मंगलवार, 16 सितंबर 2008

१३ सितंबर २००८- वो काला शनिवार

वो शाम कुछ अजीब थी
कुछ ऐसी अजीब शाम
जो आई आंधी की तरह
और उड़ा ले गई सबकुछ
एक तूफां की तरह
वो शनिवार नहीं भूलेगा अब उनको
जिन्होने खो दिया अपनों को
उन धमाकों में
नहीं भूलेगा उन्हें जो ऐसे हो गए
कि अपने को देखेंगे तो रोऐंगे
उनका तो कुछ कसूर भी न था
वो तो हमेशा ही बेवजह मारे जाते हैं
लेकिन अब उस सिमरन का क्या
जिसकी उम्र महज सात साल है
फुटपाथ पर रहती है वो
धमाकों ने छीन लिया है उसके पिता को
उस मासूम से
वो भी उस उम्र में
जिसमें उसे आतंक और धमाकों की चीख भी
शायद सुनाई न दी हो
लेकिन न सुनाई देने वाली वो आवाज
इसे वो दर्द दे गई है
जिसका कराह शायद ही वो कभी भुला पाए
अब उसके घर में एक भाई है एक विकलांग बहन
उसकी विधवा मां और पिता अशोक की बूढ़ी मां
ये सब फुटपाथ पर बिना साए के रहते हैं
अपने बेटे को याद करते हैं
तो आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ता है
इनको तलाश है अपने बेटे की
उस बेटे की जो लगाता तो फेरी था
लेकिन पेट पालता था सभी का
सपने दिखाता था बेटी सिमरन को
स्कूल भेजने की बातें करता था
लेकिन हकीकत ये है
कि वो अब 13 सितंबर 2008 के धमाकों की आग में
जल चुका है, अब सिर्फ उसकी यादें हैं
ऐसे और न जाने कितने अशोक होंगें
जो फुटपाथ पर अपने परिवार का पेट पालते हैं
लेकिन इसी तरह आतंक उन्हे लील जाता है
बचता उनका परिवार है
जिसको ये दुखदाई दुनिया
दर्द और तानों के सिवा कुछ नहीं दे पाती
अब अशोक के परिवार को अदद जरूरत है
रोजी रोटी की, एक अदद भविष्य की
जहां से वो काला शनिवार भुला सकें
मेरी गुजारिश है आपसे
कहीं भी अगर अशोक का परिवार मिल जाए
तो कम कम से कम
उनकी इतनी मदद जरूर कीजिएगा
कि वो काला शनिवार भुला पाएं
आपसे मिलने के बाद....अनुपम मिश्रा

2 टिप्‍पणियां:

मधुकर राजपूत ने कहा…

बड़े ही दारुण अंदाज में बयान किया है आपने इस हादसे को। सुनकर मन सोचने पर मजबूर हो गया। एक और गुजारिश कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें।

मधुकर राजपूत ने कहा…

अनुपम जी आप सही कह रहे हैं कि न्यूटन के नियम के मुताबिक गरदन तो सीधी करनी पड़ेगी ही, लेकिन अब तो चांद पर भी दुनिया बसने को है। बस वहीं एक प्लॉट तलाश रहा हूं। वल्लाह चांद पर मेरा घर। हा हा हा......