मंगलवार, 4 अगस्त 2009

सफ़र

उस आने वाली बारिश की बूंदो ने
हवा को, श्रंगार का अहसास कराया।
घर की कुछ यादों का,
दोस्तों की चटपटी बातों का,
और मां के दुलार का,
मन को बहुत कुछ याद आया,
उस सफ़र में।
छुक-छुक दौड़ रही थी गाड़ी
मेरे घर की ओर।
खेतों को सहलाती पवन,
खेल रही थी,
खेल कुछ और।
काली घटाओं से,
आच्छादित था अंबर,
शायद बारिश ही आने वाली थी।
वो शीतल समीर,
तन के हर हिस्से पर,
मरहम लगा रही थी।
मरहम, उस अकेलेपन पर,
जो उस सफ़र में,
दर्द बनकर कचोट रहा था।
याद दिला रहा था,
बीते हुए वक्त को
गोधुली बेला में, धूल के गुबार,
शांत पड़ने लगे थे,
रिमझिम फुहार सी, गिरने जो लगी थी,
आंचल फैलाई बारिश
सोंधी मिट्टी की खुशबू को
आगोश में लेने लगी थी।
खेतों के किनारे
उस माटी की मढ़इया से
कुछ आंखें, आकाश की ओर, निहार रहीं थीं
इस आस में,
कि और बारिश हो।
और बारिश होती भी रही
उस पूरे सफ़र भर।
लेकिन प्रकृति की माया अजीब है
कहीं धरा प्यासी है
तो कही जलजला है
नियति का खेल ही ऐसा है
कि ज़िदगी के सफ़र में
हर ख्वाहिश अधूरी है
और हर अधूरी, ख्वाहिश
जहां खुशी है
वहीं गम भी
और इनको जीने वाला
एक अच्छा हमसफ़र है...

3 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

जहां खुशी है
वहीं गम भी
और इनको जीने वाला
एक अच्छा हमसफ़र है...
िन्हीं शब्दों मे पूरे जीवन का सार बता दिया आपने आभार बधाई

ओम आर्य ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना है पर सात आप खुश नसीब हो की हम्सफर भी हमख्याल है ......अतिसुन्दर

Madhukar ने कहा…

दिल्ली चली गांव की ओर