बुधवार, 24 जून 2009

शराबनामा और दवानामा

दवा और दारु का संग बड़ा पुराना है। ज्यादा सुरा पान के बाद दवा पान की ही जरुरत पड़ती है। जिसने मधुपान नहीं किया वो जीवन के एक सुख से वंचित रह गया। ऐसा मैं नहीं कहता, पीने वाले खिलाड़ापीर कहते है। आरजू बानो कहती है कि पीना बहुत ज़रूरी है जीने के वास्ते। बचपन की कच्ची माटी में ये दर्शन गहरे पैठ बना बैठा। और बस, तब से ये सिलसिला बरबस ही जारी है, उनका। उनके लिए तो बस पीना बहुत जरुरी है जीने के वास्ते।
इस बार सूर्य देवता काफी कोपित नज़र आ रहे हैं। सो कोपभाजन हमें और आप को ही सहना पड़ रहा है। ऑफिस निकलने से पहले दस बार सोचना पड़ता है। और सोचते सोचते दोपहर 2 बजे की शिफ्ट में कब शाम के पांच बज जाते हैं। पता ही नहीं चलता। लेकिन उस समय भी नोएडा समेत पूरे एनसीआर में धूप दहाड़ें मारती नज़र आती है। किसी सिंह की तरह। अब शरीर के वो अंग काले पड़ चुके हैं। जिनपर कपड़ालत्ता नहीं होता। बेचारे इस भरी दोपहर में छिपकली से हो गए हैं।
लगभग पिछले सात आठ महिनों से एक ही रुट से ऑफिस जाना हो रहा है। सो जाहिर सी बात है जाने पहचाने चेहरे ही दीदार के लिए मिलते हैं। ऐसे ही कुछ मिलते हैं वो जिनके लिए पीना बहुत जरुरी है जीने के वास्ते। फिर चाहे गर्मी हो या सर्दी उन्हें तो एक घूंट में डकारनी है। बगैर डकार मारे। यानि मदिरा पान के लिए उनके मध्यप्रदेश (उदर) में काफी जगह है। साइड डिश के नाम पर वे हाजमोला से ही काम चला लेते हैं। एक हाजमोला में कब बोतल खत्म हो जाती है पता ही नहीं चलता । उसके बाद इस बदन जलाऊ गर्मी में वो जहां के तहां पड़े रहते हैं। न किसी के आने का पता न किसी के जाने का पता। बस अपनी ही धुन में रमें हैं।
चलिए अब आप को एक और जगह लेकर चलते हैं। ये वो जगह है जिसने मुझे ये ब्लॉग लिखने को प्रेरित किया। दिल्ली में एक जगह है जिसका नाम है कोंडली। मुझे एटीएम से गांधी बाबा निकालने थे सो वहां रुकना पड़ा। टेलर मशीन पर काफी संख्या में लोग मौजूद थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर बैंक ऑफ बड़ौदा के एटीएम पर इतनी भीड़ कैसे । क्या दिल्ली के सारे एटीएम रिक्त हो चले हैं। खैर मैं इधर-उधर फंटियाने लगा और अपनी बारी का इंतजार करने लगा।
एटीएम के ठीक पीछे जाने पर पता चलता है। कि मदिरालय के ठीक बगल में औषधालय है। अकस्तमात् ही मुख उवाच् उठा। बहुत सुंदर। मतलब एक तरफ दवा तो दूसरी तरफ दारु। वाह भई वाह । मदिरालय भी भरा हुआ। औषधालय भी । दोनो दुकानों पर भीड़ जबरदस्त थी। लोग दारु की दुकान से चवन्नी, अठन्नी खरीदते और फौरन औषधालय पहुंच जाते । दरअसल वो दवा की दुकान अब बन चुकी थी। दारु के बाद का सामान। प्लास्टिक के ग्लास, कुरकुरे, भुजिया, चिप्स, सिगरेट सब कुछ मौजूद था उस दुकान पर। ये तो सब मिल ही रहा था। साथ ही मिल रहा था। पीने वालों के दर्द दूर करने का सामान। यानि आफ्टर ड्रिंक। ताकि वहां से टल्ली होने के बाद लोग सही सलामत घर पहुंच सकें। कुछ लोग उस दुकान से वो दवाएं भी ले रहे थे जिससे उल्टी, सीधी हो जाए। यानि उल्टी निवारक दवा। देखते ही देखते भीड़ बढ़ने लगी। क्योंकि जैसे जैसे रात के दस बज रहे थे लोगों के मन में मदिरालय जाने का भूत कुलबुलाने लगता। वरना नोएडा से महंगी शराब जो खरीदनी पड़ती। इस होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। साम, दाम, दंड, भेद सबका इस्तेमाल करके लोग मैदान मार कर ही औषधालय तक पहुंचते।
मन ही मन बुजुर्गों का वो संवाद याद आ रहा था। कि यदा कदा लोग कह दिया करते थे। कि और भई दवा दारु सब ठीक चल रहा है न। और मैं भी कह देता था। सब कुशल मंगल। हाए री संजीवनी बूटी की वो दुकान। अगर बजरंग बली होते तो बड़ा गुस्सा करते। लेकिन मुझे तो सब कुछ कॉमेडी ही लग रहा था । इसलिए लिख दिया। अगर आपको भी शराबनामे से दवानामे तक का ये निराला सफर तय करना है तो एक बार बॉब के उस एटीएम तक जरुर जाएं। आशा करता हूं सब कुछ वैसा ही होगा जैसा मैने देखा।

शुक्रवार, 5 जून 2009

मत काटो मेरे यौवन को

मैं हूं एक वृक्ष
देता हूं लोगों को छांव
मुझपर बसते हैं पंछी
बनाकर अपना गांव
चाह नहीं मेरी कुछ भी है
सिर्फ चाहता हरियाली
सर्दी, गर्मी हर मौसम में
मेरा जीवन खुशहाली
लेकिन एक दर्द है मुझको
मत काटो मेरे यौवन को
इतना अहसान करो मुझ पर भी
बख्शो मेरे जीवन को
(पर्यावरण दिवस पर समर्पित ये चंद पंक्तियां, वृक्षों को बचाने की एक पहल है, इस मुहिम में सभी का स्वागत है)