बुधवार, 8 अप्रैल 2009

भाषा तो ऐसी होती है (शाहजहांपुर के गंवार से दिल्ली की ‘खड़ी बोली’तक)

सतत्, निरंतर, लगातार, यही परिभाषा है समय की। जो न कभी थकता है, न किसी का इंतज़ार करता है, और न ही किसी का मोहताज है। सबको इसी के हिसाब से चलना पड़ता है। मिट्टी की खुशबू हमेशा ज़हन में बसी रहती है सो आज भी वही सुगंध एक बार फिर हिलोरें मारने लगी। और खुशनुमा मौसम ने उस सुगंध और भी महक उड़ेल दी है। कुछ लिखने का मन करने लगा, सोचा बदलते मौसम के साथ, “भाषा और बदलते परिवेश” पर ही लिख दूं। ये सफर शाहजहांपुर से दिल्ली तक की कहानी बयां करता है। कि दिल्ली आया एक युवा समय के बदलाव का कैसे शिकार हुआ। चलिए पहले आपको शाहजहांपुर लिए चलते हैं। दिल्ली से 330 किलोमीटर दूर ये शहर मुगल कालीन सभ्यता का परिचायक शहर रहा है। इस शहर को क्रांतिकारियों का शहर भी कहा जाता है। रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्ला जैसे क्रांतिकारियों की कर्मभूमि रही है शाहजहांपुर की मिट्टी। भाषा भी बेहद निराली है यहां की । अगर बड़े बूढ़ों के बीच बैठ जाएं तो जो गंवई अंदाज़ ए बयां होता है। वो वाकई अनूठा अहसास कराता है। और यदि शहर से सटे गांव चले जाएं तो और भी आनंदमंगल । गांव के एक स्कूल में एक बहनजी (बीएड-बीटीसी मार्का) बच्चो को पढ़ा रही हैं। अब सुनिए शहर की बहन जी और गांव के बच्चों के बीच संवाद। हाजरी का समय है। सारे बच्चे अपने नाम का इंतज़ार कर रहे हैं। कुछ कपड़े पहने हैं तो कुछ बिचारे नंगे पुंगे हैं, बिना नहाए धोए स्कूल में बिछी टाट पर आकर बैठ जाते है। हाजरी शुरु होती है। रामलाल, जी बहिनजी। कल्लू, जी बहिन जी। कलट्टर, आए हैं बहिन जी कहूं गए हैं ( कलट्टर की गैरमौजूदगी में संतरा बोलीं) । संतरा एक लड़की का नाम। हाजरी जारी है। दरोगा, जी मदम ( अंग्रेजी बोलने की पुरजोर कोशिश की दरोगा ने फिर भी मैडम को मदम ही बोल पाया) । कथा, जी बहिन जी। रुमाली, जी बहिन जी। हाजरी लगती रही। इसी बीच कलट्टर आ गए जो हाजरी के दौरान गायब थे। बहिन जी ने पूछा कहां रई गए थे( कहां रह गए थे)। कहूं नाई बहिन जी हमारे गोरु कहूं भाजि गए थे(कहीं नहीं हमारे जानवर कहीं भाग गए थे) । उन्हई का पठऊन गए थे घरई ( उन्हे घर भेजने गए थे) । गोरू चरइयू कि पढ़ियऊ भी ( जानवर ही चराते रहोगे या पढ़ोगे भी) । बहिन जी बप्पा नाई मान्त का करईं ( बहिन जी बाप नहीं मानते क्या करें)। भोर होत से बहिरार भेजि देत, हम घास छोरईं की पढ़ईं, तुमई बताबऊ (सुबह होते ही मुझे घास छीलने के लिए खेत पर जाना होता है तुम ही बताओ घास छीलूं की पढूं)। सो ता हइय ( बहिन जी ने सिर हिलाते हुए कहा ये तो है ही) । इस बीच हाजरी एक बच्चे की तो रह ही गई। नाम था नपोरा। तो बहिन जी बोली नपोरा का संबोधन करते हुए नपोरा । चेहरे पर सत्तर तरीके के बल पढ़ गए बहिन जी के । जी बहिन जी(यानि नपोरा प्रेजेंट) अब नपोरा को बुलाया गया अपनो नाम काहे नाई बदलबाऊत। नाई बहिन जी हमारी अम्मा ने रखो। हम नाई बदलबईं। चलऊ अपने बप्पा का पठऊ । उनसे कहिई कि कहूं अइसो नामऊ होत। नपोरा अपने पापा को बुला लाता है। जी बहिन जी का बात है। देखऊ नपोरा गारी होत अऊ तुम जा नाम को बदरबाबऊ। नाई तउ नाम काटि दौ जइही( बहिन जी ने धौस दिखाते हुए हड़काया कहा नपोरा गाली होती है, नाम बदलबाओ नहीं तो नाम काट दिया जाएगा) लेकिन नपोरा के बापू कहां मानने वाले थे। कहते हैं, नाई बहिन जी हम कतई नाई नाम बदरिहीं, नाम चाहे रहई या नाई रहई( हम नाम कतई नहीं बदलेंगे, नाम चाहें कटे या बच रहे) हें नाई तौउ (हा नहीं तो) बचपनई मां नाम रक्खि लओ( छोटे पर से ही नाम रख लिया था) । सारे गौंतरिया नपोराई कहत( सारे रिश्तेदार उसे नपोरा ही कहते हैं)। हम नाई बदरिहीं कतई ( हम नहीं बदलेंगे कतई)। और आखिर उसका नाम नपोरा ही रहा वो आज काफी बड़ा हो चुका है लेकिन वो आज भी नपोरा ही है। ये सब सुनकर एक अद्भुत अनुभव की प्राप्ति हो रही थी । क्योंकि जो शब्द संचार मैं स्कूल में सुन रहा था, वही शब्द संचार मैं अपने दादी, बाबा, पापा और मित्रमंडली से करता था। वही ठेठ गंवई अंदाज़। मजा आ जाता था सचमुच। और मिट्टी की खुशबू तो आपको पता ही है कैसी होती है। “देश की माटी माटी चंदन, मस्तक इसे लगा लें हम”। लेकिन उस गंवई भाषा ने भी बदलाव का दौर देखा । मैं दिल्ली पहुंचा, द्रुतगामी गति से चलने वाली मीडिया का पत्रकार बनने। इस दौर ए पत्रकारिता ने मेरा भाषा संचार कुछ ऐसा कर दिया कि बस पूछिए मत। जो शब्द कभी “हम” हुआ करता था वो “ मैं” में बदल गया, “आप” बदल गया “तू” में। खड़ी बोली का ऐसा भूत सवार हुआ कि अब जब घर पहुंचता हूं तो बमुश्किल ही गंवई अंदाज़ बाहर आ पाता है। बिल्कुल बनावटी सा। मजे की बात तो ये है कि यही दिल्ली मेड भाषा अब गले का हार बनकर सोभायमान होती है । डिलाइट्स के बीच ये भाषा मुझे उन जैसा ही बनावटी बना देती है। छोले कुल्चे सी टिकाऊ ये भाषा बदलते परिवेश के बीच मुझे वो ताकत देती है कि अब मैं उनके बीच ठगा सा नहीं महसूस करता । जब शुरु में दिल्ली आया तो लोग बड़ी आसानी से मेरी भाषा को पहचान लेते थे कि बेचारा कहीं यूपी व्यूपी का होगा । ठग लोग साले को। और कई बार भाषा के चलते ठगा गया। कभी अपनों से तो, कभी परायों से। लेकिन आज पूरे पांच साल का अनुभव हो चुका है इस दिल्ली मार्का लैंग्वेज का । यानी पूरा पोस्ट ग्रेजुएट कर चुका हूं, इस भाषा में, देखते हैं अब कौन ससुरा ठगता है। अब तो मैं ही ठग लूं ससुरों को। लेकिन बनावट के तड़के से लबरेज इस भाषा में वो स्वाद नहीं है। जो मेरी ठेठ गंवई भाषा में था । आज भी उन शब्दों में बातें करने को कसमसाता हूं। कि काश कोई अपना मिल जाए, और बदलते परिवेश में मुझे अपनों सा अहसास करा दे। और फिर वही गांव का स्कूल याद आ जाए। वो बहिन जी जो अब मां जी हो चुकी होंगी, वो कलट्टर जो चपरासी भी न बन पाया होगा, वो संतरा जिसके छिलके छिल कर सूख चुके होंगे और वो नपोरा जो आज भी नपोरा ही होगा। शायद समय के कुछ परिवर्तन से बदले होंगे लेकिन फिर भी वैसे ही होंगे। आज के लिए इतना ही।

1 टिप्पणी:

मधुकर राजपूत ने कहा…

भदेस और देशज शब्द खत्म होते जा रहे हैं। उनका प्रयोग हमारी ज़िंदगी से घटता जा रहा है, इसी वज़ह से लोग समृद्ध हिंदी को अप्रासंगिक समझने लगे हैं।