सोमवार, 8 मार्च 2010

वैचारिक चुतियापा, और “मन भठिया चित्त भुसौरी”

वो विचारशील भी थे। और चूतिया भी। कहने में भी उतना ही अंतर था। जितना करने में। कभी किसी की सुनी नहीं। हमेशा अपना हाथ जगन्नाथ समझा। फिर भले ही हाथ में कोढ़ ही क्यों न हो गया हो। वो जो कर रहे हैं, जिन हाथों से कर रहे हैं, बस कर रहे हैं। किसी से कोई मतलब नहीं। गर्दभ राज की तरह उनकी ढेंचू-ढेंचू लोग सुनें। इसलिए वो हमेशा ही कुछ न कुछ ऐसा ही करते थे। जो जनमानस के विरुद्ध हो। यानि उनके अनुकूल हों।
ये मुक्तसर सा कैरीकुलम है दक्ष कुमार का। दक्षप्रजापति का नहीं। जैसा कि इनके नाम से ही इंगित होता है कि ये हर मामले में बड़े ही प्रवीण होंगे, वास्तव में प्रवीण हैं भी। इनके नाम के मुताबिक ही इनके काम बड़ी ही दक्षता के साथ निपटाए जाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी दक्ष झुमरी तलैया के निवासी हैं। और रेडियो नहीं सुनने के लिए भी जाने जाते हैं। संज्ञान में कि झुमरी तलैया से काफी रेडियो श्रोता पैदा हुए हैं। और शायद होते भी रहेंगे। लेकिन दक्ष कुमार को जो पसंद था वो कुछ इस प्रकार है। बतौर ऑलराउंडर वो हर काम करना चाहते हैं। सिवाए किताब पढ़ने के। उनके ज्ञान का शिला लेख महज़ के कंकड़ के जितना ही छोटा है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि किसी की शक्ल देखकर उसके ज्ञान का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । वैसा ही दक्ष कुमार के साथ भी था। काम के सिलसिले में हमेशा उनके चेहरे पर बारह बजे रहते हैं। और वो सड़कों पर किसी न किसी काम की तलाश में हमेशा फंटियाते रहते है। और सबसे बड़ी बात ये है कि उनका अनुकूलन वहीं से शुरु होता है, जहां से लोगों को उनकी कार्यप्रणाली पर विरोध होता है। ये विरोध कैसे होता है। खुद ही देखिए।
झुमरी तलैया में बत्ती ज्यादातर गुल रहती है। कहीं फेस आता है, तो कहीं नहीं आता। दृश्य कुछ ऐसा बनता है कि आपके घर बिजली नहीं होगी । और बीस मीटर पर बल्ब जलता दिख जाएगा। ऐसी विडंम्बनाओं से दो चार होने का नाम ही है दक्ष कुमार। समस्या जहां से शुरु होती है, वहां दक्ष पाए जाते हैं। और समस्या जहां खत्म होकर फिर शुरु होती है। वहां भी दक्ष पाए जाते हैं। खैर गुल बिजली से घरों को रोशन करने का जिम्मा दक्ष कुमार के ही कंधों पर है। सरकारी मुलाजिम देर से सीढी लेकर आते हैं। लेकिन फुर्तीले दक्ष महज एक रस्सी के माध्यम से किसी बंदर के मानिंद खंबों पर लटक जाते हैं। और इधर की कटिया उधर करते हैं। उधर की कटिया इधर । और एक आवाज़ लगाते हैं। कि देखऊ नंदू भइया का बिजली आई। हां आई गई भइया। इस बीच चार पांच लोगों के घर बिजली चली जाती है। तो दक्ष को खंबे पर चढ़ा देख मुहल्ले वाले गरियाने लगते हैं। ए ग्रेड गालियों के आदी हो चुके दक्ष के लिए ये कोई मुश्किल वक्त नहीं था। कि कोई उन्हें गरिया रहा हो। और ऐसे समय पर जब वे बिजली के खंबे पर बंदर की तरह लटके हों। मर्दमराठा बीवी से गालियां सुनते-सुनते उनके कान मुहल्ले वालों की गालियां सुनने के भी आदी हो चुके थे। और अब उन्हें किसी की गाली का कोई फर्क नहीं पड़ता । चालीसा पार कर चुके दक्ष जिस तार को दिन में लगाते थे। उसी तार को रात में जरुरत पड़ने पर काट भी लिया करते थे। ये उनका निजी विचार होता था।
ऊलजलूलू विचारों के धनी दक्ष के लिए किसी की साइकिल पर हाथ साफ करना और उसे पांच मिनट से पहले ठिकाने तक पहुंचा देना कोई बड़ी बात नहीं थी। मुहल्ले में सफाई का ठेका हो, तो दक्ष आगे । किसी की पिटाई का ठेका हो, तो दक्ष आगे। वाह रे दक्ष। हर काम खुराफाती अंजाम के साथ निपटाना उनकी एक अच्छी आदत है। खुद उनके अनुसार। क्योंकि जब से उन्होंने होश संभाला, तब से कई लोग उनके कष्टकारी कदमों से अपने होश खो बैठे थे।
एक रोज़ की बात है जब मुहल्ले में एक बंदर मर गया थ। उसे ठिकाने लगाने का ज़िम्मा भी उन्हीं के सिर था। यहां कहेंगे कि मन भठिया चित्त भुसौरी । वो ऐसे कि उनका एक मन ये कहता था। कि वो बंदर की अर्थी बाइज्जत शमशान तक पहुंचाएं। दूसरा मन कहता था। कि उस बंदर की लाश पर एकत्रित चंदे को अपने निजी इस्तेमाल में लाकर बंदर को बोरे में बंद कर नदी में प्रवाहित कर दें। निसंदेह दूसरा आईडिया ही उन पर फबता था। और बस ऐसा ही हुआ। बंदर की मइय्यत पर एकत्रित चंदा उनके निजी इस्तेमाल में ही प्रयोग किया गया । मुहल्ले वालों को हवा भी लगी, कि एकत्रित चंदा दक्ष के निजी हितों में इस्तेमाल किया गया । लेकिन सभी दक्ष के विचारों से वाकिफ थे। बोलना मुंह पिटवाने जैसा था। दक्ष भला कैसे बाज आते। दक्ष को ऐसे कामों के लिए मन भठिया नाम दिया जा सकता है। जो भाड़ झोंकने में माहिर कहे जाते हैं। फिर भाड़ में चाहें कोएला हो या न हो।
उनकी वैचारिक चुतियापे की एक निजी कहानी ये भी है। कि दक्ष ने कुछ न सीखा हो। लेकिन अपनों के ठिए में आग लगाना खूब जानते थे। त्यौहारी मौसम हो, साहलक हो, या उनके घर में निजी फंक्शन, चोरी की आदत को एक विचार मानकर हर जगह हाथ की सफाई दिखा दिया करते हैं। और अगले दिन मुहल्ले में खबर को आग की तरह फैलाकर अपने आप को गौरवशाली महसूस करते हैं।
ये दक्ष कुमार की कुछ विधाएं हैं। जिनके बल पर उन्होंने मुहल्ले में अपने कार्यों का लोहा मनवाया है। निसंदेह उनके इस लोहे में जंग की बहुतायात है। लेकिन वो इस जंग को दूर करने के लिए मिट्टी के तेल का इस्तेमाल कतई नहीं करना चाहेंगे। क्योंकि यही लोहा उनके लिए तरक्की के नए आयाम खोजता है। तो कहिए जय दक्ष कुमार की।

3 टिप्‍पणियां:

Tara Chandra Kandpal ने कहा…

दक्ष कुमार की महिमा अपरम्पार है... जय हो दक्ष कुमार की!!!

मधुकर राजपूत ने कहा…

हे अवसरजीवी दक्ष कुमार तुम तो यक्ष प्रश्न जैसी समस्या हो जो किसी से नहीं सुलझेगी। अवसर, कुअवसरजीवी दक्ष कुमार महान हैं। यही लोकतंत्र की शान हैं। सरकार की प्रतिमूर्ति हैं। ये उस सरकारी मूत्रालय के दावे की तरह हैं जो सारी उम्र स्वच्छता का खम ठोकता है और उसकी हक़ीक़त जानने की बावजूद आदमी को उसी शरण में जाना पड़ता है।

Brajdeep Singh ने कहा…

wah re patrkar ,kya vivechan kiya hain aapne daksh kumar ki karykarni ka,aisi jeevan shailita ,na humne kabi padhi han na dekhi,
mere priya patarkar ,aisa prateet hota hain ,aap is kshetra main kaafi maharath haasil kiye hue hain
to hamare priye rampal bhai daksh kumar ki tarah ,kisi karibi vyakti ka bhi charitra chitran ho jaaye
aapki ati krapa hogi
aapka apna marketing manager