मंगलवार, 17 मार्च 2009

श्रमजीवी-स्लमजीवी

उन गलियों में सड़कें नहीं होती। सड़कों के नाम पर उनके ही द्वारा बनाई गई कुछ पगडंडियां होती हैं जिनके किनारे बसता है भारत का श्रमजीवी भविष्य। टीन के नीचे सोता भारत का बहुत बड़ा तबका। ये तबका और श्रमजीवी भविष्य 24 घंटे संघर्ष में बिताता है या यूं कहें दो जून की रोटी की जुगाड़ उनसे बैलों की तरह काम करवाती है। इनके घरौंदों की हालत किसी चिड़िया के घोंसले जैसी ही समझिये, जिन पर आंधी औऱ तूफान की मार सबसे पहले पड़ती है। रात को सोते समय अगली सुबह ये भरोसा नहीं होता कि छत के नाम पर पड़ा खपड़ैल या टीन शेड उनके सिर होगा या नहीं। लेकिन वो लोग तो श्रम को जीते हैं। उनके लिए हर साल आने वाली प्राकृतिक आपदांयें मायने नहीं रखती, उन्हे तो आदत हो चुकी है, श्रम के साथ जीने की और श्रम करते-करते मर जाने की। कफन की भी चिंता करना उनके लिए बेजा होती है, । क्योंकि इनके मरने के बाद नगरपालिका जैसे सरकारी संस्थान टेण्डर जैसा जारी करते हैं, खासकर आपदाओं के समय। और ‘लाश के वास्ते’ सवारी में उनकी लाशों को भी डाल दिया जाता है। उनके साथ ये ज्यादा होता है जिनके ‘न आगे नाथ ना पीछ पगहा’ हो। महानगरों में धन्नासेठों के लिए ये लोग एनर्जी सेविंग टॉनिक का काम करते हैं, क्योंकि इन्हीं के बीच से निकलने वाला भारत का भविष्य ट्रैफिक सिगनल पर उनकी कारों के शीशे साफ करता है, पंचर जोड़ता है, न्यूटन से लेकर प्रेमचंद्र को बेचता है, और सड़क के किनारे पानी पिलाने का पवित्र काम भी करता है। अगर संयुक्त राष्ट्र की मानें तो पूरे विश्व में लगभग एक बिलियन लोग स्लमजीवी हैं। यानि ये पूरे बिलियन भर लोग अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई में ही जीवन बिता रहे हैं। मजा तो तब आता है जब इन्हीं स्लमजीवी लोगों पर डेविड मिलिबैंड मेहरबान होते हैं। और मुंबई की झुग्गियों से प्रेरणा लेकर एक ऐसी फिल्म बना डालते हैं जो ऑस्कर में आठ-आठ पुरस्कार ले उड़ती है। स्लमजीवियों पर बनी इस फिल्म के बारे में आप और हम सभी जानते हैं। लेकिन फिर भी याद दिलाना जरुरी है कि इस फिल्म का नाम स्लमडॉग था। स्लमडॉग के नाम को समझाने की जरुरत नहीं हर कोई आसानी से समझ सकता है। फिल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी कि एक स्लमजीवी कैसे एक करोड़पती बन जाता है। वो भी महज़ एक रियलिटी शो के द्वारा। फिल्म अच्छी थी, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन सच्चाई से कोसों दूर थी। दरअसल जिन स्लमजीवियों के जीवन को तीन घंटों में समेटा गया उनके जीवन की सच्चाई इतनी कठिन है कि उनकी व्यथा सिर्फ वे ही जान सकते हैं। हकीकत यही है कि सतत् श्रम के साथ जीने वाले ये स्लमजीवी सिर्फ झुग्गी में रहने वाले वो लोग हैं, जो अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रहे हैं, और जिनके अस्तित्व पर ही ख़तरा हो वो भला कैसे करोड़पती बन सकता है। लेकिन फिर भी वो लोग जीना जानते हैं हमसे और आपसे बेहतर तरीके से। क्योंकि उनकी आशाओं का संसार टीन शेड, खपड़ैल, और तंग गलियों तक ही सीमित है।

रविवार, 15 मार्च 2009

मेरी होली तो बस ऐसी ही है


नई सुबह, नया उजियारा
नए से रंग, लगे हर कोई प्यारा
दर पर दस्तक देती होली
प्यार और ठिठोली
इन रंगों में रंग दो सबको
हो जाओ सब अपने
ये रंग आज सबको रंग देंगे
उल्लास के रंग से
हर्ष के रंग से
उमंग के रंग से
तरंग के रंग से
कुछ ऐसी ही रंगत भरती है ये होली
ये रंग भेदभाव नहीं जानते
वो तो बस लोगों को नए रंग में
रंग देना चाहते हैं
ये रंग ही नूर हैं
जो रोशन करेंगे सारी दुनिया को
आज ऐसी ही खुशी पूरे भारत में हो
हर कोई गोपाल बने
गोपी बने, ग्वाला बने,
और बन जाए मां यशोदा, मां देवकी......
लेकिन आज
अधूरी मेरी होली है
मेरी दुनिया
बेनूर और बदरंग है
मेरे सपनों का संसार
आज सिर्फ एक सपना है
मुझ पर आतंक का साया है
खून के छीटे हैं
जो बंदरंग कर रहे हैं
मेरे तन को
मेरे मन को
मेरी आपके ही जैसी
एक मां थी
एक पिता थे
एक भाई था
एक बहन थी
और एक छोटा बेटा
जो अब एक
ख्वाब बन चुके हैं
वो आज नहीं हैं
मेरी होली उनके बगैर होगी
ये दर्द मुझे
मानवता के उन
दुश्मनों से मिला
जो रिश्तों को नहीं मानते
जो आतंक को जानते हैं
जो धर्म नहीं जानते
अधर्म को फैलाते हैं
उनका धर्म
तो सिर्फ लोगों की मौत है
वो लाल रंग तो जानते हैं
लेकिन सिर्फ खून का
वो होली तो खेलते हैं
लेकिन सिर्फ लहू से
वो इंसान तो हैं
लेकिन इंसानियत के दुश्मन हैं
दर्द आज भी, बहुत है
जो टीस देता हैं
रह रह कर सताता हैं
मेरी होली तो बस ऐसी ही है
बस ऐसी ही
क्योंकि मेरी होली का रंग
लाल है
मेरे अपनों के लहू से