शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बदलते मौसम की भयानक तस्वीर

पसीने से सराबोर शरीर की दुर्गंध ने डियो कंपनियों के सारे दावों को तहस नहस कर दिया है। तप रही गर्मी की भट्टी में शरीर ऐसा लग रहा है मानो भुने हुए आलू की तरह सूरज हमें चटनी डालकर चाट जाने वाला है। वाह रे भगवान भास्कर की चटाई, पृथ्वी पर पैदा हुई इस सर्वश्रेष्ठ कलाकृति को ही लीलने पर उतारु है। शरीर पर जमी कालिख की परत और झुलस कर पड़ीं झुर्रियों ने अभी से साल के अस्सीवें पड़ाव पर लाकर खड़ा कर दिया है।
बद मिज़ाज मौसम को तो देखिए, चीख-चीख कर कहता है मैं ग्लोबल वॉर्मिंग का शिकार हूं। मुझे बख्श दो। न हम उसे बख्श रहे हैं, और न वो हमें। जुलाई का महीना है और बारिश के नाम पर दिल्ली-एनसीआर में दो चार छीटे, अल्लाह ने मेघ जहां दिए वहां कयामत आ गई। पंजाब, हरियाणा, में अब तक पानी की कमी थी, लेकिन अब इतना पानी है, लोगों के रहने के लिए जगह कम पड़ गई। नियति का खेल, प्रकृति का तमाशा यही कहता है कि उससे छेड़ छाड़ न करो। वरना वो हमारे साथ खेलेगी। और ये खेल ऐसा है जिसमें जीत की मंशा रखना ही बेमानी है। न ड्रॉ की स्थिति, न वॉकओवर की, बस हारना ही है। खुदा खैर बरकत करे उन लोगों को जिनके घर बाढ़ में तबाह हो गए, जिनके परिवार में से कोई पानी की बलि चढ़ गया। जल की लीला ही ऐसी है, ज्यादा हो तब भी मुसीबत कम हो तब भी मुसीबत।
कहानी से थोड़ा हटना चाहूंगा ले चलता हूं आपको अपने पैतृक गांव जहां इस बार हवा-पानी बदलने के लिए गया था, पूरे दस साल बाद गांव तस्वीर ही बदल गई थी, मेरा खुद का घर भी पक्का हो गया था। छप्पर की जगह लिंटर की छांव थी, मिट्टी की दीवार की जगह भट्टों की पकी लाल ईंटों ने ले ली थी। सड़क पक्की बनाई गई थी, लेकिन मिलावट के माल ने उसकी हकीकत को छिपाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, जो घुचड़ू मदारी मेरे साथ कभी खेला करता था, उसके चार बच्चे हैं, वो सिर्फ खेती करता है, और कच्ची पीता है। उसकी दिनचर्या भी यही है। ये दिनचर्या बच्चों की नहीं बच्चों के बाप की है। गांव में अब वैसा मजा नहीं था, जैसा सोचकर मैं वहां गया था। हालांकि चंद खुशकिस्मत पेड़ों की छांव मुझे जरुर मिल गई, लेकिन फिर भी उन पेड़ों के बीच अब सूरज की रोशनी की तपिश ने अपने लिए हजारों दर्रे बना लिए थे, जहां से वो अपने कोप से मुझे अपना शिकार बना सकता था। वहां मौजूद कई पोखर तालाब अब सूखने की कगार पर थे क्योंकि मौसम बेईमान है, और उससे ज्यादा हम। तालाबों को पानी की जरुरत है, और हमें पूंजीवाद में अपने आपको आगे बढ़ते देखने की ललक। तालाब अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हम गलत हैं, क्योंकि हमारे हित नुकसान प्रकृति का ही करते हैं। और फिर प्रकृति या तो हमारे सामने भीषण गर्मी के रुप में, हाड़ कंपाने वाली ठंड के रुप में या फिर किसी सुनामी के रुप में सामने आती है, जिससे हम बच नहीं सकते ।
हमारी किस्मत चमकने के साथ प्रकृति की किस्मत फूट जाती है, और जब ऐसा होता है, तो तबाही का दृश्य बदलते मौसम की भयानक तस्वीर पेश करता है। ज़िंदगी की रहगुजर अब इतनी आसान नहीं रह गई, हमारी लड़ाई बदलते मौसम से है, जहां हम जीत नहीं सकते। इस नफरत को ख़त्म कर दें, वरना ये हमारे लिए नर्क के द्वार खोल देगी। हम प्रकृति को कुछ दे नहीं सकते तो उसकी रक्षा जरुर कर सकते हैं। वैसे भी भीषण गर्मी ने हमें हमारी औकात बता दी है। बामुलाहिजा होशियार तूफान तबाही लेकर ही आते हैं।

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सही चिन्तन...हमारी ही करनी का परिणाम है. अभी भी मौका है, आँख खोलें और प्रकृति की रक्षा करें.

manish jha ने कहा…

bahut hin umda kism ka lekh hai...do bate hai ya to nature ki raksha karo ya fir khud ko asurakshit karte raho...

Unknown ने कहा…

सही कहा आपने ...कुदरत के साथ खेलते हैं तो वो भी अपनी बारी आने पर अपनी ताकत दिखा ही देती है। लेकिन तरक्की के लिए पागल हुए इंसान को शायद अभी ये समझने में और वक्त लगेगा. और तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी