गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

रजाई के भीतर से रईसी के दर्शन

रात के ढाई बज चुके हैं। मुझे नहीं पता कि कैलाश कॉलोनी में बाहर का तापमान क्या है । लेकिन इतना पता है कि मेरी रजाई के भीतर का तापमान मेरे शरीर को गुनगुना रखने के लिए काफी है। मेरे बारह बाई चौहद के रुम के पड़ोस में दो और युवक भी रहते हैं। वो इस वक्त सो चुके हैं। सिर्फ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ और ऑफिस से मिली एक सस्ती दीवार घड़ी की नामालूम सी टिक-टिक को तो मैं सुन पा रहा हूं।
मैं दिल्ली के जिस इलाके में रहता हूं उसे यहां की पॉश कॉलोनियों में शुमार किया जाता है। मैने जिस दिल्ली को दूसरे इलाकों में देखा है उसे यहां महसूस नहीं कर पाता । क्योंकि जब भी मैं ग्याहर बजे के आस पास ऑफिस से लौट कर आता हूं। सांझा चूल्हा रेस्टोरेंट के समीप एक ऐसी भीड़ देखता हूं। जो मुझे दुनिया की हर फिक्र से बेफिक्र दिखाई देती है। ये उन लोगों की भीड़ है जो बीएमडब्ल्यू, फरारी, और दूसरी अति आरामदेह गाड़ियों से अपना सफर तय करते हैं। मुझे हर रोज़ ये चेहरे अलग अलग गाड़ियों में ठीक उसी स्थान पर दिखाई देते हैं जहां मैने इन्हें पूर्व में देखा था। रेस्टोरेंट के समीप इन्होंने अपनी गाड़ी टिकाने के लिए एक निश्चित जगह भी बना रखी है। अमूमन हर बार गाड़ियां बदली ही होती हैं, लेकिन चेहरे नहीं बदले होते। ये सभी सांझा चूल्हा से आने वाले महंगे खाने का इंतज़ार करते हैं। वेटर इनकी गाड़ियों तक खाना लेकर आते हैं। खाना वक्त पर नहीं पहुंचता तो सामाजिक रीतियों को दुत्कारते हुए गाड़ी के भीतर से ही वेटरों को अपशब्दों से नवाज़ने लगते हैं। रेस्टोरेंट और गाड़ी के बीच का फासला भले ही कितना हो, लेकिन इनकी जेब की गर्मी दिमाग में ऐसी चढ़ती है, कि ज़ुबान से निकले अपशब्दों का घनत्व रेस्टोरेंट के दरवाज़ों को बेखौफी से चीरता हुआ उस शख्स तक पहुंच जाता है, जिस शख्स को खाने का ऑर्डर दिया गया है। घने कोहरे में गाड़ियों के नंबर तलाशता हुआ वेटर जब गाड़ी के करीब तक पहुंचता है। तो कई बार गाड़ियों के भीतर जमी महफिल से एक जाम फूटकर वेटर के मुंह पर आ गिरता है। इसे गरीबों की बदकिस्मती नहीं, बल्कि रईसी का रुआब कहते हैं।
कई बार तो ऐसा भी हुआ कि मैं जब उनकी गाड़ियों के करीब से गुज़रता तो गाड़ियों के भीतर से ही एक गिलास मेरी ओर फेंक दिया जाता। और बोल दिया जाता सॉरी भाई। टीचर्स के नशे से ज्यादा इन लोगों पर रईसी की खुमारी होती है। खुलेआम ये लोग एक बेहद संवेदनशील इलाके में शराब पीकर माहौल को बिगाड़ने की कोशिश करते हैं। इन रईसज़ादों से उलझना अपनी शामत बुलाने के समान है। क्योंकि इनकी रईसी के रुआब के आगे तो पुलिस भी सलाम ठोकती है।
यूं तो मैं करीब आठ साल बाद उसी बिल्डिंग में लौटा हूं जिस बिल्डिंग में मैं पहले रहता था। मैं जब यहां से गया तो मैने दिल्ली में दर ब दर ठोकरें खाई। हर जगह माहौल को देखा लेकिन लौटकर जब वापस कैलाश कॉलोनी आया । तो यहां कुछ नहीं बदला था। ठीक वही सांझा चूल्हा और अपनी उम्र से आठ साल बड़े वो चेहरे जिनको मैं काफी पहले से देखता आ रहा था। वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। लेकिन यहां आज तक कुछ नहीं बदला। वही गाड़ियों के भीतर से वेटर को चीखकर बुलाना। शराब के नशे में उन्हें गालियां सुनाना । वेटरों का उनके रौद्र के आगे कंपकंपाना। कुछ भी तो नहीं बदला। समाज की सुरक्षा की ज़िम्मेवार पुलिस भी इन लोगों से शायद कमीशन खाती है। मैने कैलाश कॉलोनी की ए ब्लॉक वाली इस गली में कई बार पुलिस की गाड़ियों को रात में गश्त करते देखा है। लेकिन इन पुलिस वालों की नज़र उन पर शायद कभी नहीं पड़ी, जिनके हाथ में रात गहराते ही सड़कों पर जाम छलक आता है। खुलेआम नशे की इस आदत ने प्रशासन द्वारा बनाए तमाम कायदे कानूनों को घुटने पर मजबूर कर दिया है।
एक सच्चाई यहां ये भी है कि जाड़े के मौसम में आज मैने जिस रईसी के रुआब को महसूस किया है। उस रुआब की धमक कई बार पड़ोस में मौजूद एक सियासतदांन की कोठी तक भी जाती है। लेकिन उस कोठी से सफेदपोश काले शीशे की कार से एक बार निकलता है, तो फिर दोबारा कब आता है किसी को पता नहीं चलता। लेकिन उसे अपने आस पास में होने वाली गतिविधियों के बारे में तो पता होता ही होगा। कि कैसे उसकी चौखट से चंद फीट की दूरी में रईसों के इशारों पर रात बहकने लगती है। सोच कर भी मेरी रुह कांप जाती है कि कैसे यहां रात के बारह बजे सर्द रातों में तमाम लड़कियां अपने अधखुले शरीरों को अपने प्रेमियों के हवाले कर देती हैं। सड़क पर ही ये लड़कियां कथित पुरुष मित्रों के साथ अपने आप को दिल्ली की बिंदास बालाएं होने का प्रमाण देती फिरती हैं। नशे की आदी हो चुकी इन लड़कियों को सामाजिक तानेबाने से कोई सरोकार नहीं। इनके लिए नशे की दुनिया ही जन्नत जैसी है। फोरव्हीलर में नहीं चल सकने वाला हर व्यक्ति इनके लिए एक सामाजिक पाप जैसा है। जिसे ये जब चाहो तब दुत्कार सकती हैं। ये सब रईसी के रुआब की ही देन है, जिसने इनके चरित्र में ही खोंट पैदा कर दी है। घर के बाहर मां बाप से कुछ कहकर निकलती हैं, और बाहर जाकर अपने पुरुष मित्रों की बाहों में कपड़े बदलती हैं।
क्या वाकई बिंदास लड़कियां ऐसी ही होती हैं। खैर जैसी भी होती हों। मैने आपको उस दिल्ली के दर्शन कराने की कोशिश की है। जिसे मैं कैलाश कॉलोनी में सांझा चूल्हा के करीब पिछले आठ सालों से देखता आ रहा हूं। ऐसा नहीं कि मैने रईस नहीं देखे। लेकिन दौलत की ऐसी खुमारी को मैने दिल्ली में कहीं महसूस नहीं किया। इन नज़ारों को देखने के बाद कई बार मुझे लगता है कि इनसे तो भला गांव में घुचड़ू मदारी था। जो भले ही अपनी ज़िंदगी में कुछ न कर सका हो। लेकिन उसने कभी किसी की इज्जत को सड़क पर नहीं उछाला। लेकिन यहां तो हर रोज़ स्ट्रीट लाइट के नीचे खुले आम इज्जत नीलाम होती है। ये बात और है कि रईसों के द्वारा जिन गरीबों की इज्जत का घर लुटता है वो प्रतिरोध नहीं कर पाते। घुट घुट कर कोहरे से भरी रातों में गाड़ियों के नंबर तलाशते रहते हैं। तीन बज गए अब मैं प्रशासन की तरह सो रहा हूं।

3 टिप्‍पणियां:

brajesh kumar tripathi ने कहा…

rajai ke bhitar raeesi ke darshan karne ke liye to ek badi luxury gadi aur ............ chahiye kahan aam aadmi ko naseeb hai

Madhukar ने कहा…

सोए रहो...यही एक चीज़ है अपने पास। जिस सोने के भाव बढ़ गए उसे हम खरीद नहीं सकते और जिस सोने से हमें प्यार है उस सोने से हमें किसी का बाप दूर नहीं कर सकता :)

Richa Rawat ने कहा…

tumhari writing aisi hai jo mujhe bhi likhne par majboor kar deti hai. lekin kitni hi koshish kar lun, tumhare jaisa nahi likh pati:(