मंगलवार, 25 अगस्त 2009

काश, मैं जख्मों को खरीद सकता

अभी कल ही की बात है
ऑफिस से निकला ही था
दिमाग में कुछ हलचल सी थी
मन व्यथित सा था
आंखों में चुभन थी
दिनभर के काम की
सब कुछ तो ठीक था
लेकिन फिर भी
पता नहीं वो कौन सी बात थी
जो टीस दे रही थी।
अजीब सी उदासी
अजीब सा मौसम
न जाने क्या होने वाला था।
कि अनायास ही नज़र
एक वृद्धा पर पड़ती है
उसकी गोद में एक नवजात था
जो दर्द से तड़प रहा था, शायद
ये दर्द किस बात का था
नहीं जानता
शादय वो भूखा था
कई रोज़ से
और वैसी ही भूखी उसकी दादी
एक कोने में बैठे वो लोग
किसी के इंतजार में थे
शायद किसी अपने के
लेकिन अब जो मैने देखा
वो विचलित कर सकता था
किसी को भी
उस नवजात के शरीर से खून रिस रहा था
उसकी दादी बार-बार
अपने चीथड़ों से
उसके ज़ख्मों को पोछ रही थी
शरीर पर उसके कपड़ा सिर्फ इतना था
कि बमुश्किल ही
अपनी लज्जा को आड़ दे पा रही थी
लेकिन किसी बच्चे को इतना लाड़
शायद मैने पहली बार देखा था।
वो बच्चा तो सिर्फ
चीख ही रहा था
दर्द की कराहट
उसके पेट में मौजूद पानी को भी सोख चुकी थी
अब उसके जख्मों की आवाज़
भरभरा उठी थी
मैं मजबूर था, बेबस था।
क्योंकि न तो मेरे पास इतना पैसा ही था
और न ही इतना ररुख
कि अनजान शहर में
काश, मैं उसके ज़ख्मों को खरीद पाता।

रविवार, 16 अगस्त 2009

अनोखा सफर और वो हाइटेक बाबा

कुछ ही दिन पहले की बात है। नोएडा से गृहनगर लौट रहा था । चुनावों में सारी बसें लगी होने के कारण ट्रेन में काफी भीड़ चल रही थी बीते दिनों। मैं लखनऊ मेल में गाजियाबाद से बैठा। उस दिन भी ट्रेन में भयंकर भीड़ थी। लेकिन एक डिब्बा खाली था। दरअसल ये वो वाला डिब्बा था, जिसमें सामान वगैरा रखा जाता है। वो डिब्बा बंद था । मैने खटखटाया, तो अंदर बैठे एक बाबा ने खोला । वो बाबा अकेले ही उस डिब्बे में सवार हो लिए थे । ऐसा मालूम होता था। क्योंकि अंदर से बंद करने का मतलब तो यही जान पड़ता था कि वो किसी औऱ को जगह नहीं देना चाहते थे। मेरा उस दिन भाग्य अच्छा था जो बाबा ने अंदर से दरवाजा खोल दिया। वरना उस दिन तो मेरी ट्रेन छूट ही जाती । क्योंकि इतनी भीड़ में किसी डिब्बे घुसना युद्ध करने के समान था। खैर मैं उस सामान वाले डिब्बे में बैठ गया। और दरवाजा बंद कर लिया। क्योंकि बाबा ने कहा, बेटा दरवाजा बंद कर लो वरना और लोग घुस आएंगे। ट्रेन जैसे ही स्टेशन पार करेगी तब दरवाजा खोल लेना। महज दो मिनट ठहरने के बाद ट्रेन को हरी बत्ती का इशारा मिला । और वो चल दी, मेरे गंतव्य की ओर। धीमे धीमे ट्रेन रफ्तार पकड़ रही थी। मैने स्टेशन पार होते ही दरवाजा खोल दिया । ठंडी हवा अंदर आ रही थी। मैने बैग से निकाल कर चादर बिछा ली। और लेट गया । ट्रेन अपनी रफ्तार पकड़ चुकी थी।
और यहीं से शुरु होती है, उस बाबा की कहानी। बाबा मेरे पास ही बैठे थे। लेकिन पहले बाबा की काया का वर्णन करना जरुरी है। उम्र लगभग 75 की रही होगी। कद करीब 5 फुट 11 इंच। बाल जैसे कपास की खेती। माथा बिना प्रेस का कपड़ा। और दोनो गाल स्रंग गर्त से नज़र आते थे। मुंह में दो दांत ही थे शायद, जो उनकी बत्तीसी के इतिहास की गवाही चीख चीख कर दे रहे थे। वो दांत अब शायद खाने के भी थे और दिखाने के भी। बदन को ढंकने के लिए एक सूती कुर्ता था। लगता था उस कुर्ते ने काफी दिनों से निरमा नहीं खाया होगा। लेकिन जो धोती उन्होंने पहन रखी थी वो काफी उजली थी। लगता था उसे रिन सुप्रीम का भोग लगाया गया हो।
खैर ये तो था बाबा की हैल्थ का एक छोटा सा परिचय। अब कुछ दिलचस्प बातें। कुछ देर बाद बाबा ने अपनी जेब से दूरभाष यंत्र निकाला। लग रहा था किसी से बात करने के मूड में हैं। लेकिन मजा तो तब आया जब बाबा ने उस बड़े से दिख रहे मोबाइल को चलाने के लिए स्टिक का प्रयोग किया। अब आप ही अनुमान लगाइये कि सीन क्या रहा होगा। बाबा बैठे हैं ट्रेन में और मिला रहे हैं किसी अपने का नंबर।वो भी स्टिक से। इस बीच मुझे ये पता लगा कि बाबा के पास जो मोबाइल था वो एचटीसी का था। लेकिन बाबा तो जैसे उस मोबाइल से बड़े फैमिलियर थे।
अब वो नंबर मिल चुका था जिससे बाबा बात करना चाहते हैं। पहली दुआ सलाम से ये पता लग चुका था कि डायल्ड नंबर उनके घर का है। बात शुरु होती है। हैलो के उच्चारण के साथ । उधर से पॉजिटिव रिस्पॉन्स मिलने के बाद बाबा ने हा बहू हम ट्रेन मा बैइठि गए हैं। औ सुबह तक शइजहांपुर पहुंचि जइहीं। बाबा अपनी लोकल लैंग्वैज में बात कर रहे थे। बात जारी है फोन पर। हाल चाल लिए जा रहे हैं। ऐसा लग रहा था कि काफी दिनों बाद घर वापस जा रहे है। बहू जा बताबऊ कि छुट्टन की तबियत हरी भइ की नाई। अभी नाई पिता जी । शायद कुछ ऐसा ही जवाब आया था बहू की तरफ से । क्योंकि बाबा के चेहरे पर छुट्टन की तवियत को लेकर उदासी के भाव थे। इस बीच फोन बहू ने किसी और को दे दिया। उधर से मर्दानी ध्वनि सुनाई दे रही थी। पाइं लागूं पिता जी । जीते रहऊ बाबा की तरफ से आशीर्वाद के रुप में। दुकान ठीक चलि रही हअइ कि नाइ। हां ठीकइ चलि रई हइ। पिता जी कब लऊ आइ रए। भुरारे पहुंचि जइहीं, बाबा का जवाब था ये बेटे के पूछे जाने पर। बात करते करते 20 मिनट हो चले थे। लेकिन बाबा तो लगता फुल चार्ज थे । फोन रखने का नाम ही नहीं ले रहे थे। लेकिन इस बीच ये फोन रखने की नौबत तब आई जब सिगनल चले गए । और फोन अचानक ही कट गया । बाबा का चेहरा देखने वाला था उस समय दूरभाष मिनिस्ट्री को सैकड़ों खरी खोटी सुना दी। ससुरे पता नाइ का करत हइं। पइसा निरो लइ लेत सरकार से अऊ टाबर कहूं नाइ लगाउत। बात ससुरी बीचइ मा कटि जात। खैर इस बीच सिगनल फिर आ जाते हैं। और उनका बेटा उधर से ही फोन मिला देता है। उनके फोन पर जो गाना बज रहा था। वो था ‘आए हो मेरी जिंदगी में तुम बहार बनके’। मेरी हंसी चरम पर थी। भइ कमाल के बाबा हैं। क्या गाना लगा रखा है। कब्र में पैर लटके हैं और अभी भी किसी के इंतजार में जवान बने रहने की चाहत है।
बाबा और बेटे की बात फिर शुरु हो जाती है। लेकिन अभी भी वही हाल चाल पर ही बात हो रही है। बातचीत का ये सिलसिला दस मिनट तक चला होगा। बाबा बोले अइसो करऊ अब रक्खि देऊ फोन। रोमिंग लगि रही हइ। हमारो भी कटि रहो। और तुम्हारो भी पइसा कटि रहो। फायदा कोई नाइ। इस बीच एक बार फिर बाबा ने दूरभाष मंत्रालय को गरिया दिया। फोन पर बाबा ने इतिश्री कर दी।
अब चालू होता है फोन से फोटो लेने का सिलसिला। मन ही मन हंसी आ रही थी मुझे। बाबा के हाथ उस स्टिक से इतने फैमिलियर थे कि पूछिए मत। धड़ाधड़ फ्रेम बनाकर बाबा ने बीस पच्चिस फोटो खींच डालीं। साथ ही बना डाली रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों की वीडियो भी। फोटो खींचते-खींचते और वीडियो बनाते-बनाते बाबा बोर हो चुके थे, तो अब बारी थी । गाने सुनने की। बाबा ने मीडिया प्लेयर खोला और कइ सारे गानों को एक साथ उस स्टिक के माध्यम से सेव कर लिया। मैने सोचा बाबा पुराने जमाने के हैं। तो कुछ पुराने गाने ही सुनेंगे। लेकिन जो गाने उन्होंने सुने वो उनकी जवानी का इतिहास बताने के लिए काफी थे। कि बाबा ने अपनी जवानी के समय खूब गुल खिलाए होंगे। जो गाने मैने उनके मोबाइल पर सुने वो थे। फूलों सा चेहरा तेरा कलियों से मुस्कान है, परदेसी परदेसी जाना नहीं मुझे छोड़ के, दिल धड़के मेरा दिल धड़के कोई नहीं जाने बाबा क्यों धड़के (बाबा सहगल की अलबम वाला गाना था ये), कुल मिलाकर जो भी गाने बजाए जा रहे थे, वो प्यार मोहब्बत से लबरेज़ थे। और ये चित्रहार का सिलसिला अगले तीन घंटे तक चलता रहा । ट्रेन भी बरेली पहुंचने वाली थी। जहां से मेरा घर शाहजहांपुर मजह 70 किलोमीटर ही था।
चूंकि बाबा जानी को हमारे ही डेश्टिनेशन पर उतरना था। सो बस अब दोनो को शायद इसी बात का इंतजार था कि कब शाहजहांपुर आए। सुबह के पांच बजने वाले थे, उस दिन लखनऊ मेल कुछ धीमी थी, शायद तभी पांच बजे तक बरेली ही पहुंची थी। लेकिन बतोलेबाज बाबा के चक्कर में सफर का पता ही नहीं चला । सचमुच मेरे लिए ये सफर अनोखा था।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

मैं हिंदुस्तान हूं

मैं हिंदुस्तान हूं
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
इन सबकी शान हूं
मैं हिंदुस्तान हूं
मेरी धरा ही, मेरी मां है
मेरी अपनी भारत मां
खून से सींची इस धरती पर
नाज़ मुझे हर दम रहता
इस मिट्टी में जन्मे जो
है गर्व उसे हर पल रहता
एक टीस मुझे जब-तब रहती
जब गुलाम भारत था मैं
उखड़ी सांसे
मां की तड़पन
और तड़प, हिंदुस्तां की
याद रहेगी हर पल मुझको
उनकी उस कुर्बानी की
दगती तोप, चली थी गोली
भारत मां की छाती पर
सिसक, सिसक
हर कोई रोता
अपनी मां के आंचल पर

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

सफ़र

उस आने वाली बारिश की बूंदो ने
हवा को, श्रंगार का अहसास कराया।
घर की कुछ यादों का,
दोस्तों की चटपटी बातों का,
और मां के दुलार का,
मन को बहुत कुछ याद आया,
उस सफ़र में।
छुक-छुक दौड़ रही थी गाड़ी
मेरे घर की ओर।
खेतों को सहलाती पवन,
खेल रही थी,
खेल कुछ और।
काली घटाओं से,
आच्छादित था अंबर,
शायद बारिश ही आने वाली थी।
वो शीतल समीर,
तन के हर हिस्से पर,
मरहम लगा रही थी।
मरहम, उस अकेलेपन पर,
जो उस सफ़र में,
दर्द बनकर कचोट रहा था।
याद दिला रहा था,
बीते हुए वक्त को
गोधुली बेला में, धूल के गुबार,
शांत पड़ने लगे थे,
रिमझिम फुहार सी, गिरने जो लगी थी,
आंचल फैलाई बारिश
सोंधी मिट्टी की खुशबू को
आगोश में लेने लगी थी।
खेतों के किनारे
उस माटी की मढ़इया से
कुछ आंखें, आकाश की ओर, निहार रहीं थीं
इस आस में,
कि और बारिश हो।
और बारिश होती भी रही
उस पूरे सफ़र भर।
लेकिन प्रकृति की माया अजीब है
कहीं धरा प्यासी है
तो कही जलजला है
नियति का खेल ही ऐसा है
कि ज़िदगी के सफ़र में
हर ख्वाहिश अधूरी है
और हर अधूरी, ख्वाहिश
जहां खुशी है
वहीं गम भी
और इनको जीने वाला
एक अच्छा हमसफ़र है...