनजी (बीएड-बीटीसी मार्का) बच्चो को पढ़ा रही हैं। अब सुनिए शहर की बहन जी और गांव के बच्चों के बीच संवाद। हाजरी का समय है। सारे बच्चे अपने नाम का इंतज़ार कर रहे हैं। कुछ कपड़े पहने हैं तो कुछ बिचारे नंगे पुंगे हैं, बिना नहाए धोए स्कूल में बिछी टाट पर आकर बैठ जाते है। हाजरी शुरु होती है। रामलाल, जी बहिनजी। कल्लू, जी बहिन जी। कलट्टर, आए हैं बहिन जी कहूं गए हैं ( कलट्टर की गैरमौजूदगी में संतरा बोलीं) । संतरा एक लड़की का नाम। हाजरी जारी है। दरोगा, जी मदम ( अंग्रेजी बोलने की पुरजोर कोशिश की दरोगा ने फिर भी मैडम को मदम ही बोल पाया) । कथा, जी बहिन जी। रुमाली, जी बहिन जी। हाजरी लगती रही। इसी बीच कलट्टर आ गए जो हाजरी के दौरान गायब थे। बहिन जी ने पूछा कहां रई गए थे( कहां रह गए थे)। कहूं नाई बहिन जी हमारे गोरु कहूं भाजि गए थे(कहीं नहीं हमारे जानवर कहीं भाग गए थे) । उन्हई का पठऊन गए थे घरई ( उन्हे घर भेजने गए थे) । गोरू चरइयू कि पढ़ियऊ भी ( जानवर ही चराते रहोगे या पढ़ोगे भी) । बहिन जी बप्पा नाई मान्त का करईं ( बहिन जी बाप नहीं मानते क्या करें)। भोर होत से बहिरार भेजि देत, हम घास छोरईं की पढ़ईं, तुमई बताबऊ (सुबह होते ही मुझे घास छीलने के लिए खेत पर जाना होता है तुम ही बताओ घास छीलूं की पढूं)। सो ता हइय ( बहिन जी ने सिर हिलाते हुए कहा ये तो है ही) । इस बीच हाजरी एक बच्चे की तो रह ही गई। नाम था नपोरा। तो बहिन जी बोली नपोरा का संबोधन करते हुए नपोरा । चेहरे पर सत्तर तरीके के बल पढ़ गए बहिन जी के । जी बहिन जी(यानि नपोरा प्रेजेंट) अब नपोरा को बुलाया गया अपनो नाम काहे नाई बदलबाऊत। नाई बहिन जी हमारी अम्मा ने रखो। हम नाई बदलबईं। चलऊ अपने बप्पा का पठऊ । उनसे कहिई कि कहूं अइसो नामऊ होत। नपोरा अपने पापा को बुला लाता है। जी बहिन जी का बात है। देखऊ नपोरा गारी होत अऊ तुम जा नाम को बदरबाबऊ। नाई तउ नाम काटि दौ जइही( बहिन जी ने धौस दिखाते हुए हड़काया कहा नपोरा गाली होती है, नाम बदलबाओ नहीं तो नाम काट दिया जाएगा) लेकिन नपोरा के बापू कहां मानने वाले थे। कहते हैं, नाई बहिन जी हम कतई नाई नाम बदरिहीं, नाम चाहे रहई या नाई रहई( हम नाम कतई नहीं बदलेंगे, नाम चाहें कटे या बच रहे) हें नाई तौउ (हा नहीं तो) बचपनई मां नाम रक्खि लओ( छोटे पर से ही नाम रख लिया था) । सारे गौंतरिया नपोराई कहत( सारे रिश्तेदार उसे नपोरा ही कहते हैं)। हम नाई बदरिहीं कतई ( हम नहीं बदलेंगे कतई)। और आखिर उसका नाम नपोरा ही रहा वो आज काफी बड़ा हो चुका है लेकिन वो आज भी नपोरा ही है। ये सब सुनकर एक अद्भुत अनुभव की प्राप्ति हो रही थी । क्योंकि जो शब्द संचार मैं स्कूल में सुन रहा था, वही शब्द संचार मैं अपने दादी, बाबा, पापा और मित्रमंडली से करता था। वही ठेठ गंवई अंदाज़। मजा आ जाता था सचमुच। और मिट्टी की खुशबू तो आपको पता ही है कैसी होती है। “देश की माटी माटी चंदन, मस्तक इसे लगा लें हम”। लेकिन उस गंवई भाषा ने भी बदलाव का दौर देखा । मैं दिल्ली पहुंचा, द्रुतगामी गति से चलने वाली मीडिया का पत्रकार बनने। इस दौर ए पत्रकारिता ने मेरा भाषा संचार कुछ ऐसा कर दिया कि बस पूछिए मत। जो शब्द कभी “हम” हुआ करता था वो “ मैं” में बदल गया, “आप” बदल गया “तू” में। खड़ी बोली का ऐसा भूत सवार हुआ कि अब जब घर पहुंचता हूं तो बमुश्किल ही गंवई अंदाज़ बाहर आ पाता है। बिल्कुल बनावटी सा। मजे की बात तो ये है कि यही दिल्ली मेड भाषा अब गले का हार बनकर सोभायमान होती है । डिलाइट्स के बीच ये भाषा मुझे उन जैसा ही बनावटी बना देती है। छोले कुल्चे सी टिकाऊ ये भाषा बदलते परिवेश के बीच मुझे वो ताकत देती है कि अब मैं उनके बीच ठगा सा नहीं महसूस करता । जब शुरु में दिल्ली आया तो लोग बड़ी आसानी से मेरी भाषा को पहचान लेते थे कि बेचारा कहीं यूपी व्यूपी का होगा । ठग लोग साले को। और कई बार भाषा के चलते ठगा गया। कभी अपनों से तो, कभी परायों से। लेकिन आज पूरे पांच साल का अनुभव हो चुका है इस दिल्ली मार्का लैंग्वेज का । यानी पूरा पोस्ट ग्रेजुएट कर चुका हूं, इस भाषा में, देखते हैं अब कौन ससुरा ठगता है। अब तो मैं ही ठग लूं ससुरों को। लेकिन बनावट के तड़के से लबरेज इस भाषा में वो स्वाद नहीं है। जो मेरी ठेठ गंवई भाषा में था । आज भी उन शब्दों में बातें करने को कसमसाता हूं। कि काश कोई अपना मिल जाए, और बदलते परिवेश में मुझे अपनों सा अहसास करा दे। और फिर वही गांव का स्कूल याद आ जाए। वो बहिन जी जो अब मां जी हो चुकी होंगी, वो कलट्टर जो चपरासी भी न बन पाया होगा, वो संतरा जिसके छिलके छिल कर सूख चुके होंगे और वो नपोरा जो आज भी नपोरा ही होगा। शायद समय के कुछ परिवर्तन से बदले होंगे लेकिन फिर भी वैसे ही होंगे। आज के लिए इतना ही।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

“जूता” पहनो तो लाइसेंस जरूरी

छोटा सा था । बस ये समझें, जब पैदा ही हुआ था। कोमल से पैरों में, मां ने पहनाया था। ऊन से बुना जूता, ताकि मेरे पैरों की कोमलता बरकरार रहे । मोजे से दिखने वाले वो जूते जब गंदे हो जाते थे, तो मां उन पर पॉलिश न करके,निरमा से धो देती थी । दिन में कई बार गंदे हो जाते थे वो जूते। लेकिन इसका भी इंतज़ाम था । कई जोड़ी जूते थे मेरे, पास ऊन से बुने हुए, रंग बिरंगे से। कई बार बदलती थी मां दिन भर में। कई बार तो, वो जूते कपड़ों से मैच हो जाया करते थे । मैं छोटा सा तो था ही बोल पाता नहीं था ,बस कुदरती मां मां ही मुंह से निकलपाता था । मैं जब उन्हे देखकर खुश होता तो मां भी मुझे वात्सल्य देती ।धीरे-धीरे बड़े होने का समय भी आया और न जाने कब वो छोटा सा “नंदू” (घर पर सब मुझे नंदू बुलाते हैं) 5 फिट साढ़े दस इंच का फुल साइज़ युवा हो गया । साइज़ बढ़ा था । तो जूता भी बढ़ना था । एक नंबर से आठ नंबर तक पहुंचने में 16 साल लग गए। अब ये जूता कुछ ऐसा हो चुका है, कि ठक ठक का साउंड पल्यूशन भी करता है। जब पानी पड़ जाए तो यही ठक-ठक, चर्र-चर्र होने लगता है । बेहद मजबूत बाटा का जूता, हिलाए से न हिले, बहुत दिनों से यही पहन रहा हूं। रंग भी काला है, मेरा वेरी फेवरेट कलर,आज ये आठ नंबर का जूता वाकई रौबीला सा अहसास कराता है। जहां से निकलता हूं, बस लोग देखते रह जाते हैं, कि “एक्खें कुंवर साब आ रहे हैं” । अपने दोस्तों के बीच इस जूते ने बहुत सम्मान सा दिलाया, मजा तो तब आया जब एक दिन ये किसी पर बज गया, मतलब वफादार ने निभाई वफादारी,उस दिन तो वाकई मैं निहत्था था सिर्फ जूते का सहारा था, बस जूते ने इज्जत बचा ली। इतना ही नहीं इस जूते से बड़े महान काम भी होते हैं। समाज को सुधारने के अपना विरोध जताने के, लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने को हाइलाइट करने के दरअसल सात अप्रैल 2009 को एक बार फिर जूता चला (मेरा नहीं किसी और का), निशाने पर थे चिदंबरम साहब और निशानेबाज़ थे सीनियर पत्रकार जरनैल सिंह सभी ने देखा कि किस तरह चौरासी के दंगों पर आई सीबीआई रिपोर्ट के विरोध में ये जूता चला। जूता चलने का इतिहास बेहद पुराना है ,अफगानिस्तान को ही ले लें वहां तो विरोध जूता चलाकर ही दिखाया जाता है।लेकिन जरनैल जी इंस्पायर्ड थे उस ईराकी पत्रकार से, जिसने बुश पर जूता चलाया था उस दिन भी जूता विरोध के स्वर बोल रहा था। लेकिन सोचने वाली बात ये है, कि चमड़े से बना ये “मृत जूता” कितना और बोलेगा विरोध के स्वर, क्या लोकतंत्र के रहनुमा, ऐसे ही जूते का फायदा उठाएंगे, जूते को एक हथियार बनाएंगे,कहीं ऐसा न हो जाए,कि जूता पहनने वालों के लिए एक दिन लाइसेंस कम्पलसरी हो जाए। और जूता खरीदने के लिए पहले आरटीओ के चक्कर लगाने पड़ें। इतिश्री फिलहाल।

बड़ा महंगा है ये रब, जो “तुझमें दिखता है”

पीढ़ी बदल चुकी है। आदिकाल नहीं रहा। बेचारे नंगे पुंगे वो लोग जो पत्तों से अपने तन को ढका करते थे । सिलाई मशीन से सिले कपड़ों के दिवाने हो चुके हैं। वो खेतिहर मजदूर भी नहीं रहे जो अपने जीवन यापन के लिए जानवरों पर निर्भर होते थे, जानवरों से खेती करवाना उनका शिकार करना, उनके पेट की छुदा को शांत करता था। और उससे मिली ताकत से खुद ही यदा कदा खेतों में बैल की तरह काम किया करते थे। आधुनिकीकरण के इस युग में ट्रैक्टर ट्रॉली, थ्रेशर, आदि आधुनिक यंत्र उनका रुप ले चुके हैं। लेकिन समय का बदलाव ऐसे ही जारी रहता है । हर किसी को अपने तौर तरीकों में परिवर्तन करना पड़ता है। और शायद यही परिवर्तन उसे जीने के मायने समझाता है। आज आधुनिकता का दौर कुछ यू है। कि बगैर महिला मित्र इंसान अपने को अधूरा समझता है। उस महिला मित्र को जवां पीढ़ी परिवार से ऊपर भी ओहदा दे देती है। बाप, पाप हो जाता है। मां न जाने कहां खो जाती हैं। घरवाले, बाहरवाले हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही होता है जब मुहब्बत का जुनून सर चढ़कर बोलता है। लेकिन मजा तो तब आता है। जब मोहब्बत का ये भूत, महबूबा में अपने रब को देखता है। “तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करुं सजदे सिर झुकता है यारा मैं क्या करुं” सभी ने सुना होगा। यानी महबूबा में दिखा भगवान। जो ले लेता है प्राण। प्राण कैसे लेता है वो भी समझिए ! इस रब को चाहिए मैकडॉन्ल्ड्स का बर्गर, कोल्ड ड्रिंक्स, पिज्जा हट का पिज्जा, बनाना लीफ की थाली, हफ्ते में एक बार डिस्को थेक की थिरकन, मल्टीप्लेक्स में एक चलचित्र-वो भी गोल्डन लेन में, महंगे डिजाइनर शोरुम्स से सूट्स वो भी बगैर छूट, बाइक पर लॉंग ड्राइव, कभी कभी सड़क पर खड़े खोमचों का स्वाद, प्रिन्स पान वाले का महंगा पान, वोडका के दो दो पैग (मालूम हो कि रब सिर्फ वोडका सेवन करते हैं) वो भी किसी धांसू बार में । वाकई बड़े महंगे पड़ते हैं ये रब। खून चूस लेते हैं, फिर प्राण क्या बचेंगे खाक। इसलिए ऐसे रब से सावधान। वरना आदिकाल कहीं वापस न आ जाए। और फिर वही तंगी आपको नंगा न कर दे । और आप मजबूर हो जाएं पत्ते पहनने को।

मंगलवार, 17 मार्च 2009

श्रमजीवी-स्लमजीवी

उन गलियों में सड़कें नहीं होती। सड़कों के नाम पर उनके ही द्वारा बनाई गई कुछ पगडंडियां होती हैं जिनके किनारे बसता है भारत का श्रमजीवी भविष्य। टीन के नीचे सोता भारत का बहुत बड़ा तबका। ये तबका और श्रमजीवी भविष्य 24 घंटे संघर्ष में बिताता है या यूं कहें दो जून की रोटी की जुगाड़ उनसे बैलों की तरह काम करवाती है। इनके घरौंदों की हालत किसी चिड़िया के घोंसले जैसी ही समझिये, जिन पर आंधी औऱ तूफान की मार सबसे पहले पड़ती है। रात को सोते समय अगली सुबह ये भरोसा नहीं होता कि छत के नाम पर पड़ा खपड़ैल या टीन शेड उनके सिर होगा या नहीं। लेकिन वो लोग तो श्रम को जीते हैं। उनके लिए हर साल आने वाली प्राकृतिक आपदांयें मायने नहीं रखती, उन्हे तो आदत हो चुकी है, श्रम के साथ जीने की और श्रम करते-करते मर जाने की। कफन की भी चिंता करना उनके लिए बेजा होती है, । क्योंकि इनके मरने के बाद नगरपालिका जैसे सरकारी संस्थान टेण्डर जैसा जारी करते हैं, खासकर आपदाओं के समय। और ‘लाश के वास्ते’ सवारी में उनकी लाशों को भी डाल दिया जाता है। उनके साथ ये ज्यादा होता है जिनके ‘न आगे नाथ ना पीछ पगहा’ हो। महानगरों में धन्नासेठों के लिए ये लोग एनर्जी सेविंग टॉनिक का काम करते हैं, क्योंकि इन्हीं के बीच से निकलने वाला भारत का भविष्य ट्रैफिक सिगनल पर उनकी कारों के शीशे साफ करता है, पंचर जोड़ता है, न्यूटन से लेकर प्रेमचंद्र को बेचता है, और सड़क के किनारे पानी पिलाने का पवित्र काम भी करता है। अगर संयुक्त राष्ट्र की मानें तो पूरे विश्व में लगभग एक बिलियन लोग स्लमजीवी हैं। यानि ये पूरे बिलियन भर लोग अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई में ही जीवन बिता रहे हैं। मजा तो तब आता है जब इन्हीं स्लमजीवी लोगों पर डेविड मिलिबैंड मेहरबान होते हैं। और मुंबई की झुग्गियों से प्रेरणा लेकर एक ऐसी फिल्म बना डालते हैं जो ऑस्कर में आठ-आठ पुरस्कार ले उड़ती है। स्लमजीवियों पर बनी इस फिल्म के बारे में आप और हम सभी जानते हैं। लेकिन फिर भी याद दिलाना जरुरी है कि इस फिल्म का नाम स्लमडॉग था। स्लमडॉग के नाम को समझाने की जरुरत नहीं हर कोई आसानी से समझ सकता है। फिल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी कि एक स्लमजीवी कैसे एक करोड़पती बन जाता है। वो भी महज़ एक रियलिटी शो के द्वारा। फिल्म अच्छी थी, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन सच्चाई से कोसों दूर थी। दरअसल जिन स्लमजीवियों के जीवन को तीन घंटों में समेटा गया उनके जीवन की सच्चाई इतनी कठिन है कि उनकी व्यथा सिर्फ वे ही जान सकते हैं। हकीकत यही है कि सतत् श्रम के साथ जीने वाले ये स्लमजीवी सिर्फ झुग्गी में रहने वाले वो लोग हैं, जो अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रहे हैं, और जिनके अस्तित्व पर ही ख़तरा हो वो भला कैसे करोड़पती बन सकता है। लेकिन फिर भी वो लोग जीना जानते हैं हमसे और आपसे बेहतर तरीके से। क्योंकि उनकी आशाओं का संसार टीन शेड, खपड़ैल, और तंग गलियों तक ही सीमित है।

रविवार, 15 मार्च 2009

मेरी होली तो बस ऐसी ही है


नई सुबह, नया उजियारा
नए से रंग, लगे हर कोई प्यारा
दर पर दस्तक देती होली
प्यार और ठिठोली
इन रंगों में रंग दो सबको
हो जाओ सब अपने
ये रंग आज सबको रंग देंगे
उल्लास के रंग से
हर्ष के रंग से
उमंग के रंग से
तरंग के रंग से
कुछ ऐसी ही रंगत भरती है ये होली
ये रंग भेदभाव नहीं जानते
वो तो बस लोगों को नए रंग में
रंग देना चाहते हैं
ये रंग ही नूर हैं
जो रोशन करेंगे सारी दुनिया को
आज ऐसी ही खुशी पूरे भारत में हो
हर कोई गोपाल बने
गोपी बने, ग्वाला बने,
और बन जाए मां यशोदा, मां देवकी......
लेकिन आज
अधूरी मेरी होली है
मेरी दुनिया
बेनूर और बदरंग है
मेरे सपनों का संसार
आज सिर्फ एक सपना है
मुझ पर आतंक का साया है
खून के छीटे हैं
जो बंदरंग कर रहे हैं
मेरे तन को
मेरे मन को
मेरी आपके ही जैसी
एक मां थी
एक पिता थे
एक भाई था
एक बहन थी
और एक छोटा बेटा
जो अब एक
ख्वाब बन चुके हैं
वो आज नहीं हैं
मेरी होली उनके बगैर होगी
ये दर्द मुझे
मानवता के उन
दुश्मनों से मिला
जो रिश्तों को नहीं मानते
जो आतंक को जानते हैं
जो धर्म नहीं जानते
अधर्म को फैलाते हैं
उनका धर्म
तो सिर्फ लोगों की मौत है
वो लाल रंग तो जानते हैं
लेकिन सिर्फ खून का
वो होली तो खेलते हैं
लेकिन सिर्फ लहू से
वो इंसान तो हैं
लेकिन इंसानियत के दुश्मन हैं
दर्द आज भी, बहुत है
जो टीस देता हैं
रह रह कर सताता हैं
मेरी होली तो बस ऐसी ही है
बस ऐसी ही
क्योंकि मेरी होली का रंग
लाल है
मेरे अपनों के लहू से

शनिवार, 17 जनवरी 2009

अलग-थलग पड़े पड़ोसी

26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुए आतंकी हमलों ने समूचे विश्व को एक बार फिर झकझोर दिया.....इस भीषण हमले में जिस देश का नाम आया वो कोई चौंकाने वाला नहीं था....यानि भारत का पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान....देश की शान पर हुए इस सबसे बड़े हमले के बाद उन चर्चाओं ने एक बार फिर ज़ोर पकड़ा जो पाकिस्तान पर इस बात को लेकर दबाव बनाती कि बस अब पानी सर से ऊपर जा चुका है......आतंक की जिस फसल को पाकिस्तान में बोया जा रहा है.......वो अब जड़ सहित उखाड़ फेंकी जानी चाहिए......लेकिन मामले को लेकर हमेशा की तरह पाकिस्तान का अड़ियल रवैया बरकरार है...पाक सरकार कहती है कि ये मुल्क ऐसा नहीं है जहां आतंक को या तो पनाह दी जाती है....या उसका लालन पालन होता है.......लेकिन मायानगरी पर हुए हमलों में जो सबूत मिले हैं वो इशारा तो पाकिस्तान की ओर ही करते हैं......खासकर इस हमले में पकड़े गए एकमात्र आतंकी कसाब को लेकर जो बात पाक सरकार ने कही है.....वो और भी चौंकाने वाली है.....कि कसाब उनकी सरजमीं का नहीं है.......इस मामले को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी इस कदर उभरी कि सीमा पर तलवारें निकलने तक की नौबत एक बार फिर आ गई.......मजबूरन भारत के पास भी एक ही चारा बचा और वो था पाकिस्तान को मोहताज बना देना......उस पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाना.....ये दबाव भी तभी कारगर होता जब विश्व पटल पर नामचीन देश पाकिस्तान को उसकी हरकत के लिए चेताते......और हुआ भी ऐसा.......अब वो अमेरिका पाकिस्तान से परे है जिसने कभी अफगानिस्तान पर किए हमले में पाकिस्तानी ऐयरबेस इस्तेमाल किया था.......साथ ही कई और देश भी ऐसे हैं......जो पाकिस्तान पर इस बात को लेकर दबाव बना रहे हैं कि वो भारत की हर संभव मदद करे ताकि आतंक पर लगाम लगाई जा सके।

कसक-2008

देख रहा था दूर सूर्य को
सिर्फ अंधेरा पाया
नवजीवन की इस बेला में
घोर कष्ट था छाया
मानव दानव बन बैठा है
मन में छिपा कपट बैठा है
इंतजा़र में बूढ़ी मां ने
त्याग दिया इन आंखों को
मन को मारा उस बेवा ने
छीना जिसका पति उन्होंने
ये इंतज़ार की सिसकन है
ये सिसकन है उस धरती की
जिस धरती पर खून बहा
ये खून उन इंसानों का
जो बेबस थे लाचार थे
उन्हें तो ये तक न पता
कि मौत का तमाशा कब
उनके घर के बाहर होने लगे
आंखों में कसक
और ह्रदय में सिसकन
उन लोगों के लिए है
जिनके इंतजार में ये आंखें
थक कर बूढ़ी हो जाएंगी
लेकिन वो टूट चुकी सांसें
अब दोबारा वापस न आयेंगीं...अनुपम मिश्रा