गुरुवार, 25 सितंबर 2008

एक ऐसा सच…फिल्म सिटी वालों का


आज मैने कुछ लिखा है
कुछ ऐसा लिखा, जो हर दिन से काफी अलग है
आज मैं लिख बैठा एक ऐसा सच
जो सबको पता है
लेकिन मैं इसे जान ही नहीं पाया
मैं तो ठहरा अदना सा इंसान
दरअसल ये कहानी घूमती है एक बेबस बुढि़या के ऊपर
मैं जब जब फिल्म सिटी खाना खाने जाता हूं...
वो बूढ़ी-लाचार वहीं पर होती है
हमसे और आपसे रोज मिलती है
फिल्म सिटी में अपनी कारें खडी़ करने वालों से भी मिलती है
वो भी अपनी कार से उतर कर
खाने के लिए लाइन में लग जाते हैं
लेकिन कुछ तो अपनी गाड़ी से उतरना भी उचित नहीं समझते
और एसी के आनंद में ही खाने का लुत्फ उठाते हैं
ये वही लोग हैं जो फिल्म सिटी को चलाने का माद्दा रखते हैं
इनसे ही चौबिस घंटे के चैनल सबकी ख़बर लेते हैं
लेकिन उस बुढ़िया की खै़रोख़बर लेने वाला कोई नहीं
एक तो पहले ही वो समाज में अकेली है
दूसरा हम उसे नजरअंदाज कर और अकेला कर देते हैं
हम खाते रहते हैं,...और उसके पास हमें ताकने के सिवा कोई चारा नहीं
हम लेते हैं सबकी ख़बर लेकिन ऊपर वाला लेगा हमारी ख़बर
क्योंकि वो बैठा तो चुपचाप है
लेकिन लिख रहा है सबका लेखा-जोखा
अभी भी वो गुजारा करती है
उन ठेले वालों की........
बची हुई जूठन से
उनमें से एक मैं भी था
जिसने उस बुढ़िया की मजबूरी को नहीं समझा
लेकिन क्या किसी मजबूर से इस तरह की बेरुखी जायज है
यही सवाल अब मैं खुद से भी करता हूं.....अनुपम मिश्रा, फिल्म सिटी

1 टिप्पणी:

मधुकर राजपूत ने कहा…

महाराज, वो 300 रुपये रोज की दिहाड़ी कमाती है। कहां हो, आदत हो चुकी है उसे मांग कर खाने की। इसलिए भूल जाओ कि उसे करोड़ों की अनुदान राशि मिले तो वो मांगना छोड़ देगी। इनकी नियति कहो या मजबूरी ये नहीं छोड़ने वाले सर।