मंगलवार, 23 मार्च 2010

गर्म-आहट

सिकुड़ती रात
बाहें फैलाता दिनकर
सर्द हवाओं पर
अब अधिकार जताती
गर्महवा
सच ही है
वक्त से पहले दस्तक दे चुकी है
गर्म-आहट
बदन पर चिपचिपा पसीना
गले में पानी की कमी से
चुभते शूल
शुष्क हवा के साथ
उड़ती धूल
फाग में मुरझा चले हैं
धरती पर कुछ निरीह फूल
ऊपर अंबर
नीचे धरती की बढ़ती बेचैनी
जीव धरा के व्याकुल से हैं
और हवा में पंछी
निडर आसमां
में घबराहट
और घबराहट है गंगा में
छांव मांगता पीपल अपना
उस बैरागी सी यमुना में
अब घुलती जाती गर्माहट
अब घुलती जाती गर्माहट

5 टिप्‍पणियां:

Madhukar ने कहा…

मज़ा नहीं आया। रायता फैल गया..महीना फाग का नहीं आग का यानी चैत्र का है। यमुना बैरागी है समझ नहीं आया। गर्मी है तो गर्मी ही रहेगी...लेकिन कुछ अलग सा असरदार सा लिखो। ये ना जिंगल है ना कविता। ये सबकी नज़र में है कविमना तो कुछ ऐसा लिखते हैं जिसे मेरे जैसा आम आदमी ना सोच सके। रायता...रायता...रायता।

Urmi ने कहा…

बहुत बढ़िया और ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है!

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

हिंदी-साहित्य में ऋ़तु वर्णन का अपना महत्व है। अनेक कवियों ने इसे अपने लेखन का विषय बनाया है। प्रकृति की निकटता का अपना आनन्द है। ग्रीष्म ऋतु संबंधी आपकी कविता प्रभावकारी है।

Tara Chandra Kandpal ने कहा…

अफ़सोस है कि रायता फ़ैलाने वाले कुछ लोग अब खुद को कवि भी समझने लगे हैं और अपनी गिनती भी कवियों कि श्रेणी में करवाना चाहते हैं| अनुपम जी रचना बेहतर है, अनुपम नहीं!

Unknown ने कहा…

आदरणीय तारा इंसान हमेशा सीखता रहता है। मैं भी सीख रहा हूं। आपने जिस साफगोई से कविता के बारे में लिखा है उसकी मैं कद्र करता हूं। और भविष्य में कोशिश रहेगी। कि अनुपम लिख सकूं।