मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

बड़ा महंगा है ये रब, जो “तुझमें दिखता है”

पीढ़ी बदल चुकी है। आदिकाल नहीं रहा। बेचारे नंगे पुंगे वो लोग जो पत्तों से अपने तन को ढका करते थे । सिलाई मशीन से सिले कपड़ों के दिवाने हो चुके हैं। वो खेतिहर मजदूर भी नहीं रहे जो अपने जीवन यापन के लिए जानवरों पर निर्भर होते थे, जानवरों से खेती करवाना उनका शिकार करना, उनके पेट की छुदा को शांत करता था। और उससे मिली ताकत से खुद ही यदा कदा खेतों में बैल की तरह काम किया करते थे। आधुनिकीकरण के इस युग में ट्रैक्टर ट्रॉली, थ्रेशर, आदि आधुनिक यंत्र उनका रुप ले चुके हैं। लेकिन समय का बदलाव ऐसे ही जारी रहता है । हर किसी को अपने तौर तरीकों में परिवर्तन करना पड़ता है। और शायद यही परिवर्तन उसे जीने के मायने समझाता है। आज आधुनिकता का दौर कुछ यू है। कि बगैर महिला मित्र इंसान अपने को अधूरा समझता है। उस महिला मित्र को जवां पीढ़ी परिवार से ऊपर भी ओहदा दे देती है। बाप, पाप हो जाता है। मां न जाने कहां खो जाती हैं। घरवाले, बाहरवाले हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही होता है जब मुहब्बत का जुनून सर चढ़कर बोलता है। लेकिन मजा तो तब आता है। जब मोहब्बत का ये भूत, महबूबा में अपने रब को देखता है। “तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करुं सजदे सिर झुकता है यारा मैं क्या करुं” सभी ने सुना होगा। यानी महबूबा में दिखा भगवान। जो ले लेता है प्राण। प्राण कैसे लेता है वो भी समझिए ! इस रब को चाहिए मैकडॉन्ल्ड्स का बर्गर, कोल्ड ड्रिंक्स, पिज्जा हट का पिज्जा, बनाना लीफ की थाली, हफ्ते में एक बार डिस्को थेक की थिरकन, मल्टीप्लेक्स में एक चलचित्र-वो भी गोल्डन लेन में, महंगे डिजाइनर शोरुम्स से सूट्स वो भी बगैर छूट, बाइक पर लॉंग ड्राइव, कभी कभी सड़क पर खड़े खोमचों का स्वाद, प्रिन्स पान वाले का महंगा पान, वोडका के दो दो पैग (मालूम हो कि रब सिर्फ वोडका सेवन करते हैं) वो भी किसी धांसू बार में । वाकई बड़े महंगे पड़ते हैं ये रब। खून चूस लेते हैं, फिर प्राण क्या बचेंगे खाक। इसलिए ऐसे रब से सावधान। वरना आदिकाल कहीं वापस न आ जाए। और फिर वही तंगी आपको नंगा न कर दे । और आप मजबूर हो जाएं पत्ते पहनने को।

1 टिप्पणी:

Aadarsh Rathore ने कहा…

अनुमप भाई
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद। आपकी टिप्पणी का सम्मान करता हूं लेकिन साथ ही में ये भी कहना चाहता हूं कि बाहुबलियों और भ्रष्ट नेताओं, जिनके खिलाफ न तो संविधान, न कोर्ट, न चुनाव आयोग औऱ न ही पत्रकार की कलम कुछ असर करती है, उन पर जूता एक कारगर हथियार है। मैं चिदंबरम साहब की बात नहीं कर रहा। लोकतंत्र में कई खामिया हैं। नेता उनको अपने हितों के लिए नहीं सुधार रहे। ऐसे में हमारे पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं। हकीकत को स्वीकार कीजिए की पत्रकार भी इसमें अपनी कलम से कुछ नहीं कर सकते।
और आजकल कहां कार्यरत हैं।