मंगलवार, 22 जून 2010

चमचा उन्नति कॉर्नर

पिछले कई बर्षों से देख रहा हूं, चमचों को फलते-फूलते, ये नहीं पता चल पा रहा था कि वो और क्यों, कैसे, और किस विधि से दिन ब दिन विकसित हो रहे हैं, और भारत विकाशसील का विकाशसील ही बना हुआ है। भारत ढर्रे पर चल रहा है, और वो ढर्रे से हट चुके हैं। शायद यही उनके विकास का जरिया बन गया है। विकासशील भारत की उन्नत तस्वीर जब चमचों के द्वारा खींची जाएगी, तो भारत का गर्त में जाना तय है। खासकर तब जब हिंदुस्तान में चमचा उन्नति कॉर्नर खोला जाने लगा हो। चूंकि अब से कुछ रोज पहले मैने अपने एक ब्लॉग में http://khabarloongasabki.blogspot.com/2010/03/blog-post_29.html
चमचा काल का जिक्र किया था, इसलिए इसमें जिक्र नहीं करुंगा की चमचों का इतिहास कलिकाल से चला आ रहा है। मेरी बात ढर्रों से थोड़ी हटकर है क्योंकि ढर्रे पर चलना मेरी आदत नहीं, लेकिन मैं एक चमचा भी नहीं, बस चमचों पर नज़र रखने वाला एक ख़बरदार हूं। इसमें कोई शक नहीं हमाम में नंगों की कोई कमी नहीं, लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं कि भारत में चमचों की कोई कमी नहीं।
जब घी सीधी उंगली से नहीं निकला, तो चमचों ने उन्नति कॉर्नर खोल लिया। चमचों के इस ठिए में (निवास स्थान) सिर्फ मंत्रणा होती है, भारत के विकास पर नहीं, बल्कि खुद के विकास पर । जनता इन दिनों महंगाई और गर्मी से परेशान हैं, लेकिन चमचों को इससे कोई इत्तेफाक नहीं, क्योंकि वो मेरी नज़र में इंसानों की श्रेणी में नहीं आते, वो एक अलग तरह की प्रजाति है, जिसने पिछले दिनों में बेतरतीब उन्नति की है। बस कुछ ऐसा ही बूछिए कि वो जब चर्चा करते हैं, तो सिर्फ निजी विकास पर। भारत की विकास दर से उन्हें कोई आशय नहीं।
चमचों का ये कोना एक ऐसी चर्चा का मंच है, जहां चमचैली परंपराओं की कलश यात्रा से लेकर उनका अश्वमेघ यज्ञ भी किया जाता है। एक बॉस की पीछे दस चमचे ठीक वैसे ही लगे होते हैं, जैसे कातिक की कुतिया के पीछे सड़क छाप कुत्ते। निजी विकास की रबड़ी को लालायित ये कुत्ते, कातिक की कुतिया के पीछे ऐसे पड़े रहते हैं, जैसे गाजर के पीछे गधा। “तात लात रावण मोहि मारा” की तरह किसी दफ्तर के लिए ये विभीषण साबित होते हैं, जैसे ही रावण इनके पिछवाड़े पर लात मारता है, ये फौरन राम की शरण में जाकर सारे राज़ उगल देते हैं। बस अंतर इतना है कि राक्षस कुलीन विभीषण एक सीधा साधा इंसान था, जबकि ये आदम युगीन लोग लोभी प्रजाति के जीव के जीव की तरह हैं। जो नौकरी में प्रमोशन पाने से लेकर, लोगों की नौकरी खाने तक में बॉस की जी हुजूरी बजाते फिरते हैं। काम के नाम पर उनकी दिहाड़ी सिर्फ बॉस को एक मैसेज भेजने मात्र से ही पूरी हो जाती है। मैसेज का विषय कुछ ऐसा रहता है, कि आज दफ्तर में इतने आदमी मौजूद रहे, उस व्यक्ति ने काम किया, अमुक व्यक्ति ने काम नहीं किया, फलाना व्यक्ति आपको गरिया रहा था, और आपकी दुआ से सब बढ़िया चल रहा है। कुल मिलाकर बॉस को भेजा गया ये एसएमएस छ महीनों में ही उनकी तरक्की के साधन जुटा देता । बॉस की जूठन चमचों के लिए नाइट मील से कम नहीं है। और उसकी जूठन खाकर चमचा अपने आप को महान समझता है।
ये सच है कि चमचा उन्नति कॉर्नर में मौजूद सारे चमचे बॉस की खिचड़ी हिलाने का काम करते हैं, वो दिगंबर हैं, और उनका बॉस द हेड ऑफ दिगंबर। वाह रे नंग, जो तुम अपने आप को परमेश्वर से भी ऊंचा समझते हो। क्योंकि आपको पता ही होगा “नंग बड़े परमेश्वर से”। इसलिए चमचों की नंगई से बचकर ही रहिएगा। इनकी हरामगर्दी आपकी खुद्दारी को लील सकती है।

रविवार, 13 जून 2010

चिलम चूतिया

एक रात की बात है,
बिना विचारे,
मेरे द्वारे,
दो चूतिया पधारे।
मकसद-ए-खाक था,
इरादा नापाक था।
बनाना था मुझे चूतिया,
मौका था अप्रैल फूल का।
भीषण गर्मी थी,
उन्हें ठहराने को,
घर में जगह कम थी।
चू रहा था,
उनकी टांट से पसीना,
उस रात दोनों ने,
कर दिया हराम मेरा जीना।
अपनी संकुचित जुबान से,
बड़े बड़े प्रोजेक्ट मुझे सुझाने लगे।
कम लागत में,
बड़े बनने का ख्वाब,
मुझे दिखाने लगे।
उनकी बातों में उस रात बड़ा दम था,
जो मुझे हर बात सुहाने लगी।
लगा,
कि अब बड़ा बन जाऊंगा
टेम्स के दर्शन कर पाऊंगा ।
लेकिन उनकी सुलगती,
चिलम-ए-चूतिया का धुंआ,
मैं महसूस न कर पाया,
उनके इरादों को भांप न पाया ।
अपने आप को वो समझ रहे थे,
भारत की महान विभूतियां,
और बना रहे थे मुझे चूतिया।
था मलाल इस बात का ,
कि वो दो थे ,
और मैं था अकेला,
समझ नहीं पा रहा था,
उनका झमेला ।
उनकी हर बात में रबडी़ का लच्छा था,
उनका हर विचार उस समय बड़ा अच्छा था।
वो ब्रेन वॉश में माहिर थे,
चाट गए किसी दीमक की भांति,
मेरे दिमाग को,
और समझ रहे थे बुद्धिजीवी,
अपने आप को ।

शनिवार, 5 जून 2010

हलाल हो गई कसक

तुम्हारी कसक मेरे घावों पर लगी उस बैंडेड की उधड़ी पैबंद है जहां से झांकता मेरा घाव अब लोगों को भी नज़र आने लगा है। ये घाव कभी सी नहीं सकेगा कोई, तुम्हारे अहसासों की पुलटिस (मरहम) बार-बार इन घावों को हरा करती रहेगी, ये टीस हमेशा उठती रहेगी। बार बार आवाज़ आएगी, तुम मतलब परस्त हो। मैं तुम्हें जीत तो न सका, लेकिन तुम मेरी हार पर हमेशा हंसते गए। तुम्हारी उस हंसी में आत्म सुख की अनुभूति दिखाई देती है मुझे। शायद तुम्हारा आत्मसुख मेरी हार से ही जीवित है। मैं हर बार हारुंगा ऐसा नहीं होगा। जीतने आया था, जीत कर जाऊंगा। मेरी इच्छाएं नेपोलियन के साहस से भी ऊंची हो जाती हैं, जब मैं इस खेल में अपने आप को हारा हुआ महसूस करता हूं। कभी न झुकने का साहस मेरी खुद्दारी है। हो सकता है कि मैं थोड़ा सा नरम हुआ हूं, लेकिन झुका कभी नहीं। तुमने शायद इसी नरमी को गले लगाकर जीत का हार पहन लिया हो। लेकिन मैं अपनी हार से ऊपर उठ जाऊंगा, तुम्हें हराकर जाऊंगा। तुम्हारे साथ के अहसासों में मैने अपने आप को कहीं खो दिया था। लेकिन अब निष्ठुर हो चुका हूं। कहीं खोने नहीं दूंगा अपने आप को । अब साधा हुआ तीर चिड़िया की आंख पर ही लगेगा। मेरे दरीचे का जो शामियाना तुम्हारे तूफान से उखड़ गया था, वो अब फिर लग चुका है। फिर बहार उस शामियाने को अपने आगोश में लेने वाली है। तुम्हारी हर मीठी छुअन अब चुभन बन चुकी है। पोटेशियम साइनाइट बनते जा रहे हो तुम मेरे लिए, मैं तुम्हें सिर आंखों पर बिठाता गया, और तुम चंदन पर लिपटे सांप की ही तरह मेरे तन को डसते चले गए।तुम खुद्दार हो किसी के लिए ये तो मैं नहीं जानता, लेकिन तुम्हारी गद्दारी ने मुझे खूब सिखाया है। वक्त बदल चुका है, राहों के कांटे अब पुष्प बन चुके हैं। तुम्हारी याद करके इन लम्हों में और ज़हर नहीं घोलना चाहता। तुम्हारे सुख की कामना करता रहूं, अब शायद ये भी न हो पाए मुझसे। अगर तुम व्यस्त हो, तो मैं तुमसे ज्यादा व्यस्त हूं। मेरी जीवनी में तुम एक ऐसा चरित्र बन बैठे थे, जो मुझे हमेशा कमज़ोर करता रहा। अपनी इसी कमज़ोरी से निपटने का उपाय ढूंढ लिया है मैने। जाओ चले जाओ कहीं दूर, जहां से न मैं तुम्हारी आवाज़ सुन सकूं, और न ही तुम्हें देख ही सकूं। तुम एक बेरहम कातिल हो, तुमने मेरे शरीर का कत्ल तो नहीं किया। लेकिन मेरी आत्मा और मेरे अहसासों को हलाल जरुर कर दिया। अब वो अहसास कभी जीवित न होंगे। जाओ किसी कण में अब तुम्हारी शक्ल मुझे दिख जाए न कहीं। मेरी कसक की हलाली करने वाले ऐ दोस्त तुम्हारी गुमशुदगी अब कभी तलाश न हो सकेगी।