शनिवार, 20 दिसंबर 2008

ताजमहल हूं मैं...


मैं ताजमहल
एक मोहब्बत का पैगाम
शाहजहां और मुमताज
की मोहब्बत का
मेरे नाम ने सिखाई
दुनिया को मोहब्बत
और सिखाया
भाईचारा
मुझे देखा है दुनिया ने
एक ऐसा ही ताज
मेरा भाई है
वो महाराष्ट्र की अंगड़ाई है
वो ताज है
मायानगरी का
वो ताज है
सपनों की नगरी का
वो ताज है
आमची मुंबई का
बीते दिनों ने
इसने इतना कुछ झेला
जो और कोई होता
तो कब का टूट जाता
बिखर जाता
सपनों का ये महल
आतंकियों का शिकार हुआ
ये दिन था २६ नवंबर 2008
इसके बाद
उन पूरी तीन रातों में
ताज ने देखा वो सब
जिसे देख हर किसी की
आह निकल गई
ताज की सुंदर छवि को
ऐसा चोट लगी थी उस दिन
कि तड़प आज भी बाकी है
लेकिन उसकी टूटी सांसों का
संसार अभी भी बाकी है
उसको चोट देकर वो समझे
टूटेगा हौंसला भारत का
लेकिन पिछले सौ सालों में
देखा उसने इतना था
कि तोड़ न पाए वो जज़्बे को
तोड़ न पाए साहस को
आज कर रहा है फिर स्वागत
जो न भूल सकेगा कोई
क्योंकि मैं ताजमहल हूं
एक मोहब्बत का पैगाम
देश को एक रखने का नामअनुपम मिश्रा

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

जब पत्रकारों को सताए भूख

ऊंची ऊंची इमारते...उन पर बडी़ बडी़ छतरियां...और सड़कों पर वाहनो की लंबी कतार...ये है हमारी फिल्मसिटी की पहचान...ये फिल्मसिटी नोएडा की ऐसी अनोखी जगह है...जहां से ताबड़तोड़ ख़बरें निकलती है...ये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का गढ़ है...हर पत्रकार दौड़ता भागता दिखाई देता है...काम का ऐसा बोझ कि ज़िंदगी जीना ही कभी कभार याद नहीं रहता...ख़बरों के मायाजाल में एक बार फंसे तो समझो कि लंका लग गई...बहुत प्रेम होता है इन्हें ख़बरों से...कोई शिफ्ट नहीं होती बेचारे पत्रकारों की...बस सतत् ही काम में लगे रहो एक बैल की तरह...बेचारे कोल्हू के बैल को तो मालिक थोड़ा आराम दे देता है लेकिन ये बेचारे पत्रकार बेचारे ही रह जाते हैं....बड़े बदनसीब...इनका दर्द कोई नहीं समझ सकता...ये तो दर्द था पेशे का...लेकिन आजकल एक दर्द औऱ सता रहा है इन ख़बर के खिलाडि़यों को...वो है पेट की छुदा का दर्द...दरअसल हमारी फिल्मसिटी में कभी पेड़ों के नीचे खाने पीने की दुकानें हुआ करती थी...वहीं पास में सुट्टा बाज़ार भी लगा करता था...जिन से दिनभर थके पत्रकार बंधु नाश्ता पानी कर लिया करते थे...और टेंशन को धुएं में उडा़ दिया करते थे...लेकिन इन दिनों फिल्मसिटी में मंदी घुस गई है...सारी दुकानें सफाचट्ट...अब हमारे सामने मुसीबत ये है कि गम ग़लग करने को जाएं तो जाएं कहां...जहां कभी दुकाने हुआ करती थीं...उन पर कमेटी की ऐसी गाज गिरी कि अब सिगरेट के खाली खोखे भी नहीं दिखाई देते...बेचारे पत्रकारों की हालत देखने वाली होती है जंब लंच टाइम में बाहर निकलते हैं...भूख मइया उनके सिर पर सवार होती हैं...पेट में सैकड़ों चूहे उछल कूद कर रहे होते हैं...कहते हैं मुझे भूख लगी है खाना दो...अब मुद्दा ये है कि खाना लाएं कहां से...सो बेचारे 11 नंबर की साइकिल से इधर उधर फंटियाते फिरते हैं...लेकिन उनकी भूख मिटाने वाला कोई नहीं मिलता...कोई उनके दर्द को नहीं समझता...फिल्मसिटी की वो दुकानें ही तो सहारा थीं...आज भूख बहुत सताती है...

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

शहादत के तीन दिन

मैं मायानगरी हूं
कुछ मुझे सपनों की नगरी कहते हैं
तो कुछ कहते हैं देश धरा
मैं सिखलाता लोगों को
कैसे जीवन जाता जिया
सिखलाया मैने ही उनको
जीत दिलाकर जाना
मेरी उम्मीदों के साए
हर एक सफलता पाना
लेकिन उस दिन हुआ कुछ ऐसा
नज़र लग गई मुझको
दिन 26 का
माह नवंबर
सन् दो हजा़र था आठ
लोग व्यस्त से आने जाने में
लौट रहे थे घर को
कि अचानक हुए धमाकों ने
थामा मेरी रफ्तार को
सपनों की इस नगरी ने
देखा लाशों के संसार को
हर चौराहा, हर चौबारा रोया था
चीख पुकार से
बिखरा लहू, सिसकते लोग
भाग रहे थे सड़कों पर
आलम बदहवास था ऐसा
जां पर बनी थी हर कोई पर
गोली, गोलों और धमाकों
के बिस्तर पर सोया मैं
भारत मां से आज कहूं क्या
कि फूटी किस्मत मेरी है
इतना सबकुछ सहते सहते
अब बस मेरी बारी थी
अब जवाब देना था उनको
सांसें थामी जिन दहशतगर्दों ने
तैयार हो गए, वीर हमारे
एक और शहादत को
लहू बहे तो कोई बात नहीं थी
फिर उन्ही जवानों की टोली थी
तैयार हुए थे मां के बेटे
दुश्मन को धूल चटाने को
न माफी देंगे
देंगे गोली
ली हैं जान जिन्होंने मेरी
घायल ताज, तड़पता नरीमन
चीख चीख कर कहता मुंबई
आज गिरा दो लाशे उनकी
ली है जान जिन्होंने अपनी
हर विधवा की कसम है तुमको
हर बूढे़ को आस है
आस आज उस मां को भी है
छीना जिसका बेटी बेटा है
आज निभाना फर्ज है तुमको
खोया जिनका कोई अपना है
इन्ही कसमों को याद किया था
उन जब वीरों ने
लहू बहे या जां जाए
अब फिक्र नहीं थी लोगों को
बस मकसद था
बस हसरत थी
दिल में यही तमन्ना थी
मिट्टी में मिल जाए दुश्मन
बस बाकी यही तमन्ना थी

शनिवार, 22 नवंबर 2008

रात के सौदगर...

हाड़ कंपा देने वाली सर्दी शुरू ही होने वाली है....देर रात दो बजे के बाद का समय है...सन्न सन्न सरपट दौड़ती गाड़ियों की आवाज़...और जगह दिल्ली का दिल कहा जाने वाला कनॉट प्लेस का इलाका...दिन भर की आपा धापी के बाद देर रात शायद इसी जगह का एक इलाका शिवाजी स्टेडियम ही शायद चहल पहल का पर्याय बनता है...ये चहल पहल होती है उन ख़बर दारों की जो इलैक्ट्रॉनिक मीडिया से...ताल्लुक रखते हैं...यानी रात्रि प्रहरी जब ख़बर लेने निकलते हैं...तो देर रात उनका शिवाजी स्टेडियम ही ठिकाना बनता है...हर एक को तलाश होती है एक ख़बर की...एक दूसरे की कैब का इंतज़ार करते लोग...एक चीज़ को बडी़ बेसब्री से तलाशते हैं...मतलब तो आप शायद ही समझें...लेकिन एक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुडा़ पत्रकार ये बडी़ आसानी से बता देगा कि वो कौन सी तलाश है जिस पर सारे के सारे ख़बरी आंखे गड़ाये देखते रहते हैं...चलिए बता ही देते हैं...एक शब्द है ट्रांसफर...हिंदी में जिसे कहते हैं हस्तांतरण...यानि लेन देन...ये लेन देन होता है ख़बरों का...अब आप सोंच रहे होगे कि कैसे होता है ख़बरों का हस्तांतरण तो हम आपको बताते हैं...इस पूरे खेल का मज़ा...शुरू करते हैं एक ख़बरी माध्यम से...दिल्ली के नांगलोई में एक वारदात हो जाती है जिसे वो ख़बरी माध्यम सबसे पहले कवर करके ले आता है...लेकिन वो इस ख़बर को लेकर दफ्तर नहीं जाता...पहले दस्तक देता है शिवाजी स्टेडियम...जहां पहले से ही मौजूद पत्रकार गण इस इंतजार में होते हैं...कि कब वो ख़बरी माध्यम ख़बर लाए...और हम कैमरा टू कैमरा उसके विज़ुअल अरेंज कर लें...अब तो सारा माजरा समझ आ ही गया होगा...इनकी यूनियन इतनी तगड़ी है कि कोई ख़बर किसी से छूटती ही नहीं...कोई न कोई ख़बरी माध्यम बनकर ट्रांसफर दे ही देता है...ये तो बात थी ट्रांसफर की लेकिन अब बात नांगलोई वाली ख़बर पर जिरह की...ख़बरी माध्यम वाला संवाददाता कहता है ख़बर मजेदार है बाइट भी है पैकेज चल जाऐगा...आसाइंन्मेंट को भी पटा लेंगे...तभी राम लाल बोले जो एक दूसरे चैनल से ताल्लुक रखते थे...बोले अरे यार विज़ुअल दमदार नहीं हैं...एंकर विज़ुअल से ही काम चलाना पडे़गा...राम लाल की बात पूरी हुई नहीं कि लल्लू बोल पडे़ बोले इसलिए कि वो भी उन्हीं पत्रकार बंधुओं में से एक थे...बोले यार ऐसा है ...ये ख़बर कुछ जंच नहीं रही...क्योंकि पुलिस ने तो बाइट दी ही नहीं...बीच में ही काटते हुए पप्पू ने कहा बिल्कुल पुलिस की बाइट नहीं है विज़ुअल भी ढंग के नहीं हैं तो कैसी स्टोरी कैसा पैकेज और कैसा ऐंकर विज़ुअल...कहो तो ड्रॉप करवा दें...इतना कहना था कि सबकी सहमति हो गई...हां चलो ठीक है...ड्रॉप कर देते हैं स्टोरी...और इस तरह एक स्टोरी असाइंन्मेंट तक भी नहीं पहुंच पाई...बेचारा ख़बरी माध्यम इतनी मेहनत से कड़कड़ाती ठंड में स्टोरी करके लाया था...और इस तरह ठंड में लाई गई वो स्टोरी शिवाजी स्टेडियम में ही बनकर ऑनएयर हो गई...अनुपम मिश्रा...

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

अपने तो,अपने होते है...

वक्त की नज़ाकत कहती है कि बदल जाओ.........अब वो समय नहीं रहा .....अब वो अपने, जो कभी लंगोटी में साथ साथ खेला करते थे बडे़ हो गए हैं, पतलून पहनने लगे हैं......तो मैने भी काफी दिमाग लगाया कि कहीं वक्त मुझे बरगला तो नहीं रहा , कही इसके मन में मेरे खिलाफ कोई चोर चो नहीं। जो मुझे पुचकार कर कह रहा है कि बदल जाओ। मैं भी ऐसे नहीं मानने वाला, इतनी जल्दी नहीं बदलने वाला था। अब वक्त मुझे औऱ समझाने लगा कि देखा पिछले दिनों तुम्हारे कितने करीबियों से तुम्हारी बात हुई। मैने कहा किसी से नहीं। वक्त बोला, देखा मैं न कहता था कि वो बडे़ हो गए हैं , बदल गए हैं। अब उन्हें तुम्हारी जरूरत नहीं । हां कभी तुम्हारे साथ वो जरूर खेले कूदे होंगे। लेकिन आज.....वो बदल चुके हैं। वो कार में घूमते हैं और तुम। मेरा दिमाग फिर सटक गया मैने सोंचा आखिर माजरा क्या है। क्यों वक्त मुझे ये सब बता रहा है। भई अगर मेरे किसी दोस्त से मेरी बात काफी दिनों से न हो तो इसका मतलब ये तो न लगाया जाए कि वो मुझे भूल चुका है। या मै उसे भूल चुका हूं। लेकिन वक्त था जो मानने को तैयार ही नहीं था । उसकी रट .ही थी कि बेटा बदल जाओ। जैसे वो हो गए वैसा हो जाओ।लेकिन इस बार वक्त का पाला किसी आम इंसान से नहीं पडा़ था जो इंसान उसके सामने था उसे तो आप जानते ही हैं। महाजिद्दी किस्म का रहा है। भला वो कहां इस वक्त के बहकावे में आने वाला था। क्योंकि गिरगिट ही समय समय पर रंग बदलता है और मैं कोई गिरगिट तो नहीं। या उसके जैसा कोई दूसरा जीव तो नहीं। और फिर जो सबसे बडी़ बात है वो है ये कि अपने तो अपने होते हैं। कितना भी कोई कुछ कहे उनकी जब याद आती है तब महसूस होता है कि दुनिया उनसे अच्छा कोई नहीं......और फिर वक्त के साथ बदलना हमारी फितरत भी नहीं।

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

राहुल का पंजाब दौरा....पहला दिन..

सफेद कुर्ता, चेहरे पर मुस्कान, आंखों में सादगी, और चाल वही एक सधे हुए नेता की......कांग्रेस के राजकुंवर यानी राहुल गांधी की कुछ ऐसी ही शख्शियत है......राहुल को जब जब हमारे देश के लोगों की याद सताती है.....वो निकल पड़ते हैं बेफिक्र होकर.....फिर किसी का डर नहीं होता.....महलों में रहने वाले इस राजकुमार का......बीते दिनों कुछ ऐसा ही एक बार तब हुआ......जब राहुल ने पंजाब का तीन दिवसीय दौरा किया.......तारीख 22 सितंबर 2008.....दिन सोमवार.....जगह फतेहगढ़ साहिब.....इस धरती पर कदम रखते ही राहुल ने उन तमाम कड़वाहटों को दूर कर दिया......जो देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की करीब 57 बर्ष पहले की यात्रा में सामने आई थीं.......लोग पहली ही नज़र में राहुल बाबा के कायल हो गए........याद दिला दें वो दिन जब नेहरू एक मेले में यहां शिरकत करने आये थे......तो मास्टर तारा सिंह समेत अनेक सिख नेताओं ने तत्कालीन केंद्र सरकार के कथित पंजाब विरोधी रवैये को लेकर प्रदर्शन किया था........ इसके बाद से नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य फतेहगढ़ साहिब नहीं पहुंचा था.........लेकिन राहुल गांधी ने फतेगगढ़ पहुंच कर तमाम गिले शिकवों को आखिर दूर ही कर दिया.....लोग राहुल से एक बार हांथ मिलाने को बेचैन थे.....वहीं अमृतसर पहुंचते ही राहुल गांधी ने सोमवार सुबह आम श्रद्धालुओं के साथ स्वर्ण मंदिर में मत्था टेका.......सफेद कुर्ता-पायजामा पहने और पीले रंग का पटका बांधे राहुल ने लंगर भवन की पंगत में बैठकर ‘प्रशादा’ भी ग्रहण किया.........झक सफेद कुर्ते में राहुल महलों के किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहे थे........यहां भी राहुल ने सभी से बेहद आत्मीयता के साथ मिलकर लोगों का दिल जीत लिया.......दोपहर का समय .....जगह अमृतसर का जलियावालां बाग.......वही बाग जिसमें कभी जर्नल डायर के एक आदेश ने देश के कई लोगों को खो दिया था........औऱ इन्ही को याद करना नहीं भूले थे राहुल.........ऐसे ही आगे बढ़ते गया मां सोनिया का दुलारा.....इसी दौरान कुछ पल नौनिहालों के साथ भी बिताये.......जिनसे मिलकर उन्हें अपना बचपन याद आ गया..........आखिर सभी का दिल जीतने आये थे राहुल.....वहां की बस्ती पठाना में राहुल बच्चों के साथ जब मिले तो अपने बचपन की यादों में खो गए.......पहली कक्षा के मनमोहित सिंह से राहुल ने पूछा कि वह पढ़-लिख कर क्या बनेगा, तो जवाब मिला- एअरफोर्स में जाऊंगा........यह सुनकर राहुल मुस्कुरा दिए....... राहुल का तो स्वाभाव ही बच्चों से दोस्ती वाला रहा है...... और शायद यहीं सारी वजह हैं कि लोग पहली ही नजर में राहुल की सादगी के कायल हो जाते हैं ।

गुरुवार, 25 सितंबर 2008

एक ऐसा सच…फिल्म सिटी वालों का


आज मैने कुछ लिखा है
कुछ ऐसा लिखा, जो हर दिन से काफी अलग है
आज मैं लिख बैठा एक ऐसा सच
जो सबको पता है
लेकिन मैं इसे जान ही नहीं पाया
मैं तो ठहरा अदना सा इंसान
दरअसल ये कहानी घूमती है एक बेबस बुढि़या के ऊपर
मैं जब जब फिल्म सिटी खाना खाने जाता हूं...
वो बूढ़ी-लाचार वहीं पर होती है
हमसे और आपसे रोज मिलती है
फिल्म सिटी में अपनी कारें खडी़ करने वालों से भी मिलती है
वो भी अपनी कार से उतर कर
खाने के लिए लाइन में लग जाते हैं
लेकिन कुछ तो अपनी गाड़ी से उतरना भी उचित नहीं समझते
और एसी के आनंद में ही खाने का लुत्फ उठाते हैं
ये वही लोग हैं जो फिल्म सिटी को चलाने का माद्दा रखते हैं
इनसे ही चौबिस घंटे के चैनल सबकी ख़बर लेते हैं
लेकिन उस बुढ़िया की खै़रोख़बर लेने वाला कोई नहीं
एक तो पहले ही वो समाज में अकेली है
दूसरा हम उसे नजरअंदाज कर और अकेला कर देते हैं
हम खाते रहते हैं,...और उसके पास हमें ताकने के सिवा कोई चारा नहीं
हम लेते हैं सबकी ख़बर लेकिन ऊपर वाला लेगा हमारी ख़बर
क्योंकि वो बैठा तो चुपचाप है
लेकिन लिख रहा है सबका लेखा-जोखा
अभी भी वो गुजारा करती है
उन ठेले वालों की........
बची हुई जूठन से
उनमें से एक मैं भी था
जिसने उस बुढ़िया की मजबूरी को नहीं समझा
लेकिन क्या किसी मजबूर से इस तरह की बेरुखी जायज है
यही सवाल अब मैं खुद से भी करता हूं.....अनुपम मिश्रा, फिल्म सिटी

सोमवार, 22 सितंबर 2008

मां का आंचल

आजादी पाने की खातिर हमने उनको धूल चटाई थी
जंजीरो में जकड़ी मां की जब जब याद सताई थी
खून के आंसू रोते भारत ने जब मारा अंग्रेजों को
तब पराधीन स्वाधीन हो गया मां का आंचल पाने को
दो सौ साल लगे हमको, आजादी को पाने को
मां का दामन लहर रहा था, जीत हमारी पाने को
1857 में, हाल बुरा था, भारत का
इसी समय सामना हुआ, अंग्रेजों से मंगल पांडे का
अब इज्जत तार तार करते उन अंग्रेजों की शामत थी
लक्ष्मी बाई थी जब उतरीं वो अंग्रेजों की आफत थीं
ब्रटिश हुकूमत ऐसी थी कि भारत सिसक सिसक कर रोता था
याद सताती जब जब मां की हर हिंदुस्तानी रोता था
दर्द छिपाकर, लहू बहाकर, आंसू के सैलाबों में
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई कूद पड़े मैदानों में
गांधी, भगत, सुभाष, और शेखर, चोला ओढे आजादी का
अंग्रेजों को मार भगाना, अब पेशा था, इन सब का
टूटी सांसे, टूटा घर, दम तोड़ रहा था भारत तब
सोंच रहा था, हर हिंदुस्तानी, आजादी के सपने तब
हिंदुस्तानी धरती पर अबला बलिबेदी चढ़ बैठी थी
हर नारी की आंख में आंसू आजादी जो पानी थी
भूख प्यास सब छोड़ छाड़ कर टूट पड़े अंग्रेजों पर
धधक रही थी आग यहां, आजादी की हर दर पर
लाठी, गोली, गाली खाकर वो न तोड़ सके थे भारत को
माया ऐसी भारत मां की सब कूद पड़े आजादी को
सबका मंदिर, सबकी मस्जिद, गिरिजाघर गुरूद्वारा था
हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई भारत सबको प्यारा था
इसी प्यार और मां की खातिर फिक्र नहीं थी लोगों को
घर से हर कोई था निकला आजादी को पाने को
ख़त्म हुई जब ब्रिटिश हुकूमत जश्न मनाया भारत ने
आजादी पाने की खातिर कुर्बानी दी थी भारत ने
यही हकीकत यही सत्य है, हम एक रहें इस भारत में
न कोई राज कर सके हम पर, स्वाधीन रहें इस भारत में
अनुपम मिश्रा.............

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

१३ सितंबर २००८- वो काला शनिवार

वो शाम कुछ अजीब थी
कुछ ऐसी अजीब शाम
जो आई आंधी की तरह
और उड़ा ले गई सबकुछ
एक तूफां की तरह
वो शनिवार नहीं भूलेगा अब उनको
जिन्होने खो दिया अपनों को
उन धमाकों में
नहीं भूलेगा उन्हें जो ऐसे हो गए
कि अपने को देखेंगे तो रोऐंगे
उनका तो कुछ कसूर भी न था
वो तो हमेशा ही बेवजह मारे जाते हैं
लेकिन अब उस सिमरन का क्या
जिसकी उम्र महज सात साल है
फुटपाथ पर रहती है वो
धमाकों ने छीन लिया है उसके पिता को
उस मासूम से
वो भी उस उम्र में
जिसमें उसे आतंक और धमाकों की चीख भी
शायद सुनाई न दी हो
लेकिन न सुनाई देने वाली वो आवाज
इसे वो दर्द दे गई है
जिसका कराह शायद ही वो कभी भुला पाए
अब उसके घर में एक भाई है एक विकलांग बहन
उसकी विधवा मां और पिता अशोक की बूढ़ी मां
ये सब फुटपाथ पर बिना साए के रहते हैं
अपने बेटे को याद करते हैं
तो आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ता है
इनको तलाश है अपने बेटे की
उस बेटे की जो लगाता तो फेरी था
लेकिन पेट पालता था सभी का
सपने दिखाता था बेटी सिमरन को
स्कूल भेजने की बातें करता था
लेकिन हकीकत ये है
कि वो अब 13 सितंबर 2008 के धमाकों की आग में
जल चुका है, अब सिर्फ उसकी यादें हैं
ऐसे और न जाने कितने अशोक होंगें
जो फुटपाथ पर अपने परिवार का पेट पालते हैं
लेकिन इसी तरह आतंक उन्हे लील जाता है
बचता उनका परिवार है
जिसको ये दुखदाई दुनिया
दर्द और तानों के सिवा कुछ नहीं दे पाती
अब अशोक के परिवार को अदद जरूरत है
रोजी रोटी की, एक अदद भविष्य की
जहां से वो काला शनिवार भुला सकें
मेरी गुजारिश है आपसे
कहीं भी अगर अशोक का परिवार मिल जाए
तो कम कम से कम
उनकी इतनी मदद जरूर कीजिएगा
कि वो काला शनिवार भुला पाएं
आपसे मिलने के बाद....अनुपम मिश्रा

बुधवार, 3 सितंबर 2008

रास्ते का पत्थर......

सोंचा नहीं था कि रास्ते में कुछ आ जायेगा
लेकिन आ ही गया...
साला रास्ते में, वो पत्थर
मुश्किल ये थी कि हटाऊं कैसे
आखिर मनुष्य जो हूं...
लोगों को हटाने की सोंच सकता हूं
लेकिन एक पत्थर को हटाने में जान निकल जाती है...
हुआ वही मैं गिर गया ठोकर उस पत्थर की खाकर
फिर भी नहीं हटाया
सोंचा मैं क्यों हटाऊं जब और भी है इस दुनिया में
सोंच तो दुनिया के बारे में रहा था
लेकिन ये बात नहीं सोंच पाया कि इस दुनिया में एक मासूम मै भी हूं
और लग गया इंतजार करने कि कोई आकर उठा देगा वो पत्थर
इंतजार करता गया- इंतजार करता गया
लेकिन कोई दूसरी दुनिया से नहीं आने वाला था
दरअसल वो पत्थर हमी को हटाना था...
इसलिये रास्ते के पत्थर को हमेशा हटा देना बिना किसी का इंतज़ार किये...

अब बस करो कोसी मां.....

आज दुख होता है जब बिहार का जिक्र ज़ुवां पे आता है....कोसी ने इतने दुख दिये हैं बिहार को...चारों ओर सिर्फ तबाही ही तबाही का मंज़र दिखाई देता है...मधेपुरा, सुपौल, पूर्णिया, को लील चुकी है कोसी...आस नज़र नहीं आती कहीं अब जीवन की...शमशान सा सन्नाटा पसरा है चारों ओर...जो पानी कभी जीवन की डोर को लंबाई देता नज़र आता था वही पानी अब उस डोर को छोटा करने पर उतारू है...न जाने क्या ग़लती हो गई बिहार से...हम आज उस मंज़र को बयां तो नहीं कर सकते लेकिन थोड़ा सा महसूस जरूर कर सकते हैं...यकीन मानिये मैं वो दर्द लिखते हुए भी बयां नहीं कर पा रहा...जल, जंगल, जमीन, और जीवन को ख़त्म करने में लगी हुई ये कालिंदी और न जाने कितनों के घरों के उजाड़ेगी, कितनों को यतीम करेगी, और कितनों को बेवा करेगी...तबाही का मंजर ऐसा है हर तरफ कि बेज़ुबां जानवर भी सहमे सहमे नज़र आते हैं...लगता है कि वो ये बात कहना चाहते हों कि जिस पानी को वो चारा खाने के बाद पिया करते थे आज वो पानी इतना बेरहम कैसे हो गया...लोग कहने को मजबूर हो गए हैं कि कोसी मां अब बस करो...अब बहुत हो चुका...

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

डेफिनिशन ऑफ़ जर्नलिस्ट

लोकतंत्र का इक, अभिन्न अंग है, पत्रकार। नाम कलम से, काम कलम से, है ,युग निर्माता पत्रकार।हिंसा और आतंक मिटाने की,चेष्ठा है पत्रकार।घटनाओं का आंखों देखा,लेख है, लिखता पत्रकार।जन-जन तक ख़बरें पहुंचाकर,दायित्व निभाता पत्रकार।दिखता नही सुबह का सूरज,फिर कलम पकड़ता पत्रकार।अविलम्बित ये मानव ऐसा ,बेबाक टिप्पणी पत्रकार।ये भी एक विडम्बना है, आतंकित है पत्रकार।हो जाए चाहे जो कुछ भी,पर निडर व्यक्ति है पत्रकार।समय अनिश्चित, कार्य अनिश्चित,पर निश्चित है, पत्रकार।एक सिपाही बंदूको, से एक सिपाही कमलकार,लोकतंत्र का पत्रकार, ये लोकतंत्र का पत्रकार।