रविवार, 30 दिसंबर 2012

बढ़िए कुछ और आगे...

ज़िंदगी के रंगमंच के एक और नाटक का पटाक्षेप हो रहा है। नए साल के साथ नयी पटकथा शुरु हो रही है। आशाए, अभिलाषाएं, उम्मीदें, वादे, घर, परिवार, दोस्ती, यारी, सभी के लिए ये वक्त नया है। अतीत पीछे छूटने दीजिए। भविष्य की डोर थामिये। भूलिए मत भूत में क्या हुआ। भविष्य में क्या करना है, ये ज़हन में बसाइये। इस बार एक बुनियाद बनाइये। जिसमें सच का सीमेंट हो। ईमानदारी का लोहा हो। एहसासों की ईंट हो। यदि ऐसा कर सके, तो उस पर बनने वाली इमारत सच्चे दोस्त सी होगी। जिसमें आप अपना हर सुख अपना हर दुख बांट सकेंगे। इस नेपथ्य से बाहर निकलिए। अंधेरे की जगह, रोशनी को दीजिए। ये सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेगी। अभिनय देखने से बेहतर अब ये है, कि अभिनय के मकसद को खुद में बसा लीजिए। दर्शक दीर्घा में अब आपकी जगह नहीं। आप मंच पर होने चाहिए। न्यूटन बनिए। नेपोलियन बनिए। असफलताओं से सीख लेने वाले लिंकन बनिए। हिंसा हल नहीं। अहिंसा रास्ता है। आगे बढ़िए। ज़िंदगी कांटों की सेज है तो क्या। इसी पर चलने वाले पांव घायल करके भी मुकाम तक पहुंचते हैं। गिरिए। संभलिए। उठिए। निढाल न होने दीजिए। क्योंकि आपकी सुस्ती दुश्मनों को मौका देती है। अगर गलतियां की। तो पश्चाताप कीजिए। प्रायश्चित पापों का निर्वाण है। प्रेमचंद से सीखिए। मुक्तिबोध से सीखिए। दिनकर से सीखिए। मधुशाला वाले हरिवंश से सीखिए। पर सतत् सीखने का प्रयास कीजिए। कोई भी छोटा, बड़ा संदेश दे सकता है।उम्र ज्ञान का पैमाना नहीं होती। तरक्की के रास्ते खुद तय कीजिए। सहारे की आस में अक्सर लोग बेसहारा हो जाते हैं। मदद मुहताज बना देती है। आप निरंतर चलेंगे तो मंज़िल को पाएंगे। आप थक जाएंगे तो रुक जाएंगे। ज़िंदगी का दर्शनशास्त्र हमें यही सिखाता है। बढ़िए कुछ और आगे । बाधाओं और बंदिशों के पार। इसी एहसास के साथ आपको नये साल की हार्दिक शुभकामनाएं। आप खुश रहें। लोग आपसे खुश रहें।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

कहीं अंधेरे, कहीं उजाले

छन्नू की गरीबी उपहास का विषय नहीं थी । सोचने का विषय थी। हर किसी को खुश रखना उसकी आदत थी ।वो कब सोता। कब जागता। कब भूखा रहता । न सरकार ने कभी जाना न ही करीबियों ने । तीन बेटियां, और कई साल बाद पैदा हुआ एक चार साल का लड़का ‘बदरु’ उसके घर का चिराग था। वो उस अंधेरी झोपड़ी में भी खुश था, जिसमें टीन की छांव छत की तरह थी, दरवाज़े के नाम पर लकड़ियों का जाल, और दीवारें गोबर से लीप कर बनाई गई थीं। घर में चूल्हा हर रोज़ जले, इसलिए वो महीने के तीसों दिन काम पर जाता, दिहाड़ी मजदूर होने का दंभ उसमें साफ दिखता था। क्योंकि उसको कभी किसी के सामने हाथ फैलाते नहीं देखा गया। मुनिया, बिट्टी, डिबिया और बदरु को वो बेइंतेहां प्यार करता था। जो कि किसी अपवाद सा था, क्योंकि तीन लड़कियों को उतना प्यार नहीं मिलता जितना एक लड़के को। उसे पिता होने का फर्ज़ पता था, क्योंकि बदरु के जन्म के वक्त उसकी बीवी भगवान को प्यारी हो गई थी। वो भी इसलिए कि छन्नू अपनी गर्भवती पत्नी का सहीं तरीके से ख्याल न रख सका था। बदरु, छन्नू की बीवी की आखिरी निशानी था। लेकिन इतने पर भी छन्नू अपने चारों बच्चों को समान प्यार देने की कोशिश करता। सरकारी योजनाओं की दस्तक छन्नू के दरवाज़े पर कभी नहीं हो सकी थी। इस बात को उसने शिकायत के रुप में स्थानीय प्रशासन को कई बार बताया था। लेकिन बहरी हुकूमत में सुनने वाला कौन? किसी ने उसके उस अंधेरे संसार में झांकने की कोशिश नहीं की, जिस संसार में सिर्फ उसकी किराये की झोपड़ी, और चार संतानें शामिल थीं। इसलिए हर योजना से बेफिक्र होकर उसने खुद को मजबूत बना लिया था, और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था। जिनकी खुदी बुलंद हो, खुदा उनसे पूछते हैं उनकी रज़ाओं के बारे मे। परंतु यहां तो खुदा को भी याद नहीं रहा, कि एक छन्नू भी है, जो भूखा सो जाता है कई बार, अपनी संतान के मुख में निवाला देखने के लिए। छन्नू का वक्त उजाले में रहने वालों कीं तरह नहीं बीतता था। हाड़ तोड़ मेहनत और रोटी की जुगाड़ ही उसकी ज़िंदगी का मकसद था। ज़िंदगी के संघर्षों के बावजूद छन्नू टूटा कभी न था। क्योंकि वो जानता था, अगर वो ही हार गया, तो उसकी तीन जवान बेटियां, और एक कुछ सालों का बेटा कहां जाएंगे, क्या खाएंगे, क्या रात को ओढ़ेंगे, बरसात में कौन उनकी छत बनेगा। ऐसे कई सवालों की ज़िम्मेदारी उसके दिल पर बोझ तो थी, परंतु अपनी संतानों के सामने उसने ये बोझ ज़ाहिर न होने दिया। इसलिए वो हर रोज़ कमा लेता, और हर रोज़ अपने बच्चों को खिला देता, कभी कभी उसकी मेहनत उसके ऊपर भी इनायत हो जाया करती, जब छन्नू अपना पेट भी जमकर भरता । यही तो थी छन्नू की ज़िंदगी की नियति। कोठियों से सौ मीटर की दूरी पर मौजूद उसकी झोपड़ी में किसी त्योहार को रंगत न आती। जब हर घर जगमगाता, तब उसकी झोपड़ी एक दीये को भी तरस जाती। लेकिन बोतल में भरा मिट्टी का तेल, और लोहे की डिब्बी में बनी उजाले की जुगाड़ उसके घर को रोशन कर देती थी अक्सर। वो इसी मंद रोशनी में खुश था। 11 हज़ार बोल्ट बिजली की लाइन उसकी झोपड़ी के कई मीटर ऊपर से गुज़री तो थी, लेकिन उन घरों में गई थी, जो बिजली के बिल का भार सह सकते थे। वो आधुनिक युग में आदिम ज़िंदगी सिर्फ इसलिए जी रहा था, क्योंकि हमारी व्यवस्था में खामियों के लाख पैबंद थे। जिनको सरकार ने रफू करने की ज़हमत भी कभी न उठाई।
एक रोज़ छन्नू बीमार पड़ गया। वो बारिश का महीना था, और शायद छन्नू के परिवार के लिए मातम का महीना भी। क्योंकि उसकी बीवी, और उसकी एक संतान, जिसका ज़िक्र अभी तक मैने नहीं किया, इसी बारिश के महीने में काल के गाल में समा गई थी। इसी महीने में छन्नू की संतान को दिमागी बुखार हुआ था, वो अपनी संतान का महंगा इलाज न करा सका था, इसलिए उसका दूसरा बेटा ‘उजीता’ 6 साल पहले स्वर्ग सिधार गया था। और आज वही हालात छन्नू के सामने खुद थे। वो बीमार था। इलाज कराने वाला कोई नहीं। इकलौता कमाने वाला था, तो वो छन्नू ही था। उसका इलाज कौन कराता। वो कई दिन बिस्तर पर पड़ा रहा, अपनी सेहत के दुरुस्त होने का इंतज़ार करता रहा। क्योंकि अभी भी उसने एक एक रुपया कर कुछ पैसे बचा रखे थे हारी बीमारी के लिए। इन्हीं पैसों के ज़रिए वो अपना इलाज नीम हकीम से करवा रहा था। इसी दौरान उसने अपनी दो बेटियों मुन्नी और बिट्टी को अपनी जगह काम पर भेज दिया, ताकि कुछ पैसे और आ सकें, घर का चूल्हा फिर से जल सके। मुन्नी और बिट्टी इस योग्य नहीं थीं, कि छन्नू की जगह काम कर सकती थीं, वैसे सरकारी नियम भी इस बात की इजाज़त नहीं देते कि कोई बाल श्रम करे। इस बात का न तो उन बच्चियों को इल्म था, और न ही छन्नू अपनी मुफलिसी में ये बातें मुन्नी और बिट्टी को सिखा सका था। गरीबी गुनहगार नहीं फिर भी गरीबों की मजबूरियां गुनाह करवाती है। छन्नू से भी वही गुनाह हुआ अपनी बीमारी के दौरान। एक NGO की नज़र उन मुन्नी और बिट्टी पर पड़ी, जिन्होंने उस बचपन को बिखरने से तो रोक लिया, लेकिन छन्नू की झोपड़ी तक वो NGO दस्तक न दे सकी। धीरे धीरे वक्त हाथों से खिसक रहा था। छन्नू बिस्तर से अभी तक न उठ सका था। वो जानता था कि जिस संगठन ने उसकी बेटियों को साथ न्याय किया है, असल में वही न्याय उसकी ज़िंदगी के साथ अन्याय बन गया था। क्योंकि ज़िम्मेदारी जब अधूरी हो, तो मकसद भी अंजाम तक नहीं पहुंचते। इलाज के अभाव में छन्नू की हालत बिगड़ने लगी थी, उसका अब तक कोई रहबर उसके सामने न था, और एक दिन वो हुआ जैसा भूख से जूझते, बीमारियों से लड़ते हर इंसान का होता है। छन्नू अपनी बीमारी की वजह से ज़िंदगी हार गया था, उसने गेहूं के खाली डिब्बे में रखी सल्फास को निकाल लिया, और खुद अपने पूरे परिवार को खाने में मिलाकर दे दिया। वो भोर उस झोपड़ी के लिए मातम भरी थी। रोने वाला कोई नहीं लेकिन पांच लाशें उस झोपड़ी में पड़ी थी। छन्नू, मुनिया, बिट्टी, डिबिया, और बदरु मौत की नींद सो चुके थे। उस झोपड़ी से जब शवों की सड़ांध बाहर आने लगी, तब लोगों को अहसास हुआ कि इस झोपड़ी में पांच मौतें एक साथ हो गईं। सभी की संवेदनाएं उन मौतों के साथ थीं। चंदा किया गया। अर्थी का इंतज़ाम किया गया। और सौ मीटर दूर मौजूद उस उजाले की दुनिया ने उस अंधेरी दुनिया का दाह संस्कार कर दिया। ये इत्तेफाक नहीं, हमारी व्यवस्था की हकीकत है, हमारे समाज की सच्चाई है। कहीं अंधेरे । कहीं उजाले।

रविवार, 9 सितंबर 2012

स्टेशन पर ही ठहर गई मुहब्बत

हमारे और उसके बीच में फासला था, तो बस एक चिलमन का। वो लंबे गेसुओं के बीच बनी खिड़कियों से मुझे देखती, मैं देख कर भी नज़र अंदाज़ करता रहता। यही दूरी हमारी मुहब्बत को और करीब लाती रही, पर अहसासों की मुंडेर पर प्यार का कबूतर तो उस रोज़ बैठा था, जिस रोज़ मैने उसे खुद से दूर जाते देखा। वो अपने घर जाने की बात कह कर मुझसे विदा ले रही थी। मानो कुछ छूट रहा था । उसके दिल का हाल तो जानता था, पर खुद बयां करने से डरता था। जैसे जैसे उसके कदम गली के मुहाने की ओर बढ़ रहे थे। वैसे वैसे दिल की कसमसाहट और तेज़ हो रही थी। सोच रहा था, उसको स्टेशन छोड़ने के बहाने साथ चला जाऊं। परंतु रिश्तेदारों की लोकलाज का भय ज़हन में नश्तर सा उतर जाता। मैने उसको स्टेशन तक छोड़ने की रस्मअदायगी को त्याग दिया, और वहीं दरवाज़े से करीब खड़ा खड़ा उसके गली से गुज़रने वाले आखिरी कदम को निहारता रहा। धीरे धीरे वो आँखों से ओझल हो रही थी। मेरी जुस्तजू उसका पीछा कर रही थी। ये उसका आखिरी कदम था, उस लंबी सी गली में, जिसने मुझे इस बात का अससास करा दिया, प्रेम बागावत का पौधा होता है। जिसमें जज़्बातों के पुष्प तो खिलते हैं, लेकिन उस पुष्प के इर्द गिर्द सामाजिक अस्वीकृति के कांटे होते हैं। कैसे बदलता उस अस्वीकृति को स्वीकृति की सच्चाई में ? मैं बागी बन गया, आव और ताव को बंधनों से मुक्त कर निकल पड़ा बंदिशों के पाऱ। दौड़ गया बंदूक से निकली गोली के मानिंद। इस आस में कि कहीं उसने स्टेशन की ओर जाने वाले ऑटो को अभी नहीं किया होगा, क्योंकि गली के मुहाने पर मौजूद मंदिर में वो हर रोज़ माथा टेका करती थी। न जाने उसे ईश्वर में कितनी आस्था थी, क्योंकि उसकी दिन चर्या को पिछले कई बर्षों से मैं अपने दिल की किताब में लिखता आया था। मैं अब गली के आखिरी छोर पर पहुंच गया था, जहां मैने उसके आखिरी कदम को देखा था। बायें देखने के पश्चात मुझे ज्ञात हुआ, कि वो अभी मंदिर में ही है, उसने अपना बैग मंदिर के करीब पड़े तखत पर रख रखा था। शायद उसे भी इस बात का अहसास था, कि वो आएगा और मेरे लिए स्टेशन तक जाने वाले कुली का काम कर सकता है। मैं उसके मंदिर से निकलने का इंतज़ार करने लगा। मंदिर के चारो ओर फेरे लगाकर उसने बैग को उठाया, और अपनी नज़रें मुझ पर इनायत कीं, एक सवाल के साथ ? नंदू तुम यहां ? मै घबरा कर बोला, घर में खाली बैठा बोर हो रहा था, क्या तुम्हें स्टेशन तक छोड़ दूं, यदि एतराज़ न हो ? मेरे सवाल में ही उसकी हामी का जवाब छिपा था, वो बोली हां चलो कुछ साथ मिल जाएगा। मैं उसके जवाब का उन छणिक सेकेंडों में बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। उसकी स्वीकृति मेरे लिए संजीवनी का काम कर गई, मैने ऑटो किया स्टेशन की ओर। उसका बैग ऑटो की पिछली सीट पर रखा और हम दोनों स्टेशन की ओर रवाना हो गए। उस ऑटो में भी दूसरे ऑटो की तरह एक आईना लगा था, जिससे प्राय : हम दोनों एक दूसरे को निहार रहे थे। वो पड़ोस में बैठी थी, फिर भी कोई बात नहीं, ये पहला मौका था, उसके करीब बैठने का। इसीलिए शायद दिल की घबराहट ने ज़ुबान पर ताला जड़ दिया था। लेकिन आइने के ज़रिये आंखें लगातार बातें और सवाल कर रही थीं। जब मैं उससे ऩजरें चुराता, तब वो मुझे देखती, और जब वो मुझे नज़रअंदाज़ करती, तब मैं उसे देखता। यही सिलसिला कई मिनटों तक चलता रहा। कि अचानक दिल भी बगावत पर उतर आया, मैने पूछा, कितने दिन के लिए घर जा रही हो। वो बोली गर्मियों की छुट्टियां हैं, सब लोग घर पर आये हैं, इसलिए एक महीने का टूर है। उसका एक महीने का टूर मानों मेरे ह्दय की वेदना बन गया। मैं उससे इसके बाद एक भी सवाल पूछ न सका। स्तब्ध होकर ऑटो में तब तक बैठा रहा, जब तक स्टेशन नहीं आ गया। इस दौरान उसने भी मुझसे कुछ नहीं पूछा। मेरा एक सवाल शायद आखिरी सवाल बन गया था। स्टेशन आ गया था, हम दोनों ऑटो से उतर चुके थे। उसने पहले ही अपने गंतव्य का रिज़र्वेशन करा लिया था। इसलिए बिना रुके, हम लोग स्टेशन की सीढ़ियों पर आगे बढ़ने लगे। प्लेट फॉर्म नंबर चार पर उसकी ट्रेन आने वाली थी। पर ट्रेन आने में अभी बीस मिनट का वक्त था। सरकारी व्यवस्था की खामी मेरे लिए मुहब्बत का क्लाईमेक्स बन गई थी। ट्रेन बीस मिनट की जगह दो घंटे लेट हो चुकी थी। क्योंकि स्टेशन पर उद्घोष हुआ था, कि शिमला को जाने वाली कालका एक्सप्रेस दो घंटे लेट है, और इस देरी के लिए रेलवे सभी से क्षमा भी मांग रहा था। हम लोग स्टेशन पर खाली सीट तलाशने लगे, लेकिन हर सीट भरी हुई थी, इसलिए मैने फैसला किया कि हम उस ट्रेन में बैठ जाते हैं तब तक, जो एक दम खाली थी, और कुछ घंटों तक स्टेशन पर ही खड़ी रहने वाली थी। शायद मौका और दस्तूर दोनों ही मेरे साथ थे। मुझे अब मुहब्बत के उस बागी चेहरे पर प्यार आ रहा था। मुझे बगावत का वो फैसला सही लगने लगा था। हम दोनों उस ट्रेन में खिड़की के करीब वाली सीट पर आमने सामने बैठ गये, और स्टेशन परिसर पर दौड़ने वाली भीड़ को निहारने लगे। कई मिनटों तक हमारे बीच संवादों की कोई लहर पैदा न हो सकी। लेकिन दिल को इस बात की दस्तक मिल चुकी थी, कि वही कुछ बोलेगी । मेरा कयास सही था, करीब 17 मिनट बाद उसके होठों पर हरकत हुई, एक सवाल के रुप में। नंदू तुम बता कर तो आए हो ना कि कहां जा रहे हो ? उसकी जिज्ञासा को मैने नहीं के जवाब से तोड़ दिया। उसने फिर पूछा घर पर कोई तुम्हें ढूंढेगा तो नहीं ? मैने कहा नहीं आज संडे है ना घर पर पता होगा कि मैं किसी दोस्त के यहां गया हूं। अच्छा। ठीक है, और बताओ सब कैसा चल रहा है। मैने कहा सब ठीक है। और तुम बताओ आज बहुत खुश होगी ना, घर जा रही हो एक महीने के लिए। उसने मेरे इस सवाल का जवाब अपनी मुस्कुराहट के साथ दिया। इसी बीच मैने कहा कि मैं एक मैगज़ीन लेकर आता हूं, और कुछ खाने का सामान भी, तुम यहां से हिलना मत, और अगर ये ट्रेन स्टेशन से रवाना होने लगे तो पहले ही नीचे उतर जाना इससे पहले की ट्रेन स्पीड पकड़ ले। उसने मुस्कुराते हुए कहा अच्छा बाबा ठीक है। मैं सारा सामान लेकर आ चुका था। ट्रेन चली नहीं थी, वो उसी सीट के पड़ोस की खिड़की पर अपना सिर टिका कर बैठी शायद मेरा इंतज़ार कर रही थी। बोगी में मेरी मौजूदगी की आहट ने उसकी खामोशियों को तोड़ दिया, वो बोली आ गए तुम बड़ी देर लगा दी। मैने कहा काफी भीड़ थी इसलिए देर हो गई। मैने मैगज़ीन के पन्ने पलटना शुरु कर दिये, और उसके हाथों में चिप्स और कोल्ड ड्रिंग की बोतल थमा दी। अब उसके ऊपर ही ज़िम्मेदारी थी, चिप्स का पैकेट और कोल्ड ड्रिंक की बोतल खोलने की। शीघ्र ही उसने मुझे प्लास्टिक के गिलास में कोल्ड ड्रिंक दी, और चिप्स अपने हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिये। मैने मैगज़ीन बंद कर दी। और उस हसीन लम्हे का स्वाद लेने लगा। ट्रेन आने में अभी भी करीब 45 मिनट का वक्त था। कि उसने पूछा, नंदू और क्या प्लान है भविष्य का। मैने अजीब अंदाज़ में जवाब दिया, कहा हुइहे वही जो राम रचि राखा। बेनूर ज़िंदगी में किसी नूर का इंतज़ार है। उसने कहा, कम बोलते हो, लेकिन बड़ा गहरा बोलते हो। उसकी बात का जवाब इस बार मैने भी अपनी मुस्कुराहट से दिया था। क्या नूर घर वालों ने तलाशा नहीं तुम्हारे लिये, मैने कहा कितनी ज़िम्मेदारियां संभालेंगे वो, कुछ काम तो मुझे भी खुद से ही करना है। तो तुम ही तलाश लो अपनी नूरी को। कोई पसंद है क्या, उसने पूछा ? मैने कहा हां पसंद तो है, पर डरता हूं, कहीं वो मुझसे दूर न चली जाये, इसलिए इज़हार से भी डरता हूं। अच्छा ये बात है, मुझे बताओ मैं तुम्हारी दोस्ती करा दूंगी। वो नादान नहीं थी, सब कुछ जानते हुए भी मुझसे कबुलवाना चाहती थी। लेकिन मैं भी ढीठ था, मैने कहा तुम दोस्ती करा सकोगी, क्या तुमको अपने ऊपर इतना भरोसा है ? उसने कहा, आजमा कर देख लो, काम न आ सकी तो कहना । मैने मुस्कुराते हुए कहा ठीक है, वक्त आने पर तुम्हारी मदद लूंगा। अब मेरी बारी थी, मैने पूछा तुमने क्या विचार किया है अपने भविष्य के बारे में, पढ़ाई वगैरा तो खत्म हो गई, अब तो जॉब भी लगने वाली है तुम्हारी। उसने कहा हां, ये तो है, मैं भी कुछ कुछ तुम्हारी तरह ही सोचती हूं, मैं भी सोच रही हूं, कि तुम्हारी तरह किसी को अपनी आंखों का नूर बना लूं। मैने उत्सुकता से कहा, फिर देर किस बात की। लोहा गरम है मार दो हथौड़ा। वो इस बात पर बहुत ज़ोर से हंसी, और बोली तुम भी ना। मैने कहा इसमें हंसने की क्या बात है, जो तुमको हो पसंद वही बात कहेगा, तुम दिन को कहो रात तो रात कहेगा। वो बोली क्या बात है, साथी हो तो ऐसा ही हो। कुछ मैं उसको समझूं, कुछ वो मुझको समझे, हम दोनों एक दूसरे को समझें, और बस ज़िंदगी रफ्तार पकड़ ले। मैने कहा देखा संगत का असर तुम भी साहित्यिक हो गईं ना। इसी बीच हमारे संवादों में तब खलल पड़ा, जब इस बात का रेलवे स्टेशन पर उद्घोष हुआ, कि ट्रेन आने वाली है। अब मेरे विचार अचानक तूफान पर सवार हो गए थे, क्योंकि मुझे अपने दिल की बात को जल्द से जल्द उस तक पहुंचाना था। मैने कहा एक बात बताओ तुमने कभी अपने आस पास किसी को पसंद किया, या तुमको कोई अच्छा लगता है। उसने कहा हां अनुपम(इस बार उसने मेरा स्कूल वाला नाम लिया था)। मैने पूछा किसको ? उसने मेरे सवाल का जवाब अपनी खामोशियों से दिया, पलकें झुका कर। इसी बीच स्टेशन पर एक बार फिर ट्रेन के आने की सूचना दी गई। हम दोनों जल्दबाज़ी में ट्रेन की बोगी से नीचे उतरे और प्लेटफॉर्म नंबर चार की ओर अपने कदम बढ़ाने लगे। ट्रेन स्टेशन परिसर में दाखिल हो चुकी थी, हम ट्रेन के रुकने का इंतज़ार कर रहे थे। मैं बेचैनी के साथ बी-2 बोगी पर नज़रें टिकाये हुआ था। कमोबेश बी-2 वहीं पर था, जहां पर हम दोनों खड़े थे। मैने उसको ट्रेन के भीतर बैठाया। और कुछ देर के लिए उसके पास बैठ गया, ट्रेन में कुछ ही लोग सफर कर रहे थे। मैने सोचा अब नहीं कह सका, तो शायद कभी न कह पाऊंगा अपने दिल की बात। मैने उससे बड़ी ही शालीनता से पूछा, तुम्हें मैं कैसा लगता हूं ? उसने कहा तुम्हारे इस सवाल का जवाब मैं तुम्हें पहले दे चुकी हूं, चुप रहकर। कुछ बातें बताने की नहीं, महसूस करने की होती हैं। उसका ये जवाब मेरे लिए सकारात्मक था। मैने कहा क्या तुम मुझसे जीवन पर्यंत जुड़ना चाहोगी। इस सवाल पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। न ही उसकी चुप्पी से मुझे इस बार कोई जवाब मिला। ट्रेन स्टेशन से रेंगने लगी थी। मैने कहा खैर कोई बात नहीं अब तुम अपने घर जाओ और एक महीना आराम से बिताना। मुझे इंतज़ार रहेगा अपने आखिरी सवाल के जवाब का। उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया, मैने भी अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया। कुछ सेकेंड के लिए हम दोनों भूल चुके थे, कि आखिर हम कौन सा पल जी रहे हैं। ट्रेन रफ्तार पकड़ने वाली थी, मुझे ट्रेन से उतरना था, पर दिल नहीं मान रहा था। लेकिन ट्रेन से उतरना मेरी मजबूरी बन गया था। अब हम दोनों का हाथ एक दूसरे से अलग था, मैं ट्रेन से नीचे उतर चुका था। वो कांच की खिड़कियों से अभी भी अपना हाथ मेरी ओर हिला रही थी। मेरा भी हाथ उसको विदा कर रहा था। ये वक्त बिछड़ने का था। और बदकिस्मती से स्टेशन पर ठहरी मुहब्बत ने अपना दम तोड़ दिया। कई साल हो गये उससे बात किये। अब न उसका कोई ख़त आता है, न ही कोई फोन। मैं भी काफी व्यस्त हो चुका हूं। उसको भूल चुका हूं। चिलमन का वो फासला इतना दूर हो जाएगा सोचा न था। शायद कुछ फासले, दूरियों के लिये ही बनते हैं। जो वक्त के साथ बढ़ती जाती हैं।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

कॉरपोरेट बालाएं, कॉरपोरेट बॉस, मामला बिंदास

बाला के लक्षण कैसे भी हों। अगर बॉस के इर्दगिर्द घूमना सीख लिया। तो समझिए बॉस भी खुश और लड़की भी। तरक्की पसंद बालाए, और बाला पसंद बॉस कॉरपोरेट युग के आदर्श हैं। बाला काम और कपड़ों के प्रति संजीदा न हों, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर बॉस के इर्दगिर्द लट्टू सी घूमना जानती हैं, तो उनमें न कोई कमी न कोई खामी। इसी उद्योग में कुछ दूसरी बालाएं भी हैं। पर कम। जो स्वभाव से उग्र हैं। उनमें ज़िम्मेदारियां निभाने की आग है। कपड़े भी शालीन हैं। ज़ुबान से काम की तेजी झलकती है। लेकिन बॉस के केबिन से दूर ही रहती हैं। तो ऐसी लड़कियां न अपने बॉस के लिए खुशी का कारण बनती हैं। और न ही उनकी भूख मिटाने वाला निवाला। कॉरपोरेट में काम करते हुए भी ये कॉरपोरेट की काली नीतियों से दूर ही रहती हैं। चमचा नहीं बन सकतीं, लट्टू होकर नहीं घूम सकतीं। ज़िम्मेदारी निभाने से मतलब है। ड्यूटी पर आती हैं। ड्यूटी पर जाती हैं। और न ही किसी से फालतू बात। बालाओं को आज के युग में तरक्की बेहद पसंद है। रास्ता आसान हो तो कुछ भी कर गुज़रने को तैयार, बॉस की बीवी नहीं तो घर पर बर्तन भी मांझ सकती हैं। और आवश्यकता पड़ने पर बीवी की हक़ अदायगी भी कर सकती हैं। सहमति जब स्वतंत्र हो, तो हर रिश्ता वाजिब। दोष न बाला का है, न ही बॉस का है। वक्त की जरुरतों ने गैरतमंदों को भी बेगैरत बना दिया। अब आइना देख कर भी उन्हें लज्जा नहीं आती । क्योंकि लज्जा रुपी विचार को वो कॉरपोरेट की काली दुनिया में गुमा चुके हैं। बाला के लिए बॉस जरुरी, और बॉस के लिए कई बालाएं। चलिए अगर इस नीति से जगत का भला हो तो कुछ ठीक लग भी सकता है। लेकिन जब रिश्ते निजी हितों के लिए ही बने हों, तो प्रबंधन के साथ तो ये धोखे जैसा ही है। बॉस अपने ओहदे और योग्यता का फायदा उठाता है। और बालाएं अपनी अदाओं का । ये बात अलग है कि मटकने वाली बालाओं से बॉस हुनर की तमन्ना कभी नहीं पालता। न ही कभी काम में बरती गई कोताही पर उंगलियां उठाता। उसके सामने कौन काम कर रही है, और कौन काम नहीं कर रही, ये सिर्फ इस पर निर्भर है, कि बाला ने बॉस को कितनी लिफ्ट दी। बॉस तय करते हैं, फलानी हुनरमंदर है, फलानी काम में सच्ची है, फलामी तुमसे बेहतर है और तुम ये क्या करती हो। तुम्हें काम नहीं आता । जाहिल कहीं की (ये उनसे जो समझौतावादी नहीं)। सारी बातें दरकिनार कि जो जाहिल है असल में वही उद्योग को लाभ पहुंचा रही है। नज़र अपनी हो और चश्मा दूसरों का तो सिर्फ बुराई ही नज़र आती है। इठलाने की अदा हर बाला में नहीं होती। समझौते की अदा हर किसी के खून में नहीं होती। कुछ तो ईमानदार भी हैं, जिन्हें देखकर बॉस काला चश्मा चढ़ा लेते हैं। ये बात अलग है कि इठलाने और बलखाने वालियों के सामने वो पूरे नंगे हो जाते हैं। कॉरपोरेट बालाएं, कॉरपोरेट बॉस, मामला बिंदास। इसी युग में हमें जीना है। धिक्कार है ऐसी नीतियों पर । धिक्कार है ऐसी आदतों पर । कब तक इस कॉपोरेट की चकाचौंध में बालाएं अपना शोषण कराती रहेंगीं। कब तक बॉस मजबूरियों का फायदा उठाएंगे। क्यों नहीं योग्यता का सही आंकलन उनके लिए है, जो काम करना जानते हैं। क्या सिर्फ ठिठोलियों से काम चलता है। क्या सिर्फ अदाएं दिखाने से संस्थान चलता है। अपने चश्मे से भी तो आंकिये समाज को । फिर देखिए दुनिया में कितने दीन दुखी हैं। कितने हुनरमंद हैं। कितने लोग सच्चे हैं। कितने ऐसे लोग हैं जिनसे आप खुद प्रेरणा ले सकते हैं।

गुरुवार, 14 जून 2012

कभी हम, कभी तुम...

कभी टकराना मुसीबतों से, तो पता चलेगी सच्चाई ज़िंदगी की ।। कभी खरीदना किसी के ग़म, तो पता चलेगा खुशी का वहम ।। कभी तोड़ देना बंदिशों को, तो पता चलेगा आज़ादी का भरम।। कभी सोचना गहराइयों से, तो पता चलेगा हर झूठ का हरम।। कभी सोचना किसी चोट के बारे में, तो पता चलेगा असर-ए-मरहम ।। कभी हम कभी तुम पर सोचना, क्या आसान है ज़िंदगी ।। कभी टटोलना वादों का गड्ढा, तो पता चलेगा वादाखिलाफी का मीटर।। कभी महसूस करना कर्म के असल को, तो पता चलेगा ज़िंदगी का मुनाफा ।। कभी खेलना किसी मज़लूम ज़िंदगी से, तो पता चलेगी किसी जान की कीमत।। कभी कूच करना पहाड़ियों का, तो पता चलेंगी बुलंदियां सरहद की।। कभी जाना तिब्बत और सियाचीन में, तो पता चलेगा सियासत का फलसफा।। कभी गुज़र जाना आंधी तूफानों से, तो पता चलेगी उखड़ते कदमों की कुब्बत।। कभी गंदी बस्ती से गुज़र भी जाना, तो पता चलेगी हर दुर्गंध की कीमत ।। कभी हम कभी तुम पर सोचना, क्या आसान है ज़िंदगी ।। कभी मुस्कुराना गम-ए-महफिल, तो पता चलेगी सुखों की ताकत।। कभी करना ठिठोलियां रंजिश में, तो पता चलेगी हंसी की कीमत ।। कभी गुज़रना बदनाम गलियों से, तो पता चलेगी कौड़ी-ए-ईमान की कीमत।। कभी सिसक लेना अंधेरी रातों में, तो पता चलेगी एक साथ की कीमत।। कभी टूट जाना किसी कांच सी, तो पता चलेगी आईना होने की कीमत।। कभी हम कभी तुम पर सोचना, क्या आसान है ज़िंदगी ।।

गुरुवार, 31 मई 2012

कौड़ियों के भाव...

ज़िंदगी के सौदे में बिके हैं कई बार पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव नीलाम हुनर भी हुआ पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव तिजारतों में बिक गया रगों का खून भी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव लिखते मगर सच्चाइयां बचते हैं सचों से उनकी गली में हो गया इंसान कत्ल भी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव मजदूर कहीं वो बने श्रम बेचते रहे कीमत लगाई थी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव सजते रहे शरीरों पर बन किराए ए नगीना राशि मुश्त भी चुकाई पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव दो जून की जुगाड़ों में कट गए दिन रात झुलसते रहे बदन पर छांव न मिली वेतन दिया उसे भी बड़ा सोच समझ कर पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव न मोल था जज़्बात का बेमोल थी हंसी थोड़े रहम से बिक गया उनका शरीर भी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव

शनिवार, 19 मई 2012

अलग हैं वो लोग...

नाकाबिलों की बस्ती अलग है। बेगैरतों की दुनिया अलग है। अलग हैं वो लोग, जो हुनर को जानते हैं। अलग हैं वो लोग, जो मलिन बस्तियों को पहचानते हैं। अलग हैं वो लोग, जो ईर्ष्यालु हैं। अलग हैं वो लोग, जो किसी दीन के दयाल हैं। अलग अहंकार है, अलग अभिमान है। अलग हैं वो लोग जो कूटनीति करते हैं, अलग हैं वो लोग जो राजनीति करते हैं। अलग हैं वो लोग जो अहित किया करते हैं, अलग हैं वो लोग जो हित की बात करते हैं। अलग सच्चाई है, अलग वो झूठ है। अलग हैं वो लोग जो फिरकापरस्त हैं, अलग हैं वो लोग जो सीधे और सच्चे हैं। अलग हैं वो लोग जो साज़िशों को जानते हैं, अलग हैं वो लोग जो साज़िशें पहचानते हैं। अलग हैं वो लोग जो सीख दिया करते हैं, अलग हैं वो लोग जो सीख लिया करते हैं। अलग हैं ज़मीनें भी, अलग आसमान भी। अलग हैं वो लोग जो बेदर्द हुआ करते हैं, अलग हैं वो लोग जो दर्द सहा करते हैं। अलग हैं वो लोग जो मां बाप को ठुकराते हैं, अलग हैं वो लोग जो गैरों को अपनाते हैं। अलग हैं वो लोग जो सच से बचा करते हैं, अलग हैं वो लोग जो झूठों से बचा करते हैं। अलग अपनत्व है, अलग घृणत्व है। अलग हैं वो लोग, जो समाज को ठुकराते हैं। अलग हैं वो लोग, जो रंक को अपनाते हैं। अलग हैं वो लोग, जो मोहताज हैं सफलता के, अलग हैं वो लोग जो अपनी राहों को बनाते हैं। अलग हैं वो लोग, जो ज़िंदगी दिया करते हैं। अलग हैं वो लोग जो ज़िंदगी लिया करते हैं। अलग हैं वो लोग, जो रिश्तों को तोड़ा करते हैं। अलग हैं वो लोग जो रिश्तों को जोड़ा करते हैं। अलग हैं वो लोग जो बैर को समझाते हैं, अलग हैं वो लोग जो दुश्मनी निभाते हैं। अलग हैं वो लोग जो चाटुकार बना करते हैं, अलग हैं वो लोग जो ईमान हुआ करते हैं। अलग हैं वो लोग, जो संघर्ष को पहचानते हैं, अलग हैं वो लोग, जो संघर्ष नहीं करते हैं। अलग हैं वो लोग जो संदेश दिया करते हैं। अलग हैं वो लोग जो संदेश बना करते हैं। अलग हैं वो लोग, मर्म को पहचानते हैं। अलग हैं वो लोग, जो कर्म को जानते हैं। अलग हैं वो लोग, जो इंसानियत को जानते हैं। अलग हैं वो लोग, जो सिर्फ हैवानियत पहचानते हैं। अलग दिन है, अलग रात है। अलग हैं वो लोग, जो कुटिलता अपनाते हैं। अलग हैं वो लोग, जो सदाचार को अपनाते हैं। अलग हैं वो लोग, मुगालतों में रहते हैं। अलग हैं वो लोग जो ज़मी पर चला करते हैं। अलग हैं वो लोग जो गरीब को पहचानते हैं। अलग हैं वो लोग, जो गरीबी पर हंसा करते हैं। अलग हैं वो लोग, जो आईना दिखाते हैं। अलग हैं वो लोग, जो आईना बना करते हैं। अलग हैं वो लोग, जो दूर होकर भी पास हुआ करते हैं। अलग हैं वो लोग, जो पास होकर भी दूर होते हैं। अलग सुशासन है, अलग कुशासन है। अलग हैं वो लोग, जो वादों को किया करते हैं। अलग हैं वो लोग, जो वादे पूरा किया करते हैं। अलग वो लोग हैं, जो कांटों पर जिया करते हैं। अलग हैं वो लोग, जिन्हें मखमली पसंद है। अलग हैं वो लोग, जो आवाज़ को उठाते हैं। अलग हैं वो लोग जो आवाज़ को दबाते हैं। अलग विचार है। अलग व्यभिचार है। अलग हैं वो लोग, जो मुफलिसी के मारे हैं। अलग हैं वो लोग, जो रईसज़ादे हैं। अलग हैं वो लोग, जो शहर को बसाते हैं। अलग हैं वो लोग, जो श्मशान को बनाते हैं। अलग हैं वो लोग, जो सिस्टम से हुआ करते हैं। अलग हैं वो लोग जो सिस्टम से लड़ा करते हैं। अलग हैं वो लोग, जो सरकार को बदलते हैं। अलग हैं वो लोग, जो सरकार हुआ करते हैं। अलग है अलविदा, अलग है अल्लाह को विदा।

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

लौट आओ प्रियतमा लौट आओ

प्रिये तुम मायके क्या गईं। मेरी ज़िंदगी कालाहारी रेगिस्तान सी हो गई। एक दम वीरान। प्रिये तुम्हारी तस्वीर देखता हूं। तो उदासी की लाली छंट जाती है। हया से गाल लाल हो जाते हैं। घर की रसोई की तरफ देखता हूं तो बर्तन बजते से सुनाई और दिखाई देते हैं। मानों कह रहे हों, बनाते क्यों नहीं खाना आकर ? तुम्हारी चूड़ियों की खनक सुने एक सप्ताह हो गया। विरहा की अग्नि मुझे झुलसाने लगी है। प्रिये क्या तुमको नहीं लगता तुम्हारी नाराज़गी के ये सात दिन मेरे जीवन की अग्निपरीक्षा बन गए हैं। तुम तो आदत बन गईं इन चंद सालों में। ऐसे कोई नाराज़ होकर कहीं जाता है क्या ? मैं मानता हूं कि मेरा अभिमान कई बार तुम्हारी आन पर भारी पड़ जाता है। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करता। मेरे कठोर ह्दय में भी एक ह्दय है जहां सिर्फ तुम्हारे लिए मैने दस मंजिला मकान बना रखा है। इन दसों मंजिलों पर तुम रहा करती हो। लेकिन अब दिल का यही अपार्टमेंट आज खाली सा लग रहा है। ऐसा लग रहा है कि अकेलेपन के अहसासों ने अब इस दिल के आशियाने को जबरन किराये पर ले लिया हो। कहीं ऐसा न हो ये निर्दयी अहसास मुझ पर कब्ज़ा कर लें, मुझे अपनी जंजीरों में बांध लें। इससे पहले तुम लौट आओ । मुझे पता है तुम ये पंक्तियां पढ़ कर अपने गुलाब सी पंखुड़ियों वाले होंठों से मुस्कुरा रही होगी। मुझे पता है तुम ये पत्र उस कमरे में पढ़ रही हो। जहां न बाबू जी हैं और न मां। आ जाओ शीघ्र आ जाओ। क्योंकि। हमारा रिश्ता अटूट है। मैं भ्रमर, तुम पुष्प हो। आंख तुम अश्क हो। मैं रग तुम रुधिर हो। मैं दिल, तुम धड़कन। मैं सावन, तुम हो बसंत। मैं बालू, तुम गंगा । मैं शब्द, तुम स्याही। मैं पथ, तुम राही। मैं चूल्हा तुम फुंकनी । मैं ब्लैक बोर्ड, तुम डस्टर हो । मैं रेता तुम अभ्रक हो। मैं चूना तुम फिटनी हो। मैं बीयर तुम बर्फ। मैं सोडा, हाला हो। मैं एलईडी तुम डीवीडी। मैं प्रसंग तुम उपसंहार। मैं गद्य प्रिये तुम हो कविता। मैं चॉकलेट, तुम कैंडी हो। मैं कंचा तुम, पिल्लू हो। मैं डंडा तुम गिल्ली हो।मै पराकाष्ठा व्यंग विधा, तुम समालोचना जननी हो। मैं खानाबदोश सा पत्रकार, संघर्षशील तुम लेखक हो। मैं नीति नियति तुम राजनीति। मैं शासन तुम, सत्ता हो। मैं जिजीविषा, तुम आशा हो। मैं जनसंख्या, तुम जगजननी। मैं छाया हूं बरगद की तो तुम पीपल की डाली हो। मैं सिस्टम सरकारी सा, तुम आंधी निजीकरण की हो। मैं होठों की गाली तो तुम सुंदर शब्दों की सिरहन हो। मैं मनरेगा तुम रोजगार। मैं बीपीएल, तुम एपीएल। मैं मलिहाबादी आम प्रिये, तुम लौटा गुड़ का ड्राम प्रिये। मैं पाइप तुम पानी हो। मैं नाना तुम नानी हो। मैं बॉलीवुड की रात प्रिये, तुम हॉलीवुड हंगामा हो। मैं प्रश्नपत्र तुम कुंजी हो। मैं विस्मय तुम बोधक हो। मैं किंतु परंतु तुम लेकिन हो। मैं कंचनजंगा की बर्फ प्रिये, तुम एवरेस्ट की ठंडक हो। मैं पापी तुम पुण्य प्रिये। मैं अभिप्राय, तुम आशय हो। मैं पगडंडी तुम मेढ़ प्रिये। मैं श्वेत श्याम तुम मैदा की भेड़ प्रिये। मैं सर्कस के जोकर सा, तुम अदाकार स्पेशल हो। मैं राशि मुआवज़े वाली हूं, तुम सरकारी अनुकंपा हो। मै तमिलनाडु का डोसा हूं, तुम बंगाली रसगुल्ला हो। मैं चाइना की चाऊमीन, तुम जापानी तरकारी हो। मैं मिथ्यावर्णन की बात प्रिये, तुम सच्चाई की मूरत हो। मैं युद्ध भूमि का धनुष बाण और तुम मेरी प्रत्यंचा हो। मैं दशरथ का राम सही पर तुम मेरी रामायण हो। मैं कलयुग का कान्हा हूं, और तुम ही मेरी गीता हो। मैं राम, तुम सीता हो। प्रिये न जाने क्या हो गया तुम्हारे जाने के बाद। मैं कवि नहीं था, पर कविता लिखने लगा हूं। गायक नहीं था, किंतु गज़ल लिखने लगा हूं। सामाजिक नहीं था, किंतु समाज को समझने लगा हूं। सरकारी मुलाज़िम नहीं था, किंतु सरकार को समझने लगा हूं। प्रेमी नहीं था, प्रेम को समझने लगा हूं। वैरागी नहीं था, किंतु वियोग को समझने लगा हूं। प्रिये तुम्हारे जाने के बाद मैं आंटा दाल का भाव भी समझने लगा हूं। तुम्हारे जाने के बाद से मैं कुप्रबंधन का शिकार हो गया हूं, कब उठता हूं, कब सोता हूं, कब खाता हूं, कुछ पता नहीं। अब कभी नाराज़ नहीं होउंगा। अब कभी तुम्हें सताऊंगा नहीं। कभी फोन पर देर रात बतिआऊंगा नहीं। तुम आ जाओ। बड़ी शिद्दत से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं। मेरे प्यारे से पत्र का जवाब जरुर देना । तुम नहीं आईं तो मैं फिर एक पत्र लिखूंगा। अब और इंतज़ार बर्दाश्त नहीं होता। हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी, तुम देखी सीता मृग नयनी। तुम्हारे इंतज़ार में...

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

रेडियो नहीं रोटी (सरकारी रहम से रोटी की जुगाड़)

सुशासन बाबू संचार क्रांति हमें क्या देगी ? अब ऐसा एक सवाल बिहार के महादलित अपने नेता नीतीश कुमार से पूछ रहे हैं। आपके दिमाग में सवाल जरुर आया होगा कि सिर्फ महादलित ही ऐसा क्यों सोच रहे होंगे ? तो इसका जवाब है कि बिहार सरकार ने दूसरे राज्यों की तरह उनके उद्धार के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं। मसलन कई तरीकों के रंग बिरंगे कार्डों की योजनाएं महादलितों के सपनों की दुनिया को रंगीन करने के लिए रजिस्टरों में दर्ज कराई गईं हैं।लेकिन ऐसे लाल नीले पीले कार्डों से किसी की दुनिया में रंग भरे नहीं जा सकते। वो भी तब तक, जब तक कि किसी योजना को धरातल पर न उतार दिया गया हो। ये बात भी अलग है कि धरातल पर उतरने के बाद भी ये योजनाएं आज बिचौलियों की भेंट चढ़ती जा रही हैं। बिहार महादलित विकास मिशन करीब 89 लाख 90 हज़ार महादलितों का उद्धार करने के लिए बिहार के 37 ज़िलों में काम कर रहा है। सूबे की 21 महादलित जातियों पर किया जाने वाले दफ्तरी कार्य बेहद सराहनीय है। इन सभी महादलितों के लिए सरकार ने कुछ न कुछ सोच रखा है। एक ऐसी ही योजना है महादलितों को रेडियो मुहैया कराने की। महादलितों को मुख्यधारा में लाने एवम् प्रभावी जीवन दृष्टि बनाने के लिए इस योजना के तहत प्रत्येक परिवार को रेडियो खरीदने के लिए लिए 400/- रु0 दिया गया। यहां सरकार का मकसद था कि सूबे के उन पिछड़े राज्यों तक संचार क्रांति को पहुंचाया जाए। जहां अब तक विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है। कम से कम महादलित इस बात पर तो इतरा ही सकें कि उनके घर में संचार क्रांति के नाम पर एक रेडियो सरकार द्वारा पहुंचा दिया गया है। रेडियो की इसी योजना के साथ महादलितों की पीर शुरु होती है। आपको यकीन तो न होगा कि कोई सरकारी योजना किसी के लिए पीर कैसे बन सकती है? लेकिन ये कड़वे घूंट की ऐसी सच्चाई है जिसे महादलित हर रात पिया करते हैं। दरअसल नीतीश सरकार ने जिन महादलितों को रेडियो बांटे हैं उन महादलितों के पास इतने भी पैसे नहीं हैं कि वे अपनी दिन भर की रोटी की जुगाड़ कर सके। दिन भर अपने हाड़ को गलाते महादलित जैसे तैसे अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं। ऐसी स्थिति में जब बात रेडियो में सेल डालने की आती है। तो जिनके रेडियो के सेल जवाब दे गए । उन रेडियो में सेल आज तक पड़े ही नहीं। इसलिए रेडियो बेंचकर लोग रोटी की जुगाड़ कर रहे हैं। जो रेडियो सेलविहीन हो चुका है वो बच्चों के हाथ में महज़ एक खिलौने की तरह शोभा बढ़ाता दिखाई दे रहा है। यहां भी कहानी में एक पेंच है, जो रेडियो सरकार ने महादलितों के बीच बंटवाए हैं वो आधुनिकता के हिसाब से बेहद भारी और उनका मेंटिनेंस बहुत ज्यादा है। हर महीने उन रेडियो में तीस रुपए के सेल लगाने पड़ते हैं। महादलितों के लिए तीस रुपए की ये राशि एक दिन की रोटी की व्यवस्था कर देती है। इस लिहाज़ से रेडियो की ये योजना महादलितों के लिए अभिषाप जैसी बन गई है। हो सकता है कि जब आपकी ये लुभावनी योजना महादलितों तक पहुंची हो तो सभी के चेहरों पर खुशी का माहौल दिखा हो। लेकिन नीतीश जी आज आपका सरकारी रहम इन महादलितों के काम नहीं आ रहा है। भूखा पेट कोई भजन नहीं सुनना चाहता। जब महादलितों को भूख लगेगी तो संचार क्रांति काम नहीं आएगी। वैसे भी जिस संचार क्रांति को आपने रेडियो के ज़रिए गांव गावं तक पहुंचाने की कोशिश की है वो संचार क्रांति महादलितों को बहुत महंगी पड़ रही है। एक महादलित औरत से जब रेडियो के बारे में कुछ पूछा जाता है। तो उसका पहला जवाब यही होता है कि रोटी की व्यवस्था करें, या रेडियो की मरम्मत कराएं। ऐसी स्थिति बेहद भयानक है। कि जिस राज्य में मुफलिसों पर सरकारें रहम करती हैं। उसी रहम को बेंचकर वो लोग अपने लिए एक दो दिन की रोटी का इंतज़ाम कर लेते हैं। बिहार के हाकिम आपको ये बात समझनी होगी कि रेडियो से पेट नहीं भरता, अगर पेट किसी का भरना है तो उन्हें रोजगार देना होगा। ये हम नहीं वो लोग भी कह रहे हैं जिनकी ज़िंदगी अभावों के चलते जहन्नुम बन गई है। ये ठीक है कि आप (नीतीश) उनके बारे में सूचना क्रांति के नज़रिए से देखते हैं। लेकिन ऐसी सूचना क्रांति का कोई क्या खाक करेगा जब पेट फाकों को मजबूर होगा। हुजूर आप अपने सरकारी रहम की गत देखिए। सोचिए कि ये महादलित लोग आपके रहम को बेंचकर रोटी की जुगाड़ कर रहे हैं। बस इतना समझिए कि ये अपनी शिकायतें आप तक कभी नहीं पहुंचा सकेंगे। हम तो बस एक ज़रिया भर हैं। तय आपको करना है कि हाकिम अपनी रियाया को अब कितना करीब से जानेगा। क्योंकि ये बात याद रखिए लोग सरकारी रहम से रोटी की जुगाड़ कर रहे हैं।

शनिवार, 17 मार्च 2012

हे धरती के भगवान

हे धरती के भगवान।

तुमको मेरा कमर को आधार मानकर 45 डिग्री पर प्रणाम। पुतलियां पथरा गई थीं अरसे से टीवी देख देख कर । और तुम्हारे रनों का टोटा हर रोज़ मेरी चांद को टिपियाता। मैं झल्लाता । लेकिन तुम्हें मेरी झल्लाहट पर रहम न आता। लेकिन आज मैं सारे निजी कार्यों से निवृत्त होकर तुम्हारी अर्चना में जुटा था। सुबह से धूप दीव नैवेद्य के साथ तुम्हारी ईश्वर स्वरुप महिमा मंडित बल्ला उठाऊ तस्वीर का पूजन कर रहा था। पड़ोस से पंडित श्री श्री 108 कदाचित तामलोट लोटन प्रसाद सत्यानासी काशी निवासी पंडित राधे श्याम उपाध्याय को भी बुलवाया था। इस आशा में कि कहीं मुझसे पूजा में कोई मंत्र पढ़ गया तो तुम फिर शतक से चूक जाओगे। और मैं अपनी टांट को टिपियाता फिरुंगा। लेकिन तुम हे धरती के भगवान आज बरेली रोजा पैसेंजर की तरह जब चल निकले तो फिर बरेली से चलने के बाद रोजा ही रुके। तुमने वो महा सुस्त शतक बना ही डाला। जिसका इंतज़ार पिछले एक साल से आपके भक्त कर रहे थे। हे सट्टेबाजों के ईष्ट तुम मेरे घनिष्ट हो अब मुझे ये पता चल गया है। क्योंकि जिस धैर्यपूर्वक पारी में तुमने अपनी जीवटता की मिसाल पेश की है उसकी आशा किसी बुज़ुर्ग खिलाड़ी से ही की जा सकती है। तुमने 147 गेंदों का संहार किया। तब जाकर बड़ी मुश्किल से 114 रन जुटा सके। हे धरती के भगवान तुम्हारे धैर्य को मेरा फिर उसी डिग्री पर प्रणाम। हे क्रिकेट जगत के राजहंस तुम इस युग के ईसा हो। क्योंकि ईसा भी अपने विरोधियों के लिए कहा करते थे कि हे भगवान इन्हें क्षमा करना ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। तुम भी तो यही कहते हो। लोग तुम्हारी आलोचना करते हैं। और तुम उनसे कुछ नहीं कहते अपना बड़प्पन दिखाकर उन्हें माफ कर देते हो। हे सचिन प्रभू आज तुम्हारे ही महा सुस्त शतक की बदौलत भारत बांग्लादेश जैसी पिद्दी टीम के सामने 289 बनाने लायक हुआ। लेकिन प्रभू की तो लीला अपरंपार होती है। देखिए कैसे झोली में गिर गया मैच बांग्लादेश की। हे दीन दुखियारे सटोरियों के महा प्रभू तुम्हारे महाशतक को मेरा महा प्रणाम। तुम ऐसे ही सतत खेलते जाना। किसी की न सुनना। साल में एक सैकड़ा मार देना। साल भर लोग तुम्हारी आलोचना करेंगे उसके बाद जब तुम शतक वीर बनोगे। तो टीवी पर ब्रेकिंग चलेगी। अखबार में मोटी मोटी सुर्खियां छपेंगी। क्रिकेट का बूढ़ा भगवान आज भी महान। तुम ऐसे ही क्रिक्रेट खेलोगे तो एक दिन तुम्हारा औसत कोर्टनी वॉल्श सा हो जाएगा। 42 से घटकर तुम्हारा औसत 4.2 तक आ जाएगा। तुम यहां भी रिकॉर्ड बना दोगे। क्योंकि तुम्हें सचिन रिकॉर्ड तेंदुलकर भगवान भी तो कहा जाता है। हे देवी अंजलि के देवता अब तुम्हारी संतान के क्रिक्रेट खेलने का वक्त आ गया है। तुम आदेश दोगे तो मैं उसके लिए भी अगरबत्ती जलाऊंगा । पंडित राधेश्याम को बुलवाऊंगा। लेकिन अब मेरी तुमसे एक गुहार है तुम क्रिकेट के सन्यासी हो जाओ। कुछ दिन घर बैठो । परिवार के साथ घूमो-फिरो। और फिर कुछ दिन बाद हमें कमेंट्री बॉक्स में दिखो। कृपया मेरी किसी भी बात को अन्यथा न लेना। मैं तो बस तुमसे विनम्र निवेदन कर रहा हूं। कहीं तुम नाराज़ न हो जाना। मैं तुम्हारी नाराज़गी को बर्दाश्त न कर पाऊंगा। सालों से क्रिकेट देख रहा हूं। तुम्हें मैने भगवान के रुप में पाया है। भगवान को कोई कुछ कहता है तो मुझे बुरा लगता है। इसलिए मेरी भी इज्जत का ख्याल रखना। एशिया कप के बाद मैदान में दिखाई न देना। मैं तो अपने भगवान को अब कमेंट्री बॉक्स में देखना चाहता हूं। हे दयानिधान मेरी गुहार पर गौर फरमाना। क्योंकि कमेंट्री बॉक्स में भी रोजगार के बड़े साधन है। इतना ही कहूंगा । ज्यादा वक्त न मेरे पास है और न ही तुम्हारे पास। चिट्ठी पहुंच जाए तो जवाब जरुर देना। भूल चूक लेनी देनी। तुम्हारा बनवारी लाल। इतिश्री फिलहाल।

बुधवार, 14 मार्च 2012

फेसबुक, फलाने सिंह और मेरी फीलिंग

ऑफिस में काम की छीछालेदर से मुक्ति पाई तो बैठ गया चंद पलों के लिए फेसबुक पर फंटियाने। हमारे यहां मध्य यूपी में फंटियाने से आशय होता है एक निठल्ले द्वारा निकम्मेपन का किया जाने वाला कार्य। इसलिए कार्यमुक्ति के बाद मैं ऑफीसरी नियम कानून के मुताबिक निठल्ला हो गया था। फेसबुक से ज्यादा पारिवारिक नहीं होने की वजह से मैं बहुत ज्यादा उसका इस्तेमाल नहीं करता। लेकिन ऑफिस में एक बार फेसबुक जरुर खोल लेता हूं, और कोशिश कर रहा हूं, कि इस डिजिटल रईसी से अपनी रिश्तेदारियां बढ़ा लूं।
अभी अपना खाता खोलने ही वाला था कि कम्प्यूटर चीख कर बोला आपके द्वारा भरा गया कूट शब्द गलत है, या फिर उपभोक्ता का नाम त्रुतिपूर्ण ढंग से दर्ज करवाया गया है। ऐसा एक बार नहीं तीन बार हुआ। बार बार यही जवाब थूथ पोथी के ज़रिए दिया जा रहा था। सब कुछ ठीक। लेकिन फिर भी फेसबुक मुझे स्वीकार नहीं कर रही थी। दिमाग भन्ना गया । कि सहसा मेरी नज़र कैप्स लॉक वाले बटन पर पड़ी। जो बेफिक्री के साथ खुला हुआ था। मैने उसको बंद किया और उसके बाद दोबारा लॉगिन किया। एक कोड को रिक्त स्थान में भरने के उपरांत चटाक से खाता खुल गया। फेसबुक के चारों कोनों में झांकने की कोशिश की गई। पाया कि फेसबुक पर न तो कहीं लाल निशान दिखाई दे रहा है, और न ही कहीं हरा निशान दिख रहा है। लेकिन कंप्यूटर स्क्रीन पर उल्टे हाथ की तरफ लगातार आने वाला एक अदृश्य सा संदेश बार बार ये कह रहा था । कि आपके मित्र फलाने सिंह के खाते पर किसी के द्वारा टिप्पणी की गई। किसी ने फलाने सिंह के खाते को पसंद किया। किसी ने फलाने सिंह को पोक किया। किसी ने टैग । किसी ने शेयर । तो किसी ने उनकी दीवार पर लिख दिया आपको जन्मदिन की पूर्वदत्त बधाई। जबकि फलाने सिंह का जन्मदिन दो दिन बाद था। फिर भी फलाने सिंह को किसी ने वक्त की कमी के चलते पहले ही बधाई दे दी थी। डिजिटल दोस्ती में बधाई संदेशों का ये बेहद द्रुतगामी तरीका है।
फलाने के लिए लगातार संदेश आये जा रहे थे। और बार बार उनके प्रालेख पर भेजे गए संदेशों की बत्ती मेरे प्रालेख पर चमक रही थी। फेसबुक पर फलाने सिंह के पांच हज़ार से ज्यादा मित्र हैं। इस लिहाज़ से उन्हें फेसबुक का करोड़पति तो आंका ही जा सकता है। फलाने एक घटिया शेर फेंकते हैं। तो एक झटके में सौ टिप्पणियां आ जाती हैं। जब बेहतरीन शेर फेंकते होंगे तो कितने आते होंगे मैं तो यही सोंचता रहता और जलता रहता। पड़ोसियों का सुख ही पड़ोसियों की जलन का कारण बनता है। खैर छोड़िए। इस बार फलाने सिंह ने एक ऐसा चोरी का शेर दे मारा है कि टिप्पणियों की बरसात हो गई। रुसवाई की पीड़ा से विकलांग हो चुके इस शेर पर लोग दनादन टिप्पणियां दिये जा रहे थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जो उस शेर को पसंद भी कर रहे थे। ऐसा नहीं था कि पसंद करने वालों ने उस शेर पर टिप्पणी नहीं दी थी। कुछ ने टिप्पणी भी दी और पसंद भी किया। ये प्रक्रिया बताती थी, डिजिटल दोस्ती में फलाने सिंह ने काफी साख बना रखी है। वो जो लिखते हैं, उस पर टिप्पणियां दी जाती है, जो लिखते हैं, उसे पसंद किया जाता है। कई बार तो ऐसा भी होता कि जब कोई उनकी स्थिति पर पसंद का चिन्ह नहीं लगाता, और टिप्पणी नहीं देता, तो वो खुद अपने आप को पसंद कर लिया करते । संतोषम् परम् सुखम।
लेकिन कुछ भी हो मैं फलाने की फेसबुक प्रणाली से काफी प्रेरित था। और इसीलिए कई बार देखा देखी में ही फेसबुक खोल लिया करता था। फलाने सिंह गूगल खोलते। उस पर गालिब लिखते । गालिब का कोई शेर मिलता, तो उसमें थोड़ा संपादन करते, और फेसबुक पर स्टेटस के डब्बे में ठेल देते । फलाने के लिए इस तरह की चोरी कोई गुनाह नहीं थी। क्योंकि उन्हें पता है, वो जो लिखते हैं, उसे पसंद किया जाता है, जो विचार प्रस्तुत करते हैं, उस पर टिप्पणी दी जाती है। अगर फेसबुक पर पांच हज़ार से ज्यादा मित्रों वाले इंसान को पांच सौ से ज्यादा कमेंट आते हैं तो उसे फेसबुक का करोड़ पति आंका जाएगा। ऐसा मैं नहीं फलाने सिंह सोचते हैं।
शायद भारत में जब से फेसबुक का उदय हुआ था, तभी से फलाने सिंह फेसबुक पर बड़े ही धर्मनिरपेक्ष अंदाज़ में मित्रता के हाथ बढ़ाए हुए थे। इसीलिए उनके डिजिटल दोस्त पांच हज़ार से ज्यादा थे। और मेरे सिर्फ चार सौ कुछ। एक दिन मैने फलाने से उनके संदेशों पर आने वाली टिप्पणियों का राज़ पूछा तो उन्होने बड़े ही सरल अंदाज़ में बताया।
पहले एक काम करो।
नियमित अपना खाता खोलो।
खाते पर कोई निमंत्रण आये उसे स्वीकार करो।
निमंत्रण न भी आये तो तुम लोगों को अपनी तरफ से निमंत्रण भेजो।
रोज़ाना एक घंटे फेसबुक पर बैठने की प्रैक्टिस करो।
जो भी दिखे, उसे अपनी तरफ से निमंत्रण भेज दो।
कोई भी अपने स्थिति विवरण में सुधार करे तो उस पर तुरंत टिप्पणी दो।
कोई भी शोक गीत से लेकर प्रेम गीत तक लिखे उसे तुरंत पसंद करो।
जितना शीघ्र किसी पर टिप्पणी करोगे, या उसे पसंद करोगे, उतनी ही शीघ्रता से तुम्हारे मित्रों की संख्या बढ़ने लगेगी।
किसी का स्थिति विवरण बहुत अच्छा लगे, तो उसे लोगों में बांट दो।
ऐसा करने से लोग तुम्हारे मुरीद हो जाएंगे, और तुम फेसबुक के शहंशाह हो जाओगे।
फलाने सिंह की ये बात मुझे बड़ी ही अच्छी लगी, कि अगर डिजिटल दोस्तों की संख्या बढ़ानी है तो सिर्फ एक घंटे का श्रम करना है, और बस चंद गालिब के शेरों की चोरी कर उनका संपादन करना है।
वाह भई वाह
कमाल का विचार है।
हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा।
अब तो हम भइया ऐसे ही दोस्त बनाएंगे। पांच हज़ार नहीं पूरे दस हजार करके दिखाएंगे। क्योंकि फलाने सिंह की तरह हम फेसबुक पर एक घंटा नहीं पूरे दो घंटे बिताएंगे। फिर बताएंगे कि कैसे इतराया जाता है फेसबुक की टिप्पणियों पर। हुंह। जाओ सनीचर मेरे बंगला से। अब क्यों राखी देर लगाये। बड़े आए फलाने सिंह।

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

संडे सिंन्ड्रोम (पति पत्नी की वेदना)

पूरे 6 दिन बाद फिर से संडे आ गया
छुट्टी का दिन, फुरसत का लम्हा
आज फिर 6 दिन बाद एक दंपति देर से सोकर उठे हैं
बेफिक्र हैं
जाड़े के मौसम में बिस्तर पर अंगड़ाइयां ले रहे हैं
कमरे से बाहर
आज बूढ़ी मां के झाड़ू लगाने का मौका है
अस्सी साल की ये झुकी हुई पीठ
पूरा आंगन बहोरती है
शनय शनय मां की तकलीफें सर्दी से कांपते होठों पर आ जाती हैं
धीरे धीरे वो बड़बड़ाने लगती है
लेकिन इस तरीके से कि कोई सुन ना सके
इधर नौकरी पेशा दंपति का हाल ज्यों का त्यों है
वो अभी भी अपने आप को थका हारा महसूस कर रहे हैं
इसलिए बिस्तर पर ही आराम कर रहे हैं
कि अचानक पति ने कमरे से बाहर नज़र डाली
तो पाया कि मां कुछ बुदबुदाकर झाड़ू लगाने में व्यस्त है
आखिर आज का ही तो दिन है जब उसे काम करना है
ये सोचकर उस मां का बेटा फिर सो गया
पत्नी पहले से सो रही थी
घड़ी का छोटा कांटा 9 तक पहुंच चुका था, जबकि बड़ा ठीक 12 पर था।
गुनगुनी धूप कमरे के भीतर प्रवेश कर गई
इतने में दंपति की आंख खुल गई
आंखों को दोनो मलते हुए, हाथों से योग करते हुए, दोनो खड़े हुए
पत्नी ने अपने हाथों से बिस्तर को तहाया
फिर पति से अकड़कर बोली
तू इतनी देर से उठा अब तक क्यों नहीं नहाया ?
पति बोला
डार्लिंग आपको बोला तो था आज संडे है
थोड़ा देर तक सोने दो
पत्नी बोली
जानते हो तुम्हारे चक्कर में मैं कितना लेट हो गई
हर रोज़ 6 बजे उठती हूं
आज 6 को तुमने उल्टा
सब तुम्हारी गलती है
तुम्हें पता है ना मां कहती है
चाय नहीं बनी, नाश्ता नहीं बना, खाना कब बनाओगी
क्या बिस्तर में पड़ी सोती ही रहोगी
काम की ना काज की नौ मन अनाज की
पति बेचारा पहले ही काम के बोझ का मारा
पत्नि से एक बार फिर सकुचा कर बोला
जानू वो हमारी मां है, और वो जो खाट पर बैठे हैं वो हमारे बाप हैं
क्या इनकी बातें तुम्हें ताने सी लगती हैं
सोचो इन्होंने तो तुम्हारे पति को पाला है
इन्हीं के पास अपनी किस्मत का ताला है
पत्नी बोली
चलो बातें न बनाओ आज संडे है काम करने दो
खुद तो देर से सोकर उठते हैं मेरी भी आदत खराब करते हैं
इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई
पत्नी ने अपने बिखरे बालों को पीछे समेटने की कोशिश की
और पहुंच गई दरवाज़े तक
गोपाल आज तुम भी बहुत लेट आए हो ?
क्या दूध में पानी मिलाकर लाये हो
अरे नहीं बीबीजी आज देर से सोकर उठा था
संडे था ना इसलिए
वैसे आज हिसाब हो जाता तो ठीक रहता
कुल महीने के 700 रुपए होते हैं
चलो ठीक है, अगर दूध पनीला हुआ तो पैसे न दूंगी
अरे बीबीजी गरीब के पेट पर लात काहे मारती हैं
चलो चलो अच्छा ठीक है आती हूं पैसे लेकर
इधर पति दैनिक क्रिया से निवृत्त होने के लिए अटैच बाथरुम में चला गया था
अखबार अपने साथ ले गया था
पत्नी बोली
अरे क्या आज संडे के दिन अखबार नहीं आया
बाथरुम से गूंजती हुई एक आवाज़ आई
आया है मेरी रुपमती मेरे पास है
हां हां और कोई जगह नहीं मिली अखबार पढ़ने के लिए
तुम कहो तो तुम्हारा नाश्ता भी वहीं भिजवा दूं
खाते रहना, निकालते रहना
डार्लिंग तुम तो मसखरी करती है
देखो !
खून न जलाओ मेरा
एक तो वैसे भी इतना काम पड़ा है
बाहर दूध वाला पैसे लेने पर अड़ा है
मेरी जेब से निकाल कर दे दो ना कल ही तो सेलरी अकाउंट में आई थी
पत्नी ने जेब से 700 रुपए निकाले
और दूध वाले की ओर बढ़ा दिये
दूध वाला शुक्रिया अदा करते हुए आगे बढ़ गया
अरे सुनते हो, दस बज गया है
क्या वहीं बैठे रहोगे या हमारी सौतन से गप्पें लड़ा रहे हो
पति बोला
सौतन से गप्पें लड़ानी होंगी
तो पखाने के बजाय पार्क नहीं जाऊंगा
फालतू में शक करती हो
कल बताया नहीं था कब्ज़ियत हो गई है
चलो चलो जल्दी निकलो मुझे भी जाना है
उसके बाद ससुर के लिए दलिया, सास के लिए साबूदाना
और तुम्हारा लिए सिंगट्टा पकाना है
डार्लिंग तुम तो हमेशा झगड़ती रहती हो
काम कौन सा ढंग का करते हो झगड़ूं नहीं तो क्या करुं
तौलिया से सिर को पोछता हुआ पति बाहर आया
तो पत्नी अटैच बाथरुम के भीतर चली गई
जाते हुए पति को आदेश दे गई
एक काम करना 15 मिनट बाद चाय चढ़ा देना
मम्मी पापा के लिए बिना चीनी की
और बाकी तो तुम समझदार होना डार्लिंग
करीब डेढ़ घंटे बाद जब पति ने पत्नी के मुख से डार्लिंग सुना
तो उसका दिल भर आया
उसने प्रेम रस में भीगे शब्दों से कहा
ठीक है जान
निकल कर तो आओ तुम्हारे लिए चाय क्या नाश्ता भी बना दूंगा
हां हां ठीक है ठीक है
बाथरुम से निकलकर ताने की एक लहर पति के कानों तक पहुंची
हां पता है कितना बना लोगे नाश्ता
चाय ही बना लो तो बड़ी बात है
याद है ना पिछले संडे का शक्कर के बूरे की जगह नमक डाल दिया था
अरे जान उस दिन तो किचन में अंधेरा था
कुछ समझ ही नहीं आ रहा था
खैर पति ने गैस पर कुछ देर बाद चाय को चढ़ाया
और उस चाय को अपने बूढ़े मां बाप तक पहुंचाया
चाय की गर्मी पहुंचते ही जैसे बूढ़े दंपति के सीने को कुछ राहत मिली
वो अपनी रजाई में अब दुबके हुए थे
इस इंतज़ार में कि कब दलिया आएगा, कब साबूदाना आएगा
पति ने पत्नी के हिस्से की चाय केटली में रख दी
इस आस में कि पत्नी जब नहा धोकर निकलेगी तो चाय देखकर खुश हो जाएगी
लेकिन नहाकर निकली पत्नी के तेवर बदले हुए थे
बोली
गीजर में गर्म पानी क्यों नहीं बचाया था
पता है ठंडे पानी से नहाकर मेरी हालत खराब है
और तुम हो कि तुम्हें अखबार पढ़ने से फुर्सत नहीं
बहुत ठंड लग रही है
जल्दी से चाय बनाओ
पति फिर प्रेम से बोला
चाय हाज़िर है मेरी बेगम
ज्यादा होशियार न बनो
केटली में रखी चाय देते हो जाओ ताजी बनाकर लाओ
पति पत्नी के इस झगड़े में 12 बज गए
गुनगुनी धूप अब कुछ ज्यादा उबल रही थी
इसलिए बेटे ने मां और पिता जी की खाट को बाहर धूप में डाल दिया
जाड़े की ये दोपहर बुज़ुर्ग दंपति के लिए बड़ी सुहानी थी
इधर कमरे में नहा धोकर ताजी चाय पीकर पत्नी तैयार हो चुकी थी
अब उसे नाश्ते और खाने की ड्यूटी निभानी थी
बोली एजी सुनते हो
चूंकि पति अपने मां बाप के पास बैठे अखबार पढ़ रहा था
इसलिए पत्नि की आवाज़ को सुन न सका
पत्नी फिर बोली
एजी सुनते हो
पड़ोस के जेनरेटर की आवाज़ में ये आवाज़ फिर सुनाई न दी
इसलिए इस बार बेगम साहिबा का सुर बदल गया
एजी सुनते हो कहां मर गए
अरे आया आया कहो क्या कह रही हो
कितनी देर से बुलाती हूं
क्या तुमको समझ नहीं आता
बारह बज गए अभी तक नाश्ता नहीं बना
हाए रे फूटी किस्मत ऐसा पति मिला
शास्त्री जी ठीक ही कहते थे
कि तुम्हारा पति निठल्ला होगा
न नाश्ते की सुध, न खाने की सुध
चलो एक काम करो ये मैने लिस्ट बना दी है
जाओ बाज़ार से हफ्ते भर का राशन लेकर आओ
और हां ज़रा जल्दी आना
खाना बनाने में मेरी मदद करनी है, मैं तब तक नाश्ता बनाती हूं
ठीक है डार्लिंग मैं यूं गया और यूं आया
अब पत्नी किचन में जाती है
दो छोटे कूकर में बुज़ुर्गों का नाश्ता बनाती है
एक में दलिया, एक में साबू दाना है
दोनों के पकने का इंतज़ार करती है
करीब दस मिनट बाद ये नाश्ता उन बुज़ुर्गों को परोसा जाता है।
जाड़े की धूप में करीब साढ़े बारह बजे मिला ये नाश्ता
जन्नत सा अहसास कराता है
दोनों बिना दांतों के जबड़ों से नाश्ते की जुगाली करते हैं
सुबह 6 बजे के उठे ये बूढ़े दोपहर साढ़े बारह बजे नाश्ता करते हैं
पड़ोस के बनिये से हफ्ते भर का राशन लेकर पति घर आ गया था
पत्नी उस वक्त नाश्ता कर रही थी
इसलिए पति ने किचन में खुद जाकर सामान को रखा
पत्नी बोली
नाश्ता रखा है कढ़ाई में ले लेना अब मैं कहां किचन में आऊंगी
आजाओ बाहर ही लॉन में बैठकर साथ खाते हैं
नहीं मैं मम्मी पापा के पास बैठकर कर लूंगा
तुम उधर ही कर लो नाश्ता
हफ्ते भर बाद तो वक्त मिलता है इनके पास बैठने का
चलो ठीक है और हां उनसे पूछ लेना कि अगर और दलिया चाहिए तो किचन में रखा है
परोस देना
ठीक है।
करीब दस मिनट बाद पत्नी आवाज़ लगाती है
अतुल एक काम करना
तनिक सब्ज़ी काटने में मेरी मदद करना
कल दफ्तर से आते वक्त मेरे पैर में कांच चुभ गया था तो अब तक दर्द हो रहा है
हाए दईया मर गई
पत्नी ने शनिवार को चुभी उस कांच की वेदना प्रकट की
तो पति का गला भर आया
क्या हो गया मेरी जान
तुमने कल तो कुछ नहीं बताया
क्या बताती
तुम बेकार ही परेशान होते
आखिर मैं पति हूं तुम्हारा
तुम्हारे दुख दर्द का साथी हूं
मुझे नहीं तो किसे बताओगी
क्या यूं ही हर तकलीफ मुझसे छिपाओगी
पति के ये इमोशनल सवाल पत्नी के गले उतर गए
उसने कहा नहीं बस ऐसा कुछ नहीं
मैं तो बस मजाक कर रही थी
मैने सोचा इसी बहाने कुछ काम में हाथ बंट जाएगा
तुम और मैं कुछ देर साथ रहेंगे सब्ज़ी काटने के बहाने
अगर ऐसा ही था
तो ये चोट का नाटक क्यों ?
पत्नी बोली
तुम्हें सब्ज़ी काटनी है तो काटो वरना चलते बनो
सारा काम मैं ही कर लूंगी
पत्नी ने गुस्से से चाकू उठाया
और तेजी से सब्ज़ी पर चलाने लगी
मानो नाज़ियों की सेना यहूदियों का संहार कर रही हो
चाकू और सब्ज़ी के बीच हुई इस जंग में चाकू जीत गया
चित्रलेखा की उंगली कट गई
खून बेतरतीबी से बहा जा रहा था
और चित्रलेखा की आंखों से अश्रुओं का सैलाब बह रहा था
अतुल की नज़र जैसे ही चित्रलेखा की कटी उंगली पर पड़ी
उसने फौरन उस उंगली को अपने मुंह में रख लिया।
मानो वो उस खून को बहने न देना चाहता हो
अतुल को यूं देख चित्रलेखा बोली
क्या तुम मुझसे बहुत प्यार करते हो
पति आंखों में आंखें डालकर मसखरे अंदाज़ में बोला
नहीं तुम्हारी सौतन को बहुत प्यार करता हूं
ये मसखरा अंदाज़ पत्नी भांप न सकी
और बोली
तो जाओ जाते क्यों नहीं उस मीना कुमारी मधुबाला के पास
उसी की काटना उसी की चूसना
अब घर आए तो बताए देती हूं
पति अपनी पत्नी के तेवर देखकर बोला
अरे मैने तो मज़ाक में कहा था
तो मैं कौन सा सीरियस हूं
डार्लिंग तुम भी ना
पति के सॉफ्ट कॉर्नर का पत्नी ने फायदा उठाया
और बोली अच्छा एक काम करना
मैने सब्ज़ी काट दी है
अब तुम इसे गैस पर चढ़ा देना
आटा माढ़ दिया है रोटी बना देना
चावल भिगो दिये हैं
कूकर में पका लेना
मैं सोने जा रही हूं, दो घंटे बाद उठा लेना
मेरे तो बहुत दर्द हो रहा है
आज संडे के दिन बहुत काम हो जाता है
चाय बनाओ
नाश्ता बनाओ
खाना बनाओ
क्या क्या करें ???
अब थोड़ा काम तुम कर लो मैं सोने जा रही हूं प्लीज़

रविवार, 15 जनवरी 2012

अंधों में काना आर्यभट्ट

समाज में हमारे इर्द गिर्द कहावतों का दौर कुछ यूं पसरा हुआ है, जैसे भारत के कई हिस्सों में फैला 42 फीसदी कुपोषण। लेकिन हम अक्सर इन कहावतों को एक दम सटीक सच की तरह नहीं देख पाते। कहीं न कहीं कोई कमी जरुर रहती है। अंधों में काना राजा एक ऐसी ही कहावत है। क्या वाकई जहां सारे अंधे होते हैं वहां काना श्रेष्ठ होता है? ऐसी कहावतें जब सच की चादर ओढ़ती हैं, तो एक सामाजिक व्यंग भी होता है, और कई बड़े सवाल भी इसी व्यंग से जन्म लेते हैं। इसी कहावत की सच्चाई को मैने बड़े करीब से देखा है।
तीन जनवरी 2012 की बात है । जब मैं बिना आरक्षण शाहजहांपुर की अकस्मात यात्रा पर निकला था। हाड़ कंपाती सर्दी में मैं रात बारह बजे स्टेशन पहुंचा। अनारक्षित श्रेणी के टिकट के लिए लाइन में लगा तो देखते ही देखते लाइन काफी लंबी हो गई। लेकिन टिकट खिड़की नहीं खुली। मेरी बारह चालीस की ट्रेन थी। करीब तीस मिनट खड़े रहने के बाद जब खिड़की खुली तो मेरा टिकट लेने का तीसरा नंबर था। मेरी बारी आई तो मैने अपनी जेब से टूटे नब्बे रुपए निकालकर टिकट खिड़की की ओर आगे बढ़ा दिए, और ये सूचना दी कि मेरा शाहजहांपुर तक का टिकट कर दो। अंदर से आई किर्र किर्र की आवाज़ से साफ इंगित हो रहा था कि शाहजहांपुर के टिकट की एक प्रति मेरे हाथ आने वाली है। कुछ सेकेंडों में टिकट तो मेरे हाथ था, लेकिन नब्बे रुपए में से बची हुई धनराशि मुझे वापस नहीं की गई। वो शायद रेलवे कर्मचारी ने बतौर मेहनताना अपनी जेब में रख ली थी। मैने भी इस बात को ज्यादा तूल देना उचित न समझा, क्योंकि मैं अपनी ट्रेन पकड़ने के लिए लेट हो रहा था। अगर ये ट्रेन छूट जाती फिर मेरे पास शाहजहांपुर के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। ऐसी स्थिति में मुझे टुकड़ों में ही जाना पड़ता।
मैं प्लेटफॉर्म नंबर ग्यारह पर पहुंच गया। जहां ट्रेन खड़ी शायद मेरा ही इंतज़ार कर रही थी, क्योंकि उस वक्त रेलवे की घड़ी में 12:42 AM हो चुका था, जबकि उस ट्रेन का दिल्ली से चलने का टाइम 12:40 था। मैं अनारक्षित श्रेणी के एक डिब्बे में चढ़ गया जो बाहर से देखने पर बिल्कुल खाली दिखाई दे रहा था। इस डिब्बे में जैसे ही मैं आगे बढ़ा, एक कर्णभेदी हूटर के साथ ट्रेन आगे की ओर चल दी। अब बोगी में मैं अपना बिस्तर लगाने की जुगत भिड़ा रहा था, क्योंकि मुझे ठंड भी लगी रही थी, और मैं उस दिन सुबह काफी जल्दी भी उठ गया था, जबकि अमूमन ऐसा होता नहीं कि किसी दिन सोकर मैं जल्दी उठा हूं। कूपा आशा से परे 95 फीसदी खाली था। इसलिए मुझे अपनी जगह तलाशने के लिए कुछ ज्यादा ही दिक्कत का सामना करना पड़ रहा था। कहां सोऊं, कहां बैठूं, कहां से बाहर के दृश्य बेहतर दिखेंगे, कहां से ठंडी हवा कम लगेगी, आदि अनादि कुछ ऐसे ही प्रश्न मेरे दिमाग में कौंध रहे थे। दस मिनट बाद मैं ये तय कर पाया कि अब मुझे फलां जगह तशरीफ टिका देनी चाहिए। मैने सीट पर चादर बिछाई और खिड़की के बगल से सटकर बैठ गया। कुछ देर खिड़की खोली रखी ताकि बाहर के मौसम का आनंद उठा सकूं, चूंकि हवा बेहद सर्द थी, इसलिए ज्यादा देर मौसम का मज़ा लेने का विचार मेरी नाक बहाने के लिए काफी था। इस तरह की किसी भी रिस्क से बचने हेतु मैने खिड़की का पहले शेटर बंद किया उसके बाद शीशा भी बंद कर दिया। अब मैं उस बेरहम हवा से पूरी तरह सुरक्षित था, जो मेरे बुखार और नज़ले का सामान अपने साथ लिए ट्रेन से बाहर बह रही थी। ट्रेन रफ्तार पकड़ चुकी थी, लेकिन काफी थकान के बावजूद मुझे उस दिन नींद नहीं आ रही थी। इसलिए मैने अपने बैग से शरद जोशी के व्यंगों पर आधारित एक किताब ‘यथा समय’ निकाली और उसके पढ़ने लगा। आंखे बोझिल हो रही थीं, लेकिन ‘यथा समय’ की कहानियों के सामने आंखे मूंदने का अब मन नहीं हो रहा था। वक्त बीतता जा रहा था, और मैं किताब के पन्ने पलटता जा रहा था। गाज़ियाबाद, पिलखुआ, और हापुड़ को ट्रेन पीछे छोड़ चुकी थी, मुझे इस बात का इसलिए पता था, क्योंकि इन तीन जगहों पर जब ट्रेन रुकी तो कुछ चाय वाले मेरी बोगी में अपनी ना पी सकी जाने वाली चाय पर ताज़गी का ठप्पा लगाये उसे बेंचने आ गये थे। इस दौरान कुछ पूड़ी सब्जी वाले भी आये थे, जिनकी पूड़ियों की शक्ल देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता था, कि उन्हें दोपहर में बनाया गया होगा, लेकिन वो जब बिक नहीं सकीं, तो रात को उन्हें दोबारा मिलावटी घी में गर्म करके ताजगी का नाट्य रूपांतरण कर बेचा जा रहा था। इसी बीच अमरोहा स्टेशन भी पार हो गया। ट्रेन बड़ी बेफिक्री के साथ हूटर पर हूटर मारे अपनी ही पहले से तय पटरियों पर आगे की ओर बढ़ती जा रही थी। मैं भी ट्रेन की बेफिक्री से सीख लेकर किताब पढ़ने में तल्लीन था। कि इसी बीच ट्रेन द्वारा पटरियां बदलने की ध्वनि मेरे कानों में पड़ने लगी थी, और ट्रेन अपनी रफ्तार को धीमा कर रही थी। ये किसी स्टेशन के आने के संकेत थे। मेरा कयास जल्द ही सच निकला, जब मैने खिड़की से बाहर झांका तो ट्रेन मुरादाबाद के आउटर में प्रवेश कर चुकी थी। अब तक जो ट्रेन सत्तर अस्सी की स्पीड में चल रही थी, उसकी रफ्तार चार पांच किलोमीटर प्रतिघंटा हो गई थी। शायद कोई ट्रेन पहले से उसके लिए निर्धारित प्लेट फॉर्म पर खड़ी थी, जिसके वहां से निकलने के बाद तक के लिए इस ट्रेन को धीमे ही चलना था। ट्रेन ने अचानक कुछ तेज़ रफ्तार पकड़ी, और मुरादाबाद स्टेशन के दो नंबर प्लेट फॉर्म पर जाकर खड़ी हो गई। इस वक्त प्लेट फॉर्म की घड़ी का छोटा कांटा चार पर था, जबकि बड़ा कांटा बारह पर जाने की अथक कोशिश कर रहा था, मानों बड़ा कांटा इशारा कर रहा हो कि उसे उसकी मंज़िल बारह पर आकर मिल जाएगी। ये घड़ी में सुबह के चार बजने के संकेत थे। गाड़ी स्टेशन पर जैसे ही लगी, वैसे ही कुछ लोग पूर्व की भांति ट्रेन में दाखिल हुए, और अपनी चाय को श्रेष्ठ बताने के लिए मिथ्या वर्णन का सहारा लेने लगे। लेकिन उस जाड़े में महज़ पांच रुपए हासिल करने हेतु किया जा रहा ये मिथ्या वर्णन किसी कड़वे सच जैसा था, जिसका एक घूंट मैने भी पांच रुपए देकर खरीद लिया था, क्योंकि बाहर ठंड कुछ ज्यादा ही पड़ रही थी, जिस ठंड का अनुभव मुझे दिल्ली में नहीं हुआ था, उससे कहीं ज्यादा ठंड को मैं मुरादाबाद स्टेशन पर महसूस कर रहा था, हमेशा की तरह चंद मिनटों में ही मैने उस ना पसंद आने वाली चाय को खत्म कर दिया था। बाहर कोहरा बहुत ज्यादा होने की वजह से विज़िबिलटी बेहद कम हो गई थी। मुरादाबाद बड़ा स्टेशन है इसलिए यहां लगभग हर ट्रेन का स्टॉप दस मिनट से कुछ ज्यादा है। लेकिन उस दिन ट्रेन करीब तीस मिनट तक स्टेशन पर ही खड़ी रही। मुझे ठंड बहुत ज्यादा लगने लगी थी। सोच रहा था कि कैसे भी एक अदरक वाली चाय मेरे गले को नसीब हो जाती, तो दिल आनंद-आनंद तृप्त- तृप्त हो जाता। लेकिन बदनसीबों की बस्ती में नसीब कहां जागते हैं। ऐसे ही मुझे एक प्याला अच्छी चाय नसीब नहीं हुई। और मजबूरन ही मुझे मिथ्या वर्णन वाली उस चाय के तीन प्यालों को पीना पड़ा।
ट्रेन शायद जब चलने ही वाली थी, कि इसी दौरान पांच लोग भागते हुए ट्रेन में चढ़े, हर कोई एक दूसरे को अपना बैग थमाकर ट्रेन के अंदर दाखिल होने की कोशिश कर रहा था, ऐसा लग रहा था कि जैसे वे पांचों काफी दूर से भागकर आ रहे हैं। और ट्रेन की हरी बत्ती देखकर बहुत घबरा गए हैं कि कहीं उनकी ये ट्रेन छूट न जाए। खैर वो पांचो ट्रेन के भीतर जैसे तैसे दाखिल हुए क्योंकि ट्रेन हलके हलके रेंगने लगी थी। जान हथेली पर लेकर सफर तय करने की ये नीति साफ बता रही थी, कि वे मजदूर वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, और हर रोज़ ऐसे ही ट्रेनों में सफर तय करते हैं। मेरा ये कयास भी पूर्व की भांति एक दम ठीक था। पहले किताब बैग में रख लूं उसके बाद बताऊंगा कि आखिर मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं।

ये पांचों लोग आपस में ठेठ देहाती भाषा में बातें कर रहे थे, ये भाषा अवधी भी थी, मैथली भी थी, और भोजपुरी भी थी। कुल मिलाकर इनकी भाषा का अंतिम उत्पादन कबीरदास की सधुक्कड़ी भाषा जैसा था। इन लोगों की वार्ता के कुछ अंश मुझे बड़ी ही मुश्किल से समझ आ रहे थे। लेकिन कहा जाता है कि मुश्किल पंक्तियों से अपने लिए कुछ सरल निकाल लेने वाला ही जिज्ञासू है। सो इसी तर्ज पर मैं उन पांचों की रोमांचक बातों का स्वाद लेने लगा। इस दौरान मुझे ज्ञात हो गया था, कि वो पांचों लोग दिहाड़ी मजदूर थे, जो दिन भर काम करने के बाद दिल्ली से अपने घरों की ओर लौट रहे थे, लेकिन मुरादाबाद में ट्रेन छूट जाने की वजह से वो मुरादाबाद स्टेशन पर ही काफी देर से सोये हुए थे। पर जब मेरी ट्रेन वहां पहुंची तो अचानक खुली नींद ने उन्हें मेरी ट्रेन में दाखिल होने को मजबूर कर दिया। इन्हीं आशंकाओं के बीच मैं उनकी बातों को आराम से सुनता जा रहा था, कि मुझे एक और बात पता चली कि उनमें से एक व्यक्ति उनका नेता है। जिसका नाम संभवत: छन्नू रखा गया था। क्योंकि सभी लोग बार बार उसे छन्नू भइया के नाम से ही पुकार रहे थे। उन पांचों लोगों में छन्नू ही एक मात्र दल का ऐसा सदस्य था, जिसने अपनी ज़िंदगी में या तो कभी पढ़ाई को महत्व दिया होगा, या फिर घर में पिता की डांट का उसे ख्याल रहा होगा। मुझे नहीं पता था कि छन्नू कितना पढ़ा लिखा था, लेकिन उसकी काबलियत का अंदाज़ा उसके चार साथियों ने भलीभांति लगा लिया था, क्योंकि उनकी नज़र में छन्नू उनका नेता था। छन्नू के शारीरिक ढांचे की एक और खास बात थी, कि वो एक आंख से देख नहीं सकता था। उसकी आंखों में लगा पत्थर इस बात की ओर साफ इशारा कर रहा था, कि बचपन में किसी दुर्घटना की वजह से उसकी एक आंख जाती रही होगी, या फिर मोतियाबिंद का सही वक्त पर इलाज न करवा पाना उसकी आंख के लिए प्राणघातक साबित हुआ होगा। जो भी हुआ हो लेकिन एक आंख से देख सकने वाला ये शख्स उन दो दो आंखें रखने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा था।
छन्नू के हाथों में सौ सौ के कुछ नोट थे, जिनका हिसाब छन्नू को ही करना था। उसे उन चारों में तो नोट बांटने ही थे। साथ ही अपने काम का हिसाब भी तय करना था। इसलिए छन्नू ने 675 रुपए प्रति व्यक्ति का हिसाब करने के लिए अपनी उंगलियों का सहारा लेना शुरु कर दिया था। गणित के तमाम फॉर्मूले फिट कर लेने के बावजूद भी जब छन्नू पैसों का सही हिसाब नहीं लगा सका। तो उसने अपनी जेब से भारत के एक पड़ोसी कम्यूनिस्ट देश से आया एक मोबाइल निकाल लिया। और उसके साथ खुड़पैंच करने लगा। अंदाज़ा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं था कि जब उसके दिमाग की गणित फेल हो गई तो उसने कंप्यूटरीकृत गणनांक का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया होगा। यकीनन ऐसा ही था। छन्नू अब मोबाइल में मौजूद कैलकुलेटर के सहारे उस हिसाब के अंकेक्षण में जुट गया था। उन चारों की आंखें बरबस ही छन्नू की काबलियत पर टिकटिकी लगाये देख रही थीं। उनकी नज़र में छन्नू शिक्षित भी था, तकनीकी जानकार भी, वैज्ञानिक भी, और सबसे समझदार भी। क्योंकि वो चारों आंखों ही आंखों में छन्नू द्वारा किये गये प्रयासों को सराहने की चेष्टा में लगे हुए थे। लेकिन इस बात से छन्नू एक दम अंजान था। क्योंकि उसका पूरा ध्यान अपने चाइनीज़ मोबाइल की स्क्रीन पर था। उसके सराहनीय प्रयासों की दृढ़ता देखकर सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वो आज अपने पास मौजूद धनराशि में से 675 रुपए के उस अबूझ हिसाब का हल निकाल ही लेगा।
माहौल इस वक्त बेहद शांत था। उन चारों की नज़रें छन्नू पर टिकी थीं, तो मेरी नज़रें उन पांचों के क्रिया कलापों पर । लेकिन इसी बीच उन चारों में से चिल्ला नाम के एक शख्स ने अपने भारी से दिखने वाले मोबाइल में गाना बजा दिया। प्यार से लिखा गया वो गाना उस मोबाइल में जाकर इस कदर कर्णभेदी हो गया था, कि मजबूरन छन्नू को हस्तक्षेप कर कहना पड़ा...अरे बंद करऊ भोंसड़ी के...चिल्ला की इस हरकत से छन्नू इस कदर आहत हो गया था, कि एक मिनट के भीतर उसने चिल्ला को उसके अनपढ़ होने के सैकड़ों नुकसान गिना दिये थे। शायद चिल्ला को भी अपने अनपढ़ होने का जितना अफसोस पहले न हुआ होगा। उतना आज हो रहा था, क्योंकि छन्नू ने तो सीधे उसके स्वाभिमान को ही ललकार दिया था।
अब तक जो तस्वीर थोड़ी शांत दिखाई दे रही थी, उसमें अब तनाव नज़र आने लगा था। चिल्ला से हुई बकझक के बाद छन्नू अपनी कंसर्ट्रेशन खो बैठा था। छन्नू की शक्ल देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे अब वो 675 रुपए की उस पहेली को सुलझा ही न सकेगा। लेकिन छन्नू तो छन्नू था, उसे ये साबित करना था कि उसकी प्राइमरी तक की पढ़ाई उसके काम आई है। चिल्ला की उस शांति भंग करने वाली हरकत ने कुछ घंटों से हिसाब लगा रहे छन्नू के चेहरे पर बारह बजा दिये थे। लेकिन फिर भी मामले को आन पर लेते हुए छन्नू 675 के कुल योग वाली बैलेंस शीट को बनाने में पिला हुआ था। ये छन्नू का अपने हिसाब के प्रति समर्पण ही था, जो उसने चिल्ला द्वारा किये गये उस गाना बजाने के अपराध को नज़रअंदाज़ कर हिसाब में ही ध्यान लगाये रखा। अगर और कोई होता तो वो चिल्ला की गुटखौसी दांतों वाली मुस्कान से खीज कर हिसाब किताब को बंद करता, और पहले चिल्ला के दांत तोड़ता।
ट्रेन अब रामपुर स्टेशन पहुंच चुकी थी। लेकिन छन्नू वहीं का वहीं था। शायद उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके पास मौजूद रुपयों में से 75 रुपए के उचंत खाते के पैसे आखिर गये तो गए कहां ? इस बात का पता भी मुझे तभी लगा जब उसने एक गाली के साथ कहा भोंसड़ीं के जई 75 रुपिया कहां चले गए, इस दौरान ये पहला ऐसा मौका मैने पाया था जब छन्नू ने प्रश्नवाचक अवस्था में चारों के चेहरे पर बारी बारी से अपनी एक आंख के द्वारा बड़ी ज़ोर देकर देखा था। क्योंकि अब से पहले तक तो छन्नू की सारा ध्यान उस हिसाब ने खींच लिया था, या फिर चिल्ला की उस हरकत ने जिसकी वजह से चिल्ला को अपमान के सैकड़ों घूंट चंद मिनटों में ही पीने पड़ गए थे।
ट्रेन रामपुर स्टेशन पर बिना किसी सूचना के रुकी हुई थी, लेकिन छन्नू के हिसाब की गाड़ी जापान की विकास दर की तरह आगे की ओर जा रही थी, ये बात अलग थी, कि अब तक छन्नू के हिसाब को उसकी मंजिल नहीं मिल सकी थी। लेकिन कहा जाता है कि किसी की शक्ल पर उसकी होशियारी के बारे में नहीं लिखा होता। ऐसा ही छन्नू के साथ भी था। उसके चेहरे की उड़ चुकी रंगत साफ बता रही थी कि रामपुर से चलकर जैसे ही ये ट्रेन बरेली पहुंचने वाली होगी, तो उसके हिसाब का तलपट भी मेल खा जाएगा। क्योंकि जिस तरीके से उसकी भावभंगिमाओं को मैं भांप पा रहा था, तो मुझे लगने लगा था कि छन्नू हिसाब के बेहद करीब है। हां एक बात और याद आ रही है कि रामपुर से ट्रेन रवाना होने से पहले उन पांचों ने न पी सकी जाने वाली पांच प्यालियां चाय भी खरीदी थी। और इसके पैसे उसने चुकाये थे, जिसे अब से कुछ वक्त पहले एक छोटी सी गलती के एवज़ में बड़ी सी फटकार छन्नू द्वारा लगाई गई थी। इस दौरान चाय पीते वक्त शेष चार तो आपस में अपने हरदोई स्थित किसी गांव की बातें कर रहे थे, लेकिन छन्नू चाय की चुस्कियों के साथ ही गणित की उस अबूझ पहेली को सुलझाने में लगा हुआ था। छन्नू की चाय का प्याला खत्म हो चुका था, लेकिन हिसाब अब तक नहीं लगाया जा सका था।
ये विडंबना ही थी कि बरेली रेलवे क्रॉसिंग के कुछ पहले ही छन्नू उन चार लोगों की भीड़ को संबोधित करने की मुद्रा में आ गया। उसकी एक आंख में साफ पढ़ा जा सकने वाला आत्मविश्वास बताने के लिए काफी था, कि वो हिसाब की बहियों का हिसाब कर चुका है। उसने 75 रुपए के उस सस्पेंस अकाउंट का पर्दाफाश कर दिया है। जिसने उसकी नाक में दम कर दिया था। जो छन्नू अब तक बेहद शांति से हिसाब लगा रहा था, वही अब चिल्ला समेत उन चारों को 675 के मूल का रहस्य समझाने लगा था। छन्नू को पता चल गया था कि जिन 75 रुपए की बदौलत उसके हिसाब का चिट्ठा मेल नहीं खा रहा था, उसी 75 रुपए के खर्चे को उसने खोज निकाला था। और ये 75 रुपए वही थे जो उन पांचों ने आपसी सहयोग से कच्ची दारु की भट्टी पर खर्च कर दिये थे। लेकिन नशा ज्यादा होने की वजह से किसी को याद नहीं था कि पैसे आखिर गए तो गए कहां। ये सब संभव हो पाया था तो बस छन्नू के द्वारा। क्योंकि छन्नू ने प्राइमरी की पढ़ाई में एक से लेकर सौ तक की गिनतियों के बड़े ही मन से पढ़ा था। और इस पढ़ाई के ही बूते उसने ये साबित कर दिखाया था, कि अंधों में काना राजा ही नहीं बल्कि आर्यभट्ट भी हो सकता है।
सुबह के दस बजे हैं। बरेली आ गया है । और मुझे इसी स्टेशन पर उतरकर शाहजहांपुर के लिए ट्रेन पकड़नी है, क्योंकि जिस ट्रेन से मैं आया हूं वो ट्रेन बरेली से सीधे लखनऊ जाती है, शाहजहांपुर उस ट्रेन का स्टॉप नहीं है। और हां छन्नू ने अपने हाथों में मौजूद सौ रुपए के सभी कड़क नोटों का हिसाब उन चारों में कर दिया है। आगे का रास्ता वो कैसे तय करेंगे मुझे नहीं पता, क्योंकि मेरे देखे जाने तक वो बरेली स्टेशन पर उतरे नहीं थे। और हरदोई नामक जिस ज़िले में उन्हें जाना था, ये ट्रेन वहां भी नहीं रुकती थी। शायद ये पांचों लखनऊ पहुंच जाएंगे, या फिर चेनपुलिंग कर हरदोई उतरेंगे।