मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

राम रचि राखा...

मैं बहुत छोटा सा था, मुझे इतना सा याद है बस। सामाजिक तानेबाने से दूर लोगों की अपेक्षाओं से कहीं ज्यादा दूऱ। मैं उस वक्त अकेला था, एक दम अकेला। कई बार आपके साथ बहुत सारे लोग खड़े होते हैं, लेकिन उनकी वैचारिक अभिव्यक्ति आपसे मेल नहीं खाती। बस इतना ही समझिए मुझसे मेरे अपनों के विचार मेल नहीं खाते। ऐसा नहीं कि मैं उनको या वो मुझको समझते नहीं। ये सिर्फ विचारों को समझने का बस एक इंच का अंतर है । जो वक्त के साथ एक एक इंच का नहीं बल्कि एक मीटर का हो जाता है। सोच का यही अंतर मेरी आने वाली ज़िंदगी पर भी प्रभाव डालने वाला था। इस बात का मुझे अनुमान नहीं था। क्योंकि मेरा हर चीज़ को आंकने का तरीका अलग था।
एक रोज़ की बात है, जब मैं मीडिया के एक बड़े से संस्थान में कार्यरत् था। संस्थान में बहुत सारे लोग ऐसे थे, जो अपने आप को बहुत ज्यादा ज्ञान परक होने का अक्सर दावा किया करते थे। मैं तो उनके अनुभवों के सामने एक अदने सिपाही जैसा था। जिसका न तो रसूख था, न कोई धाक थी, और न ही कोई साख थी,। इस परिस्थिति को सिर्फ ऐसे ही देख सकते थे जैसे हमारे समाज में सवर्ण दलित को देखते हैं। हीन भावना की ऐसी तस्वीर थी ये जिसे मैं कभी बना तो न सका, लेकिन मेरे ह्रदय से ये छवि कभी गायब न हो सकी। ज़िंदगी के हर एक पहलू को अपने हाथों में समेटे मैं आगे बढ़ने की ख्वाहिश पाले हुए था। लेकिन क्या वो ख्वाहिश पूरी होनी थी, ये बात मेरे ज़हन में अक्सर सवाल बनकर घूम जाया करतीं।
संगठन में करीब पैंतालीस की तादाद में कर्मचारी हुआ करते थे। उन पैंतालिस कर्मचारियों में मैं सिर्फ अकेला ऐसा व्यक्ति था । जिसे लोग बतौर हिंदी मीडियम संबोधित किया करते थे, ऐसा नहीं था कि वो मेरी हिंदी को बेज्जत करने की कोशिश किया करते थे। बस उन्हें ये पता था कि मैं एक ऐसे स्कूल से आता हूं जिसमें पढ़ने की आखिरी कीमत मैने सिर्फ डेढ़ रुपया माहवार चुकाई थी। असल में तो सच्चाई को स्वीकारने के बाद हिंदी की हमारे पास यही कीमत रह जाती है। महज़ डेढ़ रुपया। खैर आगे बढ़ते हैं। इन पैतालिस लोगों में करीब पैंतीस लोग ऐसे थे जो मुझे प्रत्यक्ष रुप से जानते थे। इन कर्मचारियों में गार्ड भी शामिल थे, और वो लोग भी शामिल थे जो गार्ड के वेतन को उनकी ड्यूटी के हिसाब से तय किया करते थे। इसके अलावा वो लोग भी थे, जो लोग गार्ड की ड्यूटी तय करने के साथ ही उन लोगों की भी दिहाड़ी पर निगरानी रखते थे, जो लोग दफ्तर में मौजूद बॉस प्रणाली के एकदम करीब हुआ करते ।
इस संगठन में 6 माह तक दिहाड़ी करने के बाद मुझे मासिक वेतनभोगी कर्मचारी के रुप में नियुक्त कर लिया गया। इन 6 महीनों में मैने मजदूरी के हर गुण और अवगुण को शिरोधार्य किया। दफ्तर के शुरुआती वक्त में मैं अपने आप को ‘ऑन एक विंटर्स नाइट’ (पूस की रात) का हलकू समझता था। जो कर्ज के बोझ से इतना दबा था, कि उस बोझ से छुटकारा पाने की उसके पास सिर्फ एक ही युक्ति होती, और वो थी इस लोक से इहि लोग में सिधार जाना। यहां मेरी हालत की तुलना हलकू से की जा सकती है। क्योंकि हलकू भी तकलीफों में जीने का आदी था, और मैं भी तकलीफों को आराम से बर्दाश्त करने का आदी हो गया था। वक्त का हकीम हर किसी को काढ़ा पिला सकता है। तो मेरी क्या बिसात थी।
इस निजी संस्थान में काम करने का हर किसी का अपना सरकारी ढर्रा था। मसलन कोई काम करता था, तो कोई जी हुजूरी का काम करता था। इस मामले में कई लोग अपने आप को मैनेजमेंट गुरु मान लिया करते । ये बात अलग है कि उन्हें प्रबंधन का आशय भी न पता हो। लेकिन उन्हें एक बात का बड़े अच्छे से पता था, कि बड़े साहब के आते ही अपनी कमर को कितनी डिग्री तक झुकाना है, और जुड़े हुए हाथों को अपने चेहरे से कितनी दूरी पर रखना था। ये मुद्रा बताने के लिए काफी थी, कि उक्त कर्मचारी के मन में बॉस के प्रति श्रद्धा नामक परी कैसे कत्थक कर रही है। ये तस्वीर तो जैसे हमारे निजी संस्थानों की तकिया कलाम बन गई है।
जैसे तैसे शुरुआती 6 महीनों को मैने संघर्ष की अवस्था में काट ही लिया। और अब आगे का वक्त काटने को तैयार हो गया था। इस दौरान जितनी तेजी से दफ्तर में मेरा वक्त गुज़र रहा था, उतनी ही तेज़ी से बॉस बदलने का सिलसिला भी चल निकला था। निजी संस्थानों में अक्सर बह निकलने वाली इस्तीफों की बयार ऐसी ही होती है। यहां नौकरी ऐसे बदलती है, जैसे किसी गर्भवती महिला की ज़ुबान का स्वाद।
संस्थान में मुझे आठ महीने हो चुके थे। अब शनय शनय दफ्तर की कठिन स्थितियां मेरे इतिहास भूगोल से मेल खाने लगी थीं। आंकड़ों और आंखों का मेलमिलाप ऐसा हुआ कि लोग मेरे कायल और मैं उनका कायल हो गया। इस दौरान बिना कमर को किसी डिग्री पर झुकाए मेरे काम करने के तरीके ने कई लोगों के पैजामे ढीले कर दिये थे। दफ्तर में ऐसी ही स्थितियां मृत प्राय मुसीबतों में प्राण फूंकती हैं। कम उम्र में अपनों से छोटों की शोहरत नाते रिश्तेदारों को भी बर्दाश्त नहीं होती। तो ये तो वो लोग थे, जो किसी अजनबी शहर में मुझे मिले थे। लेकिन मनुष्य की फितरत में विश्वास का वास होता है। इसलिए अगर मेरे भीतर किसी के लिए विश्वास था तो कुछ गलत नहीं था।
खैर वक्त गुज़रता रहा, और मैं अपने कार्यों को तल्लीनता से करता रहा। चूंकि चपरासी से लेकर दफ्तर के सीनियर सिटीजन तक मेरी पहुंच अच्छी खासी हो गई थी। इसलिए साज़िशी तंत्र को भी मेरे खिलाफ ब्यूह रचना में मशक्कत करनी पड़ रही थी। इस बात का पता मुझे अक्सर लग भी जाया करता, लेकिन हमेशा की तरह ये दफ्तरी कठिनाई मेरे भीतर ज्यादा स्ट्रेस नहीं डाल पाई। मैने साजिशी तंत्र को भगवान भरोसे कर दिया। होइहे वही जो राम रचि राखा। अक्सर ऐसी बातें बड़ी सटीक साबित होती हैं। भगवान को जो मंजूर था वही हुआ। जो हमारी तरक्की में रोड़े अटकाने के लिए दिन रात एक कर रहे थे, उन्हीं के घर मंदी का ऐसा तूफान आया, कि वो नौकरी बचाने के लिए मेरे उसी मित्र के पास पहुंचे, जिससे मेरी तरक्की को रोकने के लिए उन्होंने सिफारिश लगाई थी।
सार यही कहता है कि अगर पक्के मन से और सच्ची लगन से अगर आप से आप अपने कार्यों को अंजाम देते हैं। तो फिरकापरस्त ताकतें आपके पतन के बारे में सोच तो सकती हैं, लेकिन आपको कभी डिगा नहीं सकतीं।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

रजाई के भीतर से रईसी के दर्शन

रात के ढाई बज चुके हैं। मुझे नहीं पता कि कैलाश कॉलोनी में बाहर का तापमान क्या है । लेकिन इतना पता है कि मेरी रजाई के भीतर का तापमान मेरे शरीर को गुनगुना रखने के लिए काफी है। मेरे बारह बाई चौहद के रुम के पड़ोस में दो और युवक भी रहते हैं। वो इस वक्त सो चुके हैं। सिर्फ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ और ऑफिस से मिली एक सस्ती दीवार घड़ी की नामालूम सी टिक-टिक को तो मैं सुन पा रहा हूं।
मैं दिल्ली के जिस इलाके में रहता हूं उसे यहां की पॉश कॉलोनियों में शुमार किया जाता है। मैने जिस दिल्ली को दूसरे इलाकों में देखा है उसे यहां महसूस नहीं कर पाता । क्योंकि जब भी मैं ग्याहर बजे के आस पास ऑफिस से लौट कर आता हूं। सांझा चूल्हा रेस्टोरेंट के समीप एक ऐसी भीड़ देखता हूं। जो मुझे दुनिया की हर फिक्र से बेफिक्र दिखाई देती है। ये उन लोगों की भीड़ है जो बीएमडब्ल्यू, फरारी, और दूसरी अति आरामदेह गाड़ियों से अपना सफर तय करते हैं। मुझे हर रोज़ ये चेहरे अलग अलग गाड़ियों में ठीक उसी स्थान पर दिखाई देते हैं जहां मैने इन्हें पूर्व में देखा था। रेस्टोरेंट के समीप इन्होंने अपनी गाड़ी टिकाने के लिए एक निश्चित जगह भी बना रखी है। अमूमन हर बार गाड़ियां बदली ही होती हैं, लेकिन चेहरे नहीं बदले होते। ये सभी सांझा चूल्हा से आने वाले महंगे खाने का इंतज़ार करते हैं। वेटर इनकी गाड़ियों तक खाना लेकर आते हैं। खाना वक्त पर नहीं पहुंचता तो सामाजिक रीतियों को दुत्कारते हुए गाड़ी के भीतर से ही वेटरों को अपशब्दों से नवाज़ने लगते हैं। रेस्टोरेंट और गाड़ी के बीच का फासला भले ही कितना हो, लेकिन इनकी जेब की गर्मी दिमाग में ऐसी चढ़ती है, कि ज़ुबान से निकले अपशब्दों का घनत्व रेस्टोरेंट के दरवाज़ों को बेखौफी से चीरता हुआ उस शख्स तक पहुंच जाता है, जिस शख्स को खाने का ऑर्डर दिया गया है। घने कोहरे में गाड़ियों के नंबर तलाशता हुआ वेटर जब गाड़ी के करीब तक पहुंचता है। तो कई बार गाड़ियों के भीतर जमी महफिल से एक जाम फूटकर वेटर के मुंह पर आ गिरता है। इसे गरीबों की बदकिस्मती नहीं, बल्कि रईसी का रुआब कहते हैं।
कई बार तो ऐसा भी हुआ कि मैं जब उनकी गाड़ियों के करीब से गुज़रता तो गाड़ियों के भीतर से ही एक गिलास मेरी ओर फेंक दिया जाता। और बोल दिया जाता सॉरी भाई। टीचर्स के नशे से ज्यादा इन लोगों पर रईसी की खुमारी होती है। खुलेआम ये लोग एक बेहद संवेदनशील इलाके में शराब पीकर माहौल को बिगाड़ने की कोशिश करते हैं। इन रईसज़ादों से उलझना अपनी शामत बुलाने के समान है। क्योंकि इनकी रईसी के रुआब के आगे तो पुलिस भी सलाम ठोकती है।
यूं तो मैं करीब आठ साल बाद उसी बिल्डिंग में लौटा हूं जिस बिल्डिंग में मैं पहले रहता था। मैं जब यहां से गया तो मैने दिल्ली में दर ब दर ठोकरें खाई। हर जगह माहौल को देखा लेकिन लौटकर जब वापस कैलाश कॉलोनी आया । तो यहां कुछ नहीं बदला था। ठीक वही सांझा चूल्हा और अपनी उम्र से आठ साल बड़े वो चेहरे जिनको मैं काफी पहले से देखता आ रहा था। वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। लेकिन यहां आज तक कुछ नहीं बदला। वही गाड़ियों के भीतर से वेटर को चीखकर बुलाना। शराब के नशे में उन्हें गालियां सुनाना । वेटरों का उनके रौद्र के आगे कंपकंपाना। कुछ भी तो नहीं बदला। समाज की सुरक्षा की ज़िम्मेवार पुलिस भी इन लोगों से शायद कमीशन खाती है। मैने कैलाश कॉलोनी की ए ब्लॉक वाली इस गली में कई बार पुलिस की गाड़ियों को रात में गश्त करते देखा है। लेकिन इन पुलिस वालों की नज़र उन पर शायद कभी नहीं पड़ी, जिनके हाथ में रात गहराते ही सड़कों पर जाम छलक आता है। खुलेआम नशे की इस आदत ने प्रशासन द्वारा बनाए तमाम कायदे कानूनों को घुटने पर मजबूर कर दिया है।
एक सच्चाई यहां ये भी है कि जाड़े के मौसम में आज मैने जिस रईसी के रुआब को महसूस किया है। उस रुआब की धमक कई बार पड़ोस में मौजूद एक सियासतदांन की कोठी तक भी जाती है। लेकिन उस कोठी से सफेदपोश काले शीशे की कार से एक बार निकलता है, तो फिर दोबारा कब आता है किसी को पता नहीं चलता। लेकिन उसे अपने आस पास में होने वाली गतिविधियों के बारे में तो पता होता ही होगा। कि कैसे उसकी चौखट से चंद फीट की दूरी में रईसों के इशारों पर रात बहकने लगती है। सोच कर भी मेरी रुह कांप जाती है कि कैसे यहां रात के बारह बजे सर्द रातों में तमाम लड़कियां अपने अधखुले शरीरों को अपने प्रेमियों के हवाले कर देती हैं। सड़क पर ही ये लड़कियां कथित पुरुष मित्रों के साथ अपने आप को दिल्ली की बिंदास बालाएं होने का प्रमाण देती फिरती हैं। नशे की आदी हो चुकी इन लड़कियों को सामाजिक तानेबाने से कोई सरोकार नहीं। इनके लिए नशे की दुनिया ही जन्नत जैसी है। फोरव्हीलर में नहीं चल सकने वाला हर व्यक्ति इनके लिए एक सामाजिक पाप जैसा है। जिसे ये जब चाहो तब दुत्कार सकती हैं। ये सब रईसी के रुआब की ही देन है, जिसने इनके चरित्र में ही खोंट पैदा कर दी है। घर के बाहर मां बाप से कुछ कहकर निकलती हैं, और बाहर जाकर अपने पुरुष मित्रों की बाहों में कपड़े बदलती हैं।
क्या वाकई बिंदास लड़कियां ऐसी ही होती हैं। खैर जैसी भी होती हों। मैने आपको उस दिल्ली के दर्शन कराने की कोशिश की है। जिसे मैं कैलाश कॉलोनी में सांझा चूल्हा के करीब पिछले आठ सालों से देखता आ रहा हूं। ऐसा नहीं कि मैने रईस नहीं देखे। लेकिन दौलत की ऐसी खुमारी को मैने दिल्ली में कहीं महसूस नहीं किया। इन नज़ारों को देखने के बाद कई बार मुझे लगता है कि इनसे तो भला गांव में घुचड़ू मदारी था। जो भले ही अपनी ज़िंदगी में कुछ न कर सका हो। लेकिन उसने कभी किसी की इज्जत को सड़क पर नहीं उछाला। लेकिन यहां तो हर रोज़ स्ट्रीट लाइट के नीचे खुले आम इज्जत नीलाम होती है। ये बात और है कि रईसों के द्वारा जिन गरीबों की इज्जत का घर लुटता है वो प्रतिरोध नहीं कर पाते। घुट घुट कर कोहरे से भरी रातों में गाड़ियों के नंबर तलाशते रहते हैं। तीन बज गए अब मैं प्रशासन की तरह सो रहा हूं।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

तुम

तुम एक रंग। जो बहारों सा दिखता है। तुम ख्वाहिश किसी मुकाम जैसी। तुम सांसों में शामिल वो ख्याल। जो हर दम तरन्नुम में मोहब्बत के अहसासों का नूर भरता गया। तुम शोख नादान भोली परी सी। तुम तो जिजीविषा का वो पुष्प हो जो दिन में खिलता है तो मौसम बहारों की पैरहन से ढंक जाता है। और जब तुम मुरझाती हो तो नीला आसमान भी कयामत बरसाने लगता है। तुम मेरे शब्दों से सजी वो रचना हो । जिसको मैने अपनी मोहब्बत की रोशनाई से लिखा है। तुम शीतल बर्फ सी, जो गर्म अहसासों को सर्द कर देती है। तुम मनोभावों में बसी वो मूरत हो जिसके दीदार से कायनात भी झूम उठती है। तुम तो खुशी का वो अश्क हो। जिसे मैने कभी आंखों से गिरने ना दिया। तुम सजल नयनाभिराम एक ऐसी कहानी हो जिसका हर अक्षर सिर्फ महसूस करने के लिए है। तुम वो लौह अहसास हो जिसने मेरी कमज़ोरियों से उबार कर मुझे मजबूत बना डाला। तुम वो साज़ हो जो मेरी ज़िंदगी में प्यार के बोल को अपना रुमानी संगीत देता है। तुम दर्द पर मरहम सी। तुम दुश्मनों के सीने पर खंजर सी। तुम सैलाब में सहारा सी। तुम रेगिस्तान में पानी सी। तुम अंधेरे में आफताब सी। तुम हरिवंश की हाला सी। प्रेमचंद की रचना सी। तुम मखमल सी कोमल, कपास सी नाज़ुक, छोटी बिटिया सी चंचल, बच्चों सी मासूम, गुलाब सी प्यारी, खेतों की हवा सी, गोमुख की गंगा सी, बहती जलधारा सी, हरे पेडों के जैसी, बहारों के मौसम जैसी, समुंदर सी गंभीर, हिमालय सी अटल हां तुम सिर्फ तुम।

रविवार, 15 मई 2011

अजनबी शहर...

अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
लौटना तो दूर है अब
तंग गलिय़ों में कहीं
मैं गुम हो गया
निशानी भी डाली थी रास्ते पर मैने
कि लौट आऊंगा सही उनके सहारे
कमज़र्फ हर निशानी कोई
हाकिम मेरी ही खा गया
अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
रहगुज़र पर मै अकेले
था वहीं चलता बना
कोई ज़िंदा, कोई मुर्दा
न मुझे ही मिल सका
सालता बीता तसब्बुर
रास्ते में फिर मिला
गर्दिशों के दौर में फिर
रास्ता भी मुड़ गया
अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
मोड़ एक आई तभी
जब पाजेब दूर थी बजी
रुक गए मेरे कदम
शायद मिल गया था हमकदम
साथ मेरे जो चलेगा
दूर तक मुझको लेकर कहीं
लेकिन वो छलावा-ए-सफर था
फिर ना मिला कोई कहीं
अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
गुम मुस्कुराहट सा सफर वो
जहां महफिलें शमशान थीं
जानिब ए मंज़िल वहां तो
हर जुस्तजू अंजान थी
फिर ठिठक जाएं कदम
बस राह मिल जाए वही
जो ना डगर अंजान हो
जो ना ज़मी वीरान हो
अजनबी शहर से गुज़रुं
तो ना डगर अंजान हो...

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

रंगों का संदेश..

निर्जीव किंतु, जीवट हूं मैं
रंगता हूं अंतरमन तक को
नहीं जानता जाति-धर्म मैं
बस लग जाता हूं सबको
गोरे-कालों की भेद मिटाकर
मैं भावों पर छा जाता
कभी किसी की कविता बनता
कभी गीत बन जाता
मैं राष्ट्र एकता का भागी हूं
और अहसासों का साथी
एक रहें सब दुनिया में
ये मेरे जीवन की थाती
क्रोध मिटा लो, द्वैष मिटा लो
भूल जाओ हर एक व्यथा
लगा रहूं मैं सबके तन पर
अंतिम लब्ज़ों में ये एक कथा
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रंगों का त्यौहार, प्यार की फुहार, अल्हड़ मस्ती का सार, अहसासों की सिमटी दुनिया में प्रस्तुती का त्यौहार, होली आज मुबारक, कल मुबारक, हमेशा मुबारक....

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

नई गाथा...

वक्त की सुनामी ने अंधियारे और गमों के धुएं को समेट कर कहीं बहा दिया। झंझावातों में उलझे जज्बाज, छ सालों से सुलग रहे ज्वाला मुखी में जलकर कहीं भस्म हो गए । तकदीर के फसानों ने अब नई गाथा लिखनी शुरु कर दी है। इसी कहानी में अब एक नया चरित्र घर कर चुका है। उसके साथ उम्मीदों का कल्पतरु इतना विशाल है कि पिछले ज़ख्मों की टीस उसकी जड़ों में दबकर अब कहीं ज़मींदोज़ हो चुकी है। मुस्कान के खलिहान में उजाले की पहली किरण कुछ ऐसे पड़ी है कि मौसम सुनहरा हो उठा। इसी मौसम ने चेहरे की सड़क पर खुशी की नुमाइश लगा दी है। जिस किरण की तलाश में बरसों भटका, वो अब मेरे पास है। शहर की गलियों में उसकी मौजूदगी बड़ी खास है। स्याह रात से हसीन सुबह तक ये गाथा अब नया इतिहास लिखने वाली है। एवरेस्ट की पिघलती बर्फ पर शीतल अहसासों ने एक घरौंदा सा बना लिया है। उस घरौंदे में उम्मीदों के पंछियों ने अपना बसेरा कर लिया है। अब वो उस मौसम के इंतज़ार में रहते हैं कि कब बसंती मौसम उनके लिए बहारों की सौगात लेकर आता है। ये उन गुनगुने अहसासों की बारिश की बदौलत है जो पिछले छ सालों में एक टीस का पर्व बन गए थे। हर साल रह रह कर सताया करते थे। जब कभी पछुआ हवाएं चला करतीं तो घाव और हरे हो जाया करते । उनमें एक चीख उभर आया करती । जिसकी ह्दय विदारक ध्वनि आज भी जब महसूस करता हूं। तो कंपकंपी सी आ जाती है। लेकिन हर बार की तरह अब ऐसा नहीं होगा। बिखरी ख्वाहिशों का अब एक गट्ठर मैने बना लिया है। जो पहले से कहीं मजबूत है। हो सकता है कि ये मेरा वहम लो। लेकिन दिल की घबराहट अब जाती रही है। किसी की डर नहीं। बेखौफ हूं। व्यथित मन की अंगड़ाईयां हसरतों की गोधुली बेला के आने से कहीं गुम हो गई हैं। अब थकान नहीं। निरंतर चलने की ख्वाहिश है। अधूरेपन की बेचारगी को भूल एक नया दरख्त मन में अपनी जड़ें जमा चुका है।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

बिहारीनामा

नाम बिहारी था। लेकिन रहते उत्तर प्रदेश में थे। कंजूसी उनका पेशा था, जिसे वो तब से कर रहे थे, जब से होश संभाला। चार बच्चे अपने, और दो बच्चे पराए। ये दो बच्चे युवावस्था के कुटैवों का परिणाम थे जो उनके अनुसार अब गले की हड्डी थे। उनका पेशा सरकारी नहीं था, फिर भी एक सरकारी आवास उनके कब्जे में था, और मरते दम कई सरकारी फरमानों के बावजूद वो उसका मोह त्याग न सके। जसके परिणाम स्वरूप वो दरवाजा पकड़े-पकड़े इस लोक से इह लोक सिधार गए। मतलब दरवाज़े की कुंडी पकड़े-पकड़े उन्होंने अपने प्राणों को यमराज के हवाले कर दिया। इसमें भी थोड़ा संदेह है, कि इतनी आसानी से उन्होंने अपने प्राण यमराज के हवाले क्यों किए। जबकि वो तो निहायत ही ज़िद्दी किस्म के थे।



इस समस्या के निदान के लिए उनेक आलोचकों के खोजबीन विभाग ने जब अपने डोज़ियर सौंपे तो पता चला कि उन्होंने चित्रगुप्त से भी समझौता कर रखा था, कि उनके कुटैवों को संज्ञान में न रखा जाए, और दो चार भले कार्य जो उनके द्वारा भली भांति नहीं निपटाए जा सके थे, उन्हें ध्यान में रखा जाए। इसका सीधा अर्थ ये था कि वो नर्क नहीं जाना चाहते थे, स्वर्ग उन्हें प्रिय था। चूंकि मरण एक सत्य है, इसलिए वो स्वर्ग जाने की ख्वाहिश तब से पाले थे, जब से उन्होंने होश संभाला था, और मृत्यु के मर्म को जाना था। यही कारण था कि 60 की अवस्था में उन्होंने छिनैती, छेड़खानी, उठाईगीरी, और कंजूसी जैसी घिनौनी घटनाओं को अंजाम दे दिया था। अप्रत्यक्ष तरीके से पैसा कमाने का कोई भी विचार उनसे बच न सका था।



बचपन से ही जुगाड़ नामक वाहन पर सवार बिहारी इतना ही पढ़ सके थे, कि बस किसी अखबार का मास्टहेड देखकर पहचान जाते थे, कि वो अखबार कौन सा है। वैसे नोट गिनने की तकनीक भी उनकी साक्षरता को दर्शाती थी। उनकी जुगाड़ प्रवृत्ति के किस्से बीसियों मील तक फैले थे, ठीक वैसे ही जैसे बम पुलिस के जमादारों द्वारा न साफ की जा सकी जगह की बदबू। युवावस्था की उम्र में पांचवें तक बमुश्किल ही की जा सकने वाली उनकी पढ़ाई का एक वाकया बेहद मशहूर था, जब मास्टर पढ़ा रहा था लिंग भेद, और कह रहा था नपुंसक लिंग, तो वो समझे कि मास्टर ने उन्हें नपुंसक कह दिया, तो वहीं मास्टर के सामने दिखाने लगे अपनी मर्दानगी के सुबूत। मास्टर शर्मसार थे, लेकिन बिहारी तो बिहारी थे, मास्टर द्वारा न की जा सकने वाली बेज्जती भला कैसे बर्दाश्त होती। ध्यान रहे उनकी मर्दानगी के सबूत लेख की शुरुआत में ही दिए जा चुके है
उनके फलेफूले शरीर को देखकर जल-भुन जाने वालों की एक लंबी कतार थी। किसी विवादास्पद ढांचे की तरह उनका उदर पूरे शरीर पर एक साम्प्रदायिक दंगे जैसा था। जिसमें निश्चित तौर पर जीत उनके उदर की ही मानी जाती। उनके करामाती उदर के भी काफी किस्से थे। कुछ लोग जो उनकी उदरछटा का शिकार हुए थे, वो जब उनके बारे में कुछ बताया करते थे, तो मन वाह वाह कर उठता। क्योंकि जब कभी सफेद धोती में बिहारी सैर सपाटे पर निकलते, तो सड़क चलते ही उनका उदर बहक जाता, और उनके पीछे आने वाला आदमी अपनी नाक को बचाए फिरता दिखाई देता । कई बार तो आलम ये हो जाता कि जब कभी शरीर पर मौजूद विवादित ढांचा दस्त के साये में होता, तो ये साया उनके उस प्रलाप के साथ बाहर निकलता और उनकी धोती पर फाइन आर्ट की अद्बुत छटा बिखेर जाता, जिसकी वजह से लोग अपनी नाक बचाये फिरा करते थे। और उन फाइन आर्ट रुपी दागो से उन्हें कोई ऐतराज भी नहीं होता क्योंकि उनके लिए तो दाग अच्छे हैं। अजीबो गरीब और पूर्व सूचना के साथ बने इन नक्शों में छोटे छोटे राज्यों की झलक साफ देखी जा सकती थी। कुल मिलाकर उनकी धोती ऐतिहासिक जामा बन चुकी थी।
सीधे बोलना उनकी आदत थी। ऐसा नहीं था कि वो लखनऊ में बहन जी द्वारा कराए गए वर्टिकल डेवलपमेंट की तरह सीधे थे। कई बार उनकी ज़ुबान से निकला वर्टिकल वार उस क्रूज मिसाइल की तरह साबित होता, जिसे अक्सर अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान पर छोड़ा जाता था। जिसका नतीजा ये होता था। कि सीधी बात लोगों का कलेजा छलनी करते हुए मुंह के रास्ते अपशब्दों के माध्यम से बाहर आ जाती थी। और इसके बाद शुरु होता था फसाद-ए-मां बहन। जिसका जीवन रहते तो उन्हें कभी मलाल न हुआ।
विडंबना देखिए कि हाथ अचानक बिहारी नामा लिखते लिखते रुक गए। ऐसा नहीं कि लिखने का मन नहीं हो रहा। बस यूं समझिए कि इतना उनकी छवि के लिये काफी है। वैसे कहानी अभी अधूरी है जिसका ज़िक्र अपनी किताब में कभी किया जाएगा। आत्मा अजर है ।अमर है ।बिहारी मृत हैं। लेकिन फिर भी उनकी स्मृतियां आज भी लोगों के ज़हन में हैं। और खास बात ये कि चर्चाओं के बाज़ार में वो हमेशा की तरह अपनी धाक जमा ही लेते हैं।