गुरुवार, 29 जुलाई 2010

राजनैतिक रतौंधी

इन दिनों सियासी चिल्ल-पों चरम पर है, उत्तर प्रदेश में बहन जी को चिंता सता रही है कि कहीं उनकी पार्टी का हाथी 2012 तक पगला न जाए। अगर ऐसा हुआ तो बौराया हाथी सबसे पहले अपने करीबियों को ही कुचलता है। जो माया पूर्ण बहुमत से सत्तासीन हैं, उनका सीन इस बार बिगड़ सकता है। हालात खुद के पैदा किए हुए हैं। खुद मायावती के खेमे में मौजूद एक सीनियर विभीषण से मेरी चंद रोज़ पहले वार्ता हुई। “तात लात रावण मोहि मारा” रावण की लात से बड़ा आहत मालूम दे रहा था वो। मैं उसके लिए शायद उस वक्त राम से कम न था, क्योंकि उसका दुखड़ा सुन रहा था।
रावण के उस अनुज भ्राता के अनुसार टीका टिप्पणी करने वाले राजनीति के कथित बुद्धिजीवी इन दिनों यूपी वाली बहिन जी को संयुक्त रुप से घेरने की फिराक में हैं। साम, दाम, दंड, भेद, हर किस्म का इस्तेमाल दौलतमंद माया के खिलाफ उनके विरोधी कर सकते हैं। दल अलग-अलग हैं लेकिन मकसद एक है, कहीं बहन जी एक बार फिर सत्तासीन न हो जाए ! उसकी मोसादिक(एक खूफिया एजेंसी) प्रवृत्ति की रिपोर्ट के आधार पर ये कहना उचित होगा कि, लोग बहिन जी को 2012 तक डाइटिंग जरुर करा देंगे। अपने घड़े समान उदर में करोड़ों समेट चुकी बहन जी चालाक हैं, शातिर हैं, और सबसे बडी़ बात, कथित तौर पर दलित मसीहा भी हैं, लिहाज़ा उनके खिलाफ शह और मात का खेल इतना आसान नहीं। तभी लोग माथापच्ची को मजबूर हैं। बहन जी की सत्ता समेटने के लिए लोग इस कदर प्रयासरत हैं कि बस पूछिए मत, अगर ऐसे प्रयास गुलाम भारत के लिए किए गए होते, तो शायद अंग्रेजी पिछवाड़े पर पेट्रोल पहले ही लग गया होता, और गुलामी का इतिहास 200 सालों का नहीं होता।
ये सत्ता का सुख राजनैतिक रतौंधी (एक बीमारी जिसमें रात में दिखाई नहीं देता) है, यहां दिन में आदमी सबका होता है, और रात में किसी का नहीं। राजनीति का ये अंधापन बहनजी को भी खा गया है, भले ही माया पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता और शासन का सुख भोग रही हैं, लेकिन दिन के वादे रात की भूल साबित हो रहे हैं। वो वादा तो कर लेती हैं, लेकिन किसी ग़लती की तरह भूल जाती हैं। उत्तर प्रदेश आपराधिक मामलों का जानकार बन गया है, और माया कहती हैं, ये दोष है और किसी का। अगर दोष किसी और का होता, तो कलह का शिकार उक्त विभीषण को न होना पड़ता । उसकी नौकरी नहीं जाती, वो बेरोजगार नहीं होता, ठलुअई नहीं करता, और सबसे बड़ी किसी राम की शरण में नहीं जाता।
अब जब कि वो कलयुगीन राम के द्वारे आया है, तो कुछ न कुछ तो फायदा उसे मिलना ही चाहिए। लेकिन इस बार बेचारे राम भी कुछ नहीं कर सकते । वो खुद फाके में जी रहे हैं, विभीषण के लिए दो जून की व्यवस्था क्या ख़ाक करेंगे। लेकिन बहन जी के लिए किसी के फाके मायने नहीं रखते, खा-खाकर उनका घाट इतना चौड़ा गया है कि अब पुश्तें मौज काटेंगी ही। यकीन करिए, जिन योजनाओं का विस्तार कागज़ में हुआ, उनमें से कई कागज़ों को तो दोबारा हाथ तक नहीं लगाया गया। जिन योजनाओं को अमल में लाया भी गया, तो उनमें घोटाले चीख़-चीख़ कर कह रहे थे, कि मैं माया हूं, मैं माया हूं। भला कौन समझाए राजनीतिक रतौंधी की शिकार बहन जी को। वक्त सब कुछ समझा देता है, और वैसे भी माया के लिए उनके विरोधियों ने इस बार एक ऐसा मंच बना दिया है। जिस पर चढ़ते ही, धड़ाम की आवाज़ आएगी। आगे आप खुद समझदार हैं।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बदलते मौसम की भयानक तस्वीर

पसीने से सराबोर शरीर की दुर्गंध ने डियो कंपनियों के सारे दावों को तहस नहस कर दिया है। तप रही गर्मी की भट्टी में शरीर ऐसा लग रहा है मानो भुने हुए आलू की तरह सूरज हमें चटनी डालकर चाट जाने वाला है। वाह रे भगवान भास्कर की चटाई, पृथ्वी पर पैदा हुई इस सर्वश्रेष्ठ कलाकृति को ही लीलने पर उतारु है। शरीर पर जमी कालिख की परत और झुलस कर पड़ीं झुर्रियों ने अभी से साल के अस्सीवें पड़ाव पर लाकर खड़ा कर दिया है।
बद मिज़ाज मौसम को तो देखिए, चीख-चीख कर कहता है मैं ग्लोबल वॉर्मिंग का शिकार हूं। मुझे बख्श दो। न हम उसे बख्श रहे हैं, और न वो हमें। जुलाई का महीना है और बारिश के नाम पर दिल्ली-एनसीआर में दो चार छीटे, अल्लाह ने मेघ जहां दिए वहां कयामत आ गई। पंजाब, हरियाणा, में अब तक पानी की कमी थी, लेकिन अब इतना पानी है, लोगों के रहने के लिए जगह कम पड़ गई। नियति का खेल, प्रकृति का तमाशा यही कहता है कि उससे छेड़ छाड़ न करो। वरना वो हमारे साथ खेलेगी। और ये खेल ऐसा है जिसमें जीत की मंशा रखना ही बेमानी है। न ड्रॉ की स्थिति, न वॉकओवर की, बस हारना ही है। खुदा खैर बरकत करे उन लोगों को जिनके घर बाढ़ में तबाह हो गए, जिनके परिवार में से कोई पानी की बलि चढ़ गया। जल की लीला ही ऐसी है, ज्यादा हो तब भी मुसीबत कम हो तब भी मुसीबत।
कहानी से थोड़ा हटना चाहूंगा ले चलता हूं आपको अपने पैतृक गांव जहां इस बार हवा-पानी बदलने के लिए गया था, पूरे दस साल बाद गांव तस्वीर ही बदल गई थी, मेरा खुद का घर भी पक्का हो गया था। छप्पर की जगह लिंटर की छांव थी, मिट्टी की दीवार की जगह भट्टों की पकी लाल ईंटों ने ले ली थी। सड़क पक्की बनाई गई थी, लेकिन मिलावट के माल ने उसकी हकीकत को छिपाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, जो घुचड़ू मदारी मेरे साथ कभी खेला करता था, उसके चार बच्चे हैं, वो सिर्फ खेती करता है, और कच्ची पीता है। उसकी दिनचर्या भी यही है। ये दिनचर्या बच्चों की नहीं बच्चों के बाप की है। गांव में अब वैसा मजा नहीं था, जैसा सोचकर मैं वहां गया था। हालांकि चंद खुशकिस्मत पेड़ों की छांव मुझे जरुर मिल गई, लेकिन फिर भी उन पेड़ों के बीच अब सूरज की रोशनी की तपिश ने अपने लिए हजारों दर्रे बना लिए थे, जहां से वो अपने कोप से मुझे अपना शिकार बना सकता था। वहां मौजूद कई पोखर तालाब अब सूखने की कगार पर थे क्योंकि मौसम बेईमान है, और उससे ज्यादा हम। तालाबों को पानी की जरुरत है, और हमें पूंजीवाद में अपने आपको आगे बढ़ते देखने की ललक। तालाब अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हम गलत हैं, क्योंकि हमारे हित नुकसान प्रकृति का ही करते हैं। और फिर प्रकृति या तो हमारे सामने भीषण गर्मी के रुप में, हाड़ कंपाने वाली ठंड के रुप में या फिर किसी सुनामी के रुप में सामने आती है, जिससे हम बच नहीं सकते ।
हमारी किस्मत चमकने के साथ प्रकृति की किस्मत फूट जाती है, और जब ऐसा होता है, तो तबाही का दृश्य बदलते मौसम की भयानक तस्वीर पेश करता है। ज़िंदगी की रहगुजर अब इतनी आसान नहीं रह गई, हमारी लड़ाई बदलते मौसम से है, जहां हम जीत नहीं सकते। इस नफरत को ख़त्म कर दें, वरना ये हमारे लिए नर्क के द्वार खोल देगी। हम प्रकृति को कुछ दे नहीं सकते तो उसकी रक्षा जरुर कर सकते हैं। वैसे भी भीषण गर्मी ने हमें हमारी औकात बता दी है। बामुलाहिजा होशियार तूफान तबाही लेकर ही आते हैं।

रविवार, 11 जुलाई 2010

बारह फट्ट-फट्ट, आठ परसीं चार गायब

टाइटिल उलझाऊ हो सकता है, लेकिन कहानी बेहद साफ है। एक दम शीशे सी उजली । बात दिनों की है, जब शायद वस्तु विनिमय का दौर रहा होगा। एक गांव में एक भठियारन ( पैसे या सामान लेकर खाना बनाने वाली महिला) रहा करती थी, उस दौर में मुद्रा अलग-अलग रुपों में प्रचिलित थी, नोट चलन में नहीं थे, लेकिन सिक्कों का चलन शायद रहा होगा। वो भठियारन राहगीरों के लिए खाना बनाया करती थी, एवज़ में राहगीरों से लेती थी, अपनी जरुरत का कुछ सामान, जो कि उसके लिए मुद्रा का कार्य करता था। वो भठियारन अपनी उम्दा पाक कला के कारण दूर-दूर तक मशहूर थी, लिहाज़ा बीवियों से ठुकराए हुए, समाज से ठुकराए हुए, या नहीं भी ठुकराए हुए लोग उसकी झोपड़ी में कुछ दमड़ी चुका कर उदर छुदा को मिटा लिया करते थे। कुछ लोग उसके शरीर की कीमत भी लगा दिया करते थे, और वो भी मना नहीं करती थी। लेकिन ज्यादा पैसे की लोलुपता ने उसके मन में कपट भर दिया था।
एक रोज़ की बात है, एक राहगीर जिसके पास पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री का कच्चा माल मौजूद था, लेकिन भोजन बनाना नहीं जानता था, इसलिए उसने उस भटियारन की झोपड़ी की ओर कूच कर दिया। दरवाजे पर पहुंचते ही, उसने अपनी फरमाइश भठियारन के सामने रख दी । और भठियारन ने कहा ठीक है, लेकिन खाना बनने में थोड़ा वक्त लगेगा, वो राहगीर वहीं भठियारन की झोपड़ी के एक दूसरे छोटे कमरे में बैठकर खाने का इंतज़ार करने लगा, सब्जी तैयार हो चुकी थी, और रोटियों के लिए आंटा भी गूथा जा चुका था। अब बारी थी, रोटियां सेंकने की। उस आंटे से बनने वाली रोटियों की तादात 12 थी। क्योंकि राहगीर ने बारह बार रोटियों की फट्ट फट्ट (हाथ से बेलने की आवाज़) की आवाज़ को सुना था, लेकिन जब राहगीर को रोटियां परोसी गईं तो रोटियां 12 की संख्या में नहीं बल्कि 8 की संख्या में थीं। राहगीर भौचक्का था, बोला क्या बीबीजी बारह “फट्ट फट्ट, आठ परसीं चार गायब” । पहले तो भठियारन को कुछ समझ नहीं आया, लेकिन जब राहगीर ने अकड़ कर उससे कहा कि मैने बारह बार रोटियां बेलने की आवाज़ को सुना, और तुमने आठ ही परोसीं, ये क्या घपला है। वो भठियारन सफाई देने लगी कि नहीं तुम्हें गलतफहमी हुई है। लेकिन वो राहगीर भी चालाक था और उसकी हरकतों को अच्छी तरह जानता था, वो उसकी रसोई की तरफ गया, और छिपा कर रखी गईं चार रोटियों को दिखाते हुए बोला कि ये वही रोटियां हैं, जो कि तुमने मेरे हिस्से में से चुराकर अपने पास रख लीं। गलत मैं नहीं था, गलत तुम हो अपने ईमान से।
तो कहानी का सार यही कहता है कि हिंदुस्तान की सियासत में बनने वाली रोटियां बारह फट्ट फट्ट हैं, जिनमें चार गायब हो जाती हैं, और पता तक नहीं लगता, जनता जनार्दन जानती है, कि सरकार की योजनाओं से जो हिस्सा उसे मिलना चाहिए या तो वो उस तक पहुंच ही नहीं पाता और अगर पहुंचता भी है तो आधा-अधूरा। सरकार के बीच बैठे चंद लोग भठियारन का रोल निभाते हैं, और हम राहगीर हैं, जो अपने हिस्से से टैक्स देते हुए भी अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। आंखों में जब लालच भर जाए तो उन्हें दमड़ी के सिवाए कुछ दिखाई नहीं देता। ऐसा ही हाल भारतीय राजनीति का भी है, यहां भठियारन भी है, और राहगीर भी।
भठियारन की आँखों में सिर्फ लालच भरा है, तो उसे सिर्फ दमड़ी दिखाई देती है, और राहगीर हमेशा की तरह बेचारा बना रहता है।
बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ के बाद की कहानी भी ऐसी ही है, यहां बाढ़ के बाद अगर कुछ बचता है, तो सिर्फ किसानों के हाथों में रेत, खेतों में खरपतवार, और तबाही, पिछली बाढ़ के बाद दूसरे राज्यों से मिली मदद के बावजूद कई लोग अब तक बेघर हैं, उनके खेतों से अभी तक वो मनहूस रेत नहीं हट सकी है, जिसे पिछले साल की बाढ़ बहा कर अपने साथ ले आई थी। और अब अगर इस बार भी बिहार को इंद्र देवता का कोप झेलना पड़ा, तो नुकसान की सुनामी आ जाएगी। और मुआवज़े या मदद के रुप में वही “बारह फट्ट फट्ट आठ परसीं चार गायब” या फिर शायद इससे भी ज्यादा। हमें उस राहगीर की तरह जागरूक और बुद्धिमान बने रहना होगा, और चेताना होगा सरकार के उन नुमाइंदों को जो सफेदपोश भठियारन का किरदार निभा रहे हैं।