रविवार, 15 जनवरी 2012

अंधों में काना आर्यभट्ट

समाज में हमारे इर्द गिर्द कहावतों का दौर कुछ यूं पसरा हुआ है, जैसे भारत के कई हिस्सों में फैला 42 फीसदी कुपोषण। लेकिन हम अक्सर इन कहावतों को एक दम सटीक सच की तरह नहीं देख पाते। कहीं न कहीं कोई कमी जरुर रहती है। अंधों में काना राजा एक ऐसी ही कहावत है। क्या वाकई जहां सारे अंधे होते हैं वहां काना श्रेष्ठ होता है? ऐसी कहावतें जब सच की चादर ओढ़ती हैं, तो एक सामाजिक व्यंग भी होता है, और कई बड़े सवाल भी इसी व्यंग से जन्म लेते हैं। इसी कहावत की सच्चाई को मैने बड़े करीब से देखा है।
तीन जनवरी 2012 की बात है । जब मैं बिना आरक्षण शाहजहांपुर की अकस्मात यात्रा पर निकला था। हाड़ कंपाती सर्दी में मैं रात बारह बजे स्टेशन पहुंचा। अनारक्षित श्रेणी के टिकट के लिए लाइन में लगा तो देखते ही देखते लाइन काफी लंबी हो गई। लेकिन टिकट खिड़की नहीं खुली। मेरी बारह चालीस की ट्रेन थी। करीब तीस मिनट खड़े रहने के बाद जब खिड़की खुली तो मेरा टिकट लेने का तीसरा नंबर था। मेरी बारी आई तो मैने अपनी जेब से टूटे नब्बे रुपए निकालकर टिकट खिड़की की ओर आगे बढ़ा दिए, और ये सूचना दी कि मेरा शाहजहांपुर तक का टिकट कर दो। अंदर से आई किर्र किर्र की आवाज़ से साफ इंगित हो रहा था कि शाहजहांपुर के टिकट की एक प्रति मेरे हाथ आने वाली है। कुछ सेकेंडों में टिकट तो मेरे हाथ था, लेकिन नब्बे रुपए में से बची हुई धनराशि मुझे वापस नहीं की गई। वो शायद रेलवे कर्मचारी ने बतौर मेहनताना अपनी जेब में रख ली थी। मैने भी इस बात को ज्यादा तूल देना उचित न समझा, क्योंकि मैं अपनी ट्रेन पकड़ने के लिए लेट हो रहा था। अगर ये ट्रेन छूट जाती फिर मेरे पास शाहजहांपुर के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। ऐसी स्थिति में मुझे टुकड़ों में ही जाना पड़ता।
मैं प्लेटफॉर्म नंबर ग्यारह पर पहुंच गया। जहां ट्रेन खड़ी शायद मेरा ही इंतज़ार कर रही थी, क्योंकि उस वक्त रेलवे की घड़ी में 12:42 AM हो चुका था, जबकि उस ट्रेन का दिल्ली से चलने का टाइम 12:40 था। मैं अनारक्षित श्रेणी के एक डिब्बे में चढ़ गया जो बाहर से देखने पर बिल्कुल खाली दिखाई दे रहा था। इस डिब्बे में जैसे ही मैं आगे बढ़ा, एक कर्णभेदी हूटर के साथ ट्रेन आगे की ओर चल दी। अब बोगी में मैं अपना बिस्तर लगाने की जुगत भिड़ा रहा था, क्योंकि मुझे ठंड भी लगी रही थी, और मैं उस दिन सुबह काफी जल्दी भी उठ गया था, जबकि अमूमन ऐसा होता नहीं कि किसी दिन सोकर मैं जल्दी उठा हूं। कूपा आशा से परे 95 फीसदी खाली था। इसलिए मुझे अपनी जगह तलाशने के लिए कुछ ज्यादा ही दिक्कत का सामना करना पड़ रहा था। कहां सोऊं, कहां बैठूं, कहां से बाहर के दृश्य बेहतर दिखेंगे, कहां से ठंडी हवा कम लगेगी, आदि अनादि कुछ ऐसे ही प्रश्न मेरे दिमाग में कौंध रहे थे। दस मिनट बाद मैं ये तय कर पाया कि अब मुझे फलां जगह तशरीफ टिका देनी चाहिए। मैने सीट पर चादर बिछाई और खिड़की के बगल से सटकर बैठ गया। कुछ देर खिड़की खोली रखी ताकि बाहर के मौसम का आनंद उठा सकूं, चूंकि हवा बेहद सर्द थी, इसलिए ज्यादा देर मौसम का मज़ा लेने का विचार मेरी नाक बहाने के लिए काफी था। इस तरह की किसी भी रिस्क से बचने हेतु मैने खिड़की का पहले शेटर बंद किया उसके बाद शीशा भी बंद कर दिया। अब मैं उस बेरहम हवा से पूरी तरह सुरक्षित था, जो मेरे बुखार और नज़ले का सामान अपने साथ लिए ट्रेन से बाहर बह रही थी। ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी, लेकिन काफी थकान के बावजूद मुझे उस दिन नींद नहीं आ रही थी। इसलिए मैने अपने बैग से शरद जोशी के व्यंगों पर आधारित एक किताब ‘यथा समय’ निकाली और उसके पढ़ने लगा। आंखे बोझिल हो रही थीं, लेकिन ‘यथा समय’ की कहानियों के सामने आंखे मूंदने का अब मन नहीं हो रहा था। वक्त बीतता जा रहा था, और मैं किताब के पन्ने पलटता जा रहा था। गाज़ियाबाद, पिलखुआ, और हापुड़ को ट्रेन पीछे छोड़ चुकी थी, मुझे इस बात का इसलिए पता था, क्योंकि इन तीन जगहों पर जब ट्रेन रुकी तो कुछ चाय वाले मेरी बोगी में अपनी ना पी सकी जाने वाली चाय पर ताज़गी का ठप्पा लगाये उसे बेंचने आ गये थे। इस दौरान कुछ पूड़ी सब्जी वाले भी आये थे, जिनकी पूड़ियों की शक्ल देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता था, कि उन्हें दोपहर में बनाया गया होगा, लेकिन वो जब बिक नहीं सकीं, तो रात को उन्हें दोबारा मिलावटी घी में गर्म करके ताजगी का नाट्य रूपांतरण कर बेचा जा रहा था। इसी बीच अमरोहा स्टेशन भी पार हो गया। ट्रेन बड़ी बेफिक्री के साथ हूटर पर हूटर मारे अपनी ही पहले से तय पटरियों पर आगे की ओर बढ़ती जा रही थी। मैं भी ट्रेन की बेफिक्री से सीख लेकर किताब पढ़ने में तल्लीन था। कि इसी बीच ट्रेन द्वारा पटरियां बदलने की ध्वनि मेरे कानों में पड़ने लगी थी, और ट्रेन अपनी रफ्तार को धीमा कर रही थी। ये किसी स्टेशन के आने के संकेत थे। मेरा कयास जल्द ही सच निकला, जब मैने खिड़की से बाहर झांका तो ट्रेन मुरादाबाद के आउटर में प्रवेश कर चुकी थी। अब तक जो ट्रेन सत्तर अस्सी की स्पीड में चल रही थी, उसकी रफ्तार चार पांच किलोमीटर प्रतिघंटा हो गई थी। शायद कोई ट्रेन पहले से उसके लिए निर्धारित प्लेट फॉर्म पर खड़ी थी, जिसके वहां से निकलने के बाद तक के लिए इस ट्रेन को धीमे ही चलना था। ट्रेन ने अचानक कुछ तेज़ रफ्तार पकड़ी, और मुरादाबाद स्टेशन के दो नंबर प्लेट फॉर्म पर जाकर खड़ी हो गई। इस वक्त प्लेट फॉर्म की घड़ी का छोटा कांटा चार पर था, जबकि बड़ा कांटा बारह पर जाने की अथक कोशिश कर रहा था, मानों बड़ा कांटा इशारा कर रहा हो कि उसे उसकी मंज़िल बारह पर आकर मिल जाएगी। ये घड़ी में सुबह के चार बजने के संकेत थे। गाड़ी स्टेशन पर जैसे ही लगी, वैसे ही कुछ लोग पूर्व की भांति ट्रेन में दाखिल हुए, और अपनी चाय को श्रेष्ठ बताने के लिए मिथ्या वर्णन का सहारा लेने लगे। लेकिन उस जाड़े में महज़ पांच रुपए हासिल करने हेतु किया जा रहा ये मिथ्या वर्णन किसी कड़वे सच जैसा था, जिसका एक घूंट मैने भी पांच रुपए देकर खरीद लिया था, क्योंकि बाहर ठंड कुछ ज्यादा ही पड़ रही थी, जिस ठंड का अनुभव मुझे दिल्ली में नहीं हुआ था, उससे कहीं ज्यादा ठंड को मैं मुरादाबाद स्टेशन पर महसूस कर रहा था, हमेशा की तरह चंद मिनटों में ही मैने उस ना पसंद आने वाली चाय को खत्म कर दिया था। बाहर कोहरा बहुत ज्यादा होने की वजह से विज़िबिलटी बेहद कम हो गई थी। मुरादाबाद बड़ा स्टेशन है इसलिए यहां लगभग हर ट्रेन का स्टॉप दस मिनट से कुछ ज्यादा है। लेकिन उस दिन ट्रेन करीब तीस मिनट तक स्टेशन पर ही खड़ी रही। मुझे ठंड बहुत ज्यादा लगने लगी थी। सोच रहा था कि कैसे भी एक अदरक वाली चाय मेरे गले को नसीब हो जाती, तो दिल आनंद-आनंद तृप्त- तृप्त हो जाता। लेकिन बदनसीबों की बस्ती में नसीब कहां जागते हैं। ऐसे ही मुझे एक प्याला अच्छी चाय नसीब नहीं हुई। और मजबूरन ही मुझे मिथ्या वर्णन वाली उस चाय के तीन प्यालों को पीना पड़ा।
ट्रेन शायद जब चलने ही वाली थी, कि इसी दौरान पांच लोग भागते हुए ट्रेन में चढ़े, हर कोई एक दूसरे को अपना बैग थमाकर ट्रेन के अंदर दाखिल होने की कोशिश कर रहा था, ऐसा लग रहा था कि जैसे वे पांचों काफी दूर से भागकर आ रहे हैं। और ट्रेन की हरी बत्ती देखकर बहुत घबरा गए हैं कि कहीं उनकी ये ट्रेन छूट न जाए। खैर वो पांचो ट्रेन के भीतर जैसे तैसे दाखिल हुए क्योंकि ट्रेन हलके हलके रेंगने लगी थी। जान हथेली पर लेकर सफर तय करने की ये नीति साफ बता रही थी, कि वे मजदूर वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, और हर रोज़ ऐसे ही ट्रेनों में सफर तय करते हैं। मेरा ये कयास भी पूर्व की भांति एक दम ठीक था। पहले किताब बैग में रख लूं उसके बाद बताऊंगा कि आखिर मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं।

ये पांचों लोग आपस में ठेठ देहाती भाषा में बातें कर रहे थे, ये भाषा अवधी भी थी, मैथली भी थी, और भोजपुरी भी थी। कुल मिलाकर इनकी भाषा का अंतिम उत्पादन कबीरदास की सधुक्कड़ी भाषा जैसा था। इन लोगों की वार्ता के कुछ अंश मुझे बड़ी ही मुश्किल से समझ आ रहे थे। लेकिन कहा जाता है कि मुश्किल पंक्तियों से अपने लिए कुछ सरल निकाल लेने वाला ही जिज्ञासू है। सो इसी तर्ज पर मैं उन पांचों की रोमांचक बातों का स्वाद लेने लगा। इस दौरान मुझे ज्ञात हो गया था, कि वो पांचों लोग दिहाड़ी मजदूर थे, जो दिन भर काम करने के बाद दिल्ली से अपने घरों की ओर लौट रहे थे, लेकिन मुरादाबाद में ट्रेन छूट जाने की वजह से वो मुरादाबाद स्टेशन पर ही काफी देर से सोये हुए थे। पर जब मेरी ट्रेन वहां पहुंची तो अचानक खुली नींद ने उन्हें मेरी ट्रेन में दाखिल होने को मजबूर कर दिया। इन्हीं आशंकाओं के बीच मैं उनकी बातों को आराम से सुनता जा रहा था, कि मुझे एक और बात पता चली कि उनमें से एक व्यक्ति उनका नेता है। जिसका नाम संभवत: छन्नू रखा गया था। क्योंकि सभी लोग बार बार उसे छन्नू भइया के नाम से ही पुकार रहे थे। उन पांचों लोगों में छन्नू ही एक मात्र दल का ऐसा सदस्य था, जिसने अपनी ज़िंदगी में या तो कभी पढ़ाई को महत्व दिया होगा, या फिर घर में पिता की डांट का उसे ख्याल रहा होगा। मुझे नहीं पता था कि छन्नू कितना पढ़ा लिखा था, लेकिन उसकी काबलियत का अंदाज़ा उसके चार साथियों ने भलीभांति लगा लिया था, क्योंकि उनकी नज़र में छन्नू उनका नेता था। छन्नू के शारीरिक ढांचे की एक और खास बात थी, कि वो एक आंख से देख नहीं सकता था। उसकी आंखों में लगा पत्थर इस बात की ओर साफ इशारा कर रहा था, कि बचपन में किसी दुर्घटना की वजह से उसकी एक आंख जाती रही होगी, या फिर मोतियाबिंद का सही वक्त पर इलाज न करवा पाना उसकी आंख के लिए प्राणघातक साबित हुआ होगा। जो भी हुआ हो लेकिन एक आंख से देख सकने वाला ये शख्स उन दो दो आंखें रखने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा था।
छन्नू के हाथों में सौ सौ के कुछ नोट थे, जिनका हिसाब छन्नू को ही करना था। उसे उन चारों में तो नोट बांटने ही थे। साथ ही अपने काम का हिसाब भी तय करना था। इसलिए छन्नू ने 675 रुपए प्रति व्यक्ति का हिसाब करने के लिए अपनी उंगलियों का सहारा लेना शुरु कर दिया था। गणित के तमाम फॉर्मूले फिट कर लेने के बावजूद भी जब छन्नू पैसों का सही हिसाब नहीं लगा सका। तो उसने अपनी जेब से भारत के एक पड़ोसी कम्यूनिस्ट देश से आया एक मोबाइल निकाल लिया। और उसके साथ खुड़पैंच करने लगा। अंदाज़ा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं था कि जब उसके दिमाग की गणित फेल हो गई तो उसने कंप्यूटरीकृत गणनांक का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया होगा। यकीनन ऐसा ही था। छन्नू अब मोबाइल में मौजूद कैलकुलेटर के सहारे उस हिसाब के अंकेक्षण में जुट गया था। उन चारों की आंखें बरबस ही छन्नू की काबलियत पर टिकटिकी लगाये देख रही थीं। उनकी नज़र में छन्नू शिक्षित भी था, तकनीकी जानकार भी, वैज्ञानिक भी, और सबसे समझदार भी। क्योंकि वो चारों आंखों ही आंखों में छन्नू द्वारा किये गये प्रयासों को सराहने की चेष्टा में लगे हुए थे। लेकिन इस बात से छन्नू एक दम अंजान था। क्योंकि उसका पूरा ध्यान अपने चाइनीज़ मोबाइल की स्क्रीन पर था। उसके सराहनीय प्रयासों की दृढ़ता देखकर सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वो आज अपने पास मौजूद धनराशि में से 675 रुपए के उस अबूझ हिसाब का हल निकाल ही लेगा।
माहौल इस वक्त बेहद शांत था। उन चारों की नज़रें छन्नू पर टिकी थीं, तो मेरी नज़रें उन पांचों के क्रिया कलापों पर । लेकिन इसी बीच उन चारों में से चिल्ला नाम के एक शख्स ने अपने भारी से दिखने वाले मोबाइल में गाना बजा दिया। प्यार से लिखा गया वो गाना उस मोबाइल में जाकर इस कदर कर्णभेदी हो गया था, कि मजबूरन छन्नू को हस्तक्षेप कर कहना पड़ा...अरे बंद करऊ भोंसड़ी के...चिल्ला की इस हरकत से छन्नू इस कदर आहत हो गया था, कि एक मिनट के भीतर उसने चिल्ला को उसके अनपढ़ होने के सैकड़ों नुकसान गिना दिये थे। शायद चिल्ला को भी अपने अनपढ़ होने का जितना अफसोस पहले न हुआ होगा। उतना आज हो रहा था, क्योंकि छन्नू ने तो सीधे उसके स्वाभिमान को ही ललकार दिया था।
अब तक जो तस्वीर थोड़ी शांत दिखाई दे रही थी, उसमें अब तनाव नज़र आने लगा था। चिल्ला से हुई बकझक के बाद छन्नू अपनी कंसर्ट्रेशन खो बैठा था। छन्नू की शक्ल देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे अब वो 675 रुपए की उस पहेली को सुलझा ही न सकेगा। लेकिन छन्नू तो छन्नू था, उसे ये साबित करना था कि उसकी प्राइमरी तक की पढ़ाई उसके काम आई है। चिल्ला की उस शांति भंग करने वाली हरकत ने कुछ घंटों से हिसाब लगा रहे छन्नू के चेहरे पर बारह बजा दिये थे। लेकिन फिर भी मामले को आन पर लेते हुए छन्नू 675 के कुल योग वाली बैलेंस शीट को बनाने में पिला हुआ था। ये छन्नू का अपने हिसाब के प्रति समर्पण ही था, जो उसने चिल्ला द्वारा किये गये उस गाना बजाने के अपराध को नज़रअंदाज़ कर हिसाब में ही ध्यान लगाये रखा। अगर और कोई होता तो वो चिल्ला की गुटखौसी दांतों वाली मुस्कान से खीज कर हिसाब किताब को बंद करता, और पहले चिल्ला के दांत तोड़ता।
ट्रेन अब रामपुर स्टेशन पहुंच चुकी थी। लेकिन छन्नू वहीं का वहीं था। शायद उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके पास मौजूद रुपयों में से 75 रुपए के उचंत खाते के पैसे आखिर गये तो गए कहां ? इस बात का पता भी मुझे तभी लगा जब उसने एक गाली के साथ कहा भोंसड़ीं के जई 75 रुपिया कहां चले गए, इस दौरान ये पहला ऐसा मौका मैने पाया था जब छन्नू ने प्रश्नवाचक अवस्था में चारों के चेहरे पर बारी बारी से अपनी एक आंख के द्वारा बड़ी ज़ोर देकर देखा था। क्योंकि अब से पहले तक तो छन्नू की सारा ध्यान उस हिसाब ने खींच लिया था, या फिर चिल्ला की उस हरकत ने जिसकी वजह से चिल्ला को अपमान के सैकड़ों घूंट चंद मिनटों में ही पीने पड़ गए थे।
ट्रेन रामपुर स्टेशन पर बिना किसी सूचना के रुकी हुई थी, लेकिन छन्नू के हिसाब की गाड़ी जापान की विकास दर की तरह आगे की ओर जा रही थी, ये बात अलग थी, कि अब तक छन्नू के हिसाब को उसकी मंजिल नहीं मिल सकी थी। लेकिन कहा जाता है कि किसी की शक्ल पर उसकी होशियारी के बारे में नहीं लिखा होता। ऐसा ही छन्नू के साथ भी था। उसके चेहरे की उड़ चुकी रंगत साफ बता रही थी कि रामपुर से चलकर जैसे ही ये ट्रेन बरेली पहुंचने वाली होगी, तो उसके हिसाब का तलपट भी मेल खा जाएगा। क्योंकि जिस तरीके से उसकी भावभंगिमाओं को मैं भांप पा रहा था, तो मुझे लगने लगा था कि छन्नू हिसाब के बेहद करीब है। हां एक बात और याद आ रही है कि रामपुर से ट्रेन रवाना होने से पहले उन पांचों ने न पी सकी जाने वाली पांच प्यालियां चाय भी खरीदी थी। और इसके पैसे उसने चुकाये थे, जिसे अब से कुछ वक्त पहले एक छोटी सी गलती के एवज़ में बड़ी सी फटकार छन्नू द्वारा लगाई गई थी। इस दौरान चाय पीते वक्त शेष चार तो आपस में अपने हरदोई स्थित किसी गांव की बातें कर रहे थे, लेकिन छन्नू चाय की चुस्कियों के साथ ही गणित की उस अबूझ पहेली को सुलझाने में लगा हुआ था। छन्नू की चाय का प्याला खत्म हो चुका था, लेकिन हिसाब अब तक नहीं लगाया जा सका था।
ये विडंबना ही थी कि बरेली रेलवे क्रॉसिंग के कुछ पहले ही छन्नू उन चार लोगों की भीड़ को संबोधित करने की मुद्रा में आ गया। उसकी एक आंख में साफ पढ़ा जा सकने वाला आत्मविश्वास बताने के लिए काफी था, कि वो हिसाब की बहियों का हिसाब कर चुका है। उसने 75 रुपए के उस सस्पेंस अकाउंट का पर्दाफाश कर दिया है। जिसने उसकी नाक में दम कर दिया था। जो छन्नू अब तक बेहद शांति से हिसाब लगा रहा था, वही अब चिल्ला समेत उन चारों को 675 के मूल का रहस्य समझाने लगा था। छन्नू को पता चल गया था कि जिन 75 रुपए की बदौलत उसके हिसाब का चिट्ठा मेल नहीं खा रहा था, उसी 75 रुपए के खर्चे को उसने खोज निकाला था। और ये 75 रुपए वही थे जो उन पांचों ने आपसी सहयोग से कच्ची दारु की भट्टी पर खर्च कर दिये थे। लेकिन नशा ज्यादा होने की वजह से किसी को याद नहीं था कि पैसे आखिर गए तो गए कहां। ये सब संभव हो पाया था तो बस छन्नू के द्वारा। क्योंकि छन्नू ने प्राइमरी की पढ़ाई में एक से लेकर सौ तक की गिनतियों के बड़े ही मन से पढ़ा था। और इस पढ़ाई के ही बूते उसने ये साबित कर दिखाया था, कि अंधों में काना राजा ही नहीं बल्कि आर्यभट्ट भी हो सकता है।
सुबह के दस बजे हैं। बरेली आ गया है । और मुझे इसी स्टेशन पर उतरकर शाहजहांपुर के लिए ट्रेन पकड़नी है, क्योंकि जिस ट्रेन से मैं आया हूं वो ट्रेन बरेली से सीधे लखनऊ जाती है, शाहजहांपुर उस ट्रेन का स्टॉप नहीं है। और हां छन्नू ने अपने हाथों में मौजूद सौ रुपए के सभी कड़क नोटों का हिसाब उन चारों में कर दिया है। आगे का रास्ता वो कैसे तय करेंगे मुझे नहीं पता, क्योंकि मेरे देखे जाने तक वो बरेली स्टेशन पर उतरे नहीं थे। और हरदोई नामक जिस ज़िले में उन्हें जाना था, ये ट्रेन वहां भी नहीं रुकती थी। शायद ये पांचों लखनऊ पहुंच जाएंगे, या फिर चेनपुलिंग कर हरदोई उतरेंगे।

3 टिप्‍पणियां:

Madhukar ने कहा…

दुनिया रंगीन है प्यारे।

बेनामी ने कहा…

bahut badiyaa.....!!

बेनामी ने कहा…

shandaar sansmaran