सोमवार, 29 मार्च 2010

महामना लंपटेश्वर चमचा, सर्वत्र व्याप्तये

चमचों का इतिहास कलिकाल से चला आ रहा है। सबने अपने अपने चमचे बनाए। और चमचे थे कि बनते चले गए। कलिकाल की परंपराओं को जीवत रखना वर्तमान का ठेका है। इस लिहाज़ से हर कोई परंपराओं का ठेकेदार है। चमचैली परंपरा इन्हीं कारणों से जीवित है। सभी इसको जीवित रखना चाहते हैं। क्योंकि बगैर चमचा आज के युग में कोई कार्य नहीं हो सकता। चमचा बनना मिसाल है, ताकत है, बुद्धि है, विज्ञान है, जुगाड़ है, और मजबूरी भी है। जिसके पास ऊंचा ओहदा है। उसके पास चमचों की कमी नहीं। या यूं समझें, चमचे उसी के पास होंगे जो ऊंचे ओहदे पर विराजमान होगा। कुलयोग किया जाए तो चमचा सूक्ति कुछ इस प्रकार बनती है। ‘महामना लंपटेश्वर चमचा, सर्वत्र व्याप्तये’।
गौर कीजिएगा, कि कांग्रेस वाली बड़ी मैडम के पास खूब चमचे हैं। उत्तर प्रदेश वाली बहन जी के पास खूब चमचे हैं। बीजेपी के नवीन अध्यक्ष के कई चमचे बन गए हैं। ठीक उसी प्रकार से एक मैडम और भी हैं। जिनके खूब चमचे हैं। इन चमचों के पास बुद्धि है, विवेक है, चालाकी है, मिथ्या है, और है पटाने का ढंग। जो एक कुशल चमचे के लिए बेहद जरुरी है। ऐसे भी कह सकते हैं। कि इतने सारे गुणों से लबरेज़ इंसान ही एक सफल चमचा हो सकता है। मैडम के इर्दगिर्द व्याप्त चमचे हमेशा ही बिलबिलाते रहते हैं। कभी बिजली के बिल के लिए। कभी स्टेशनरी के बिल के लिए, कभी फोन के बिल के लिए, कभी किसी के लिए। बस मैडम पटाऊ तकनीक हमेशा ढूंढते रहते हैं। और ऐसी तकनीकों की इनके पास कमी भी नहीं रहती । पिछले कई दिनों से चमचों ने संगठन में विकास मेरा आशय विनाश से है, की ऐसी बयार बहाई है कि गुलाब की खुशबू भी अब जुलाब के बाद का रिजल्ट हो चुकी है।
महामना लंपटेश्वर समुदाय पिछले कई दिनों से प्रगति पर है। और जो लंपट नहीं हैं। वो विकासशील भी नहीं हैं। यानि लंपट और विकास का भी सीधा संबंध होता है। लंपट हो तो विकास है। लंपट नहीं हो। तो विकास भी नहीं है। लगता है विकास की आधुनिक परिभाषा भी लंपटों के हाथों से ही लिखी जाएगी। और टुटपुंजिए धरे के धरे रह जाएंगे।
वैसे एक बात तो है कि टुटपुंजिए अपनी गैरविकास तकनीकों को लंपटों पर मढ़ देते हैं। क्योंकि वो विकास कर नहीं पाते । और लंपटों के विकास से ईष्या होती है। बेचारे टुटपुंजिए आज भी विकास की राहें गढ़ने को सड़कें खोदे पर पड़े हैं। और लंपट हैं कि जोर-जुगाड़ से सड़क बनाने का क्रेडिट खुद ले लेते हैं। बाप बड़ा न भइया, सबसे बड़े लंपट भइया। बड़े इसलिए कि वो जानते हैं कि विकास किस विधि करना है।
कुछ रोज की बात है । एक लंपट चमचा बड़ा उदासीन नजर आ रहा था। वो मैडम की चमचई से आजिज आ चुका था। क्योंकि उसकी चमचागिरी का पारिश्रमिक उसे नहीं मिल पा रहा था। कुछ ऐसा भी था। कि बड़े चमचे छोटे चमचे पर हावी हो चले थे। जो उसका पारितोषिक मार रहे थे। मैने उसके मजनू छाप चेहरे को देखकर उससे कुछ पूछा तो नहीं। लेकिन उसने खुद ही बता दिया । कि भइया, मैडम बड़ी हराम हो गई है। जो कुछ अच्छी जुगाड़ चल रही थी। वो अब नहीं हो पा रही है। मैने कहा, भइया देखो गलती मैडम की नहीं । गलती तुम्हारी है। तुम चमचागिरी का प्रमोशन नहीं ले पाए। और दूसरे तुमसे बड़े कम समय में बड़े चमचे बन बैठे। तुम्हारे पास तो चमचागिरी का पांच साल का अनुभव था। लेकिन तुम अनुभव का फायदा ही नहीं उठा पाए। जरा उन्हें देखो पांच महीनों में ही चमचागिरी के मैनेजिंग एडिटर हो गए हैं। मैडम की सारी व्यवस्थाएं देख रहे है। आलम ये है प्यास मैडम को लगती है। तो पानी वो पी लेते हैं। दिसा मैडम को लगती है। तो मैदान वो हो लेते हैं। सिग्नेचर मैडम के होने होते हैं। कर वो देते हैं। वाकई मैडम ने बड़ी जल्दी प्रमोशन दे दिया उसे। और तुम हो कि। हुंह धिक्कार है तुम्हारी चमचागिरी पर।
इतना सुनने के बाद हैरान परेशान छोटा चमचा बोला यार क्या बताऊं मेरी मजबूरी थी। जो मैडम के साथ हो लिया। ईमान-धर्म सबकी बलि देकर उनका कार्य निपटाता रहा । लेकिन ढपोरशंखों ने मेरी पीठ में ही छुरा घोंप दिया। मुझसे ही चमचई के सारे गुण सीखे और मेरे ऊपर ही उनका प्रयोग भी कर दिया। मैने कहा, तो अब भुगतो। ओखली में सिर दिया था। और मूसलों के वार से चोट लगती है।
बेचारे चमचा जूनियर की हालत खस्ता थी। और मैं उसे ऐसे सुना रहा था। जैसे वो मेरा कोई दुश्मन हो। उसके दुख और दर्द की सीमाओं का कोई ओर छोर नहीं था। वो कुत्सित हो चुकी व्यवस्था से त्रस्त था। लेकिन ये बीज उसी के बोए हुए थे। जो अब फल के रुप में उसके सामने आ रहे थे। चूल्हे में अगर कंडे डालो तो धुआं होता ही है। उस धुएं से आंखों में जलन भी होती है। चमचा जूनियर भी कुछ ऐसा ही कर बैठे थे। आधुनिकता के दौर में चूल्हा जलाया और उसमें कंडे ठेल दिए । अब बगैर धुएं आग की गुजारिश कर रहे हैं। जो फिलहाल संभव नहीं। धुएं का कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

गर्म-आहट

सिकुड़ती रात
बाहें फैलाता दिनकर
सर्द हवाओं पर
अब अधिकार जताती
गर्महवा
सच ही है
वक्त से पहले दस्तक दे चुकी है
गर्म-आहट
बदन पर चिपचिपा पसीना
गले में पानी की कमी से
चुभते शूल
शुष्क हवा के साथ
उड़ती धूल
फाग में मुरझा चले हैं
धरती पर कुछ निरीह फूल
ऊपर अंबर
नीचे धरती की बढ़ती बेचैनी
जीव धरा के व्याकुल से हैं
और हवा में पंछी
निडर आसमां
में घबराहट
और घबराहट है गंगा में
छांव मांगता पीपल अपना
उस बैरागी सी यमुना में
अब घुलती जाती गर्माहट
अब घुलती जाती गर्माहट

गुरुवार, 18 मार्च 2010

मइय्यत से पेज थ्री तक ‘मेकअप वाली भठियारन’

(मैडम को भठियारन का टाइटिल इसलिए दिया जा रहा है। क्योंकि एक रसूख युक्त खानदान में जन्म लेने के बाद भी वो अपने जीवन में सिर्फ भाड़ ही झोंक पाईं थी। वो इंसान का रक्त चूस कर उस रक्त को भाड़ में घासलेट की तरह इस्तेमाल किया करती थीं।)
मइय्यत थी, तो याद आया मैडम भठियारन को। कि आज सफेद साड़ी पहननी है। लाली नहीं लगानी है। नाखूनी(एलीट रुप में नेल पॉलिश) नहीं लगानी है। बाल ड्रायर से नहीं सुखाने हैं। गले में हार-जीत नहीं पहननी है। नाभी में नथ नहीं डालनी। कानन-कुंडल नहीं डालने। हाथ में काली जुराब नहीं पहननी। चेहरे पर फाउंडेशन नहीं लगानी । इत्र फुलेल से कोसों दूर रहना है। और एक शरीफ ढोंगी की तरह दिखना है। जनाज़े वाला घर किसी दुख प्रदर्शन वाली पार्टी का घर होता है। ऐसा भठियारन मानती थी। जहां पहले से ही कई ढोंगी अपने विभिन्न स्वांग का प्रदर्शन कर रहे होंगे । वे ऐसा ही सोच कर किसी की मइय्यत में जाती थी। कुल कर मिलाकर आलम जो बनता था। वो ये था कि हंसनी इस बार कौवे की चाल चलने को मजबूर हो रही थी। वो आज से पहले हंसनी ही थी। वो ही ऐसा मानती थी। हमारी नजरों में तो वो कौवा ही थी।
मैडम अब अपनी फुर्र-फुर्र फरारी से मइय्यत वाले घर को निकल चुकी थीं। मन ही मन उन विधियों के बारे में सोच रही थीं। कि कैसे लोगों को चूतिया बनाना है। यानि संवेदनशील होने का ढोंग किस विधि से करना है। हालांकि ये कोई पहला मौका नहीं था जब पेज थ्री वाली मैडम को किसी की मइय्यत में जाने का मौका मिला हो। इससे पहले भी वो कई बार वो लोगों को बड़ी सफाई से बेवकूफ बना चुकी थीं। लेकिन हर बार रचनात्मक विचारों के साथ भी चूतिया बनाना होता है। इसलिए वो फुर्र फुर्र फरारी में कुछ सोच रहीं थीं। मैडम की सोच पर कलियुगी तुलसीदास की कुछ पंक्तियां याद आती हैं ‘केहि विधि नाथ बनावऊं चुतिया तोरा’।
करीब एक सौ तीस किलो मीटर प्रतिघंटा की चाल से मैडम दुख मानने पहुंच चुकी है। उस घर में जहां कोई परालौकिक हो चुका है। माहौल पुरानी फिल्मों में प्रेमिका के पुरुष मित्र की मृत्यु सरीखा दिखाई पड़ रहा है। बैक ग्राउंड में चल रही सैड धुन माहौल को करुणामई बना रही है। घर में मौजूद सौ डेढ़ सौ लोग दुख प्रकट करने को पिले हुए हैं। कुछ ढोंगी हैं तो कुछ वास्तव में दुख प्रदर्शित करने को आए हुए हैं। तभी फुर्र फुर्र फरारी वाली मैडम घर में प्रविष्ट होकर माहौल का जायज़ा लेती है। देख रही हैं। कि कौन-कौन किस-किस विधि से दुखी दिखने की कोशिश कर रहा है। मैडम को पता नहीं क्यों इस अपने आप को दुखी जैसा प्रकट करना किसी चुनौती जैसा लग रहा है। शायद वो लेट पहुंची थीं इसलिए।
लगभग पंद्रह मिनट तक माहौल का जायज़ा लेने के बाद। घड़ियाल (एलीट मैडम) की आंखों में आंसू दिखाई देने लगे। करुणा का सागर आंखों से छलक रहा था। और लोग बरबस ही चूतिया बने जा रहे थे। मैडम अपने मकसद में कामयाब हो चली थीं। और अब जो आंसू दिखाई दे रहे थे। वो दुख के नहीं बल्कि खुशी के थे। क्योंकि वो कई लोगों से आगे निकल चुकी थीं। दुख प्रदर्शन के मामले में। दुख की बेला में खुशी के आंसू। नज़ारा कैसा होगा। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। इस बीच जब वो अपने रेशमी रुमाल से चेहरे पर पोछा लगातीं। तो इस बात का भी ध्यान रखा जाता कि उनके गालों की झुर्रियां दिखाई न दें। यानि चेहरे पर रुमाल रुई के किसी फाय की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा था।
कई लोग अब एलीट मैडम के चेहरे पर तनाव देखकर उनसे मिलने आने लगे थे। सभी को पता था कि मैडम रसूख युक्त हैं। इसलिए ज्यादातर लोग उनसे इसी लिए मिल रहे थे क्योंकि मैडम कई संगठनों की मालकिन थीं। और इस खास मौके पर मेल मिलाप भावी जुगाड़वाद में तब्दील हो सकता था। कई लोग अब उस परिवार का दुख छोड़ मैडम के व्यक्तिगत दुख में शरीक हो चले थे। लेकिन कुछ लोग बीच-बीच में ये कहना नहीं भूल रहे थे। बड़े अच्छे इंसान थे। चले गए। अभी उम्र ही क्या थी। हालांकि जिसकी मौत हुई थी। वो 95 साल का था। और बड़ी ही शालीन मौत मरा था। लेकिन फर्जी लोग। फर्जी बातें। फर्जी संवेदनाएं उस दुख भरी महफिल में चलन में आ चुकी थीं। मैडम को मइय्यत में आए एक घंटा हो चुका था। और इन साठ मिनटों में मैडम, ढोंग के सिर्फ तीस आंसू ही गिरा पाईं थीं शायद। इस बात का उन्हें अफसोस भी था। वो चाहती थीं। कि उनके आंसू उस महफिल में दुख की सुनामी का कारण बन जाएं। लेकिन वो ऐसा कर न सकीं।
समय बीतता जा रहा था। और मैडम अब ऊब रही थीं। शायद उन्हें कहीं जाना था या किसी का इंतज़ार था। क्योंकि वो बार-बार अपनी नाजुक कलाइयों पर बंधी घड़ी को घूर रही थीं। निसंदेह पहली वाली बात ही सही होगी क्योंकि मइय्यत में और दुखियारों का इंतज़ार करना उनकी बर्दाश्त से बाहर की बात थी। यानि अब उन्हें कहीं तिड़ी होना था। शायद किसी पार्टी में। या फिर कहीं और। यहां भी पहली वाली बात ही सही निकली । क्योंकि अब वास्तव उन्हे कोई पेज थ्री वाली पार्टी भी निपटानी थी। लिहाज़ा वो सबसे और सब उनसे विदा लेकर निकल लिए। अपने-अपने गंतव्य की ओर। फुर्र-फुर्र फरारी अब सीधे उनके निजी सौंदर्यालय (ब्यूटी पार्लर) की ओर रुख कर चुकी थी। ये ब्यूटी पार्लर मैडम के इमरजेंसी पीरियड में काम आता था। जैसे जब वो अपने घर से बन संवर कर न निकल सकीं हों। तो वो रास्ते में अपने निजी सौंदर्यालय में जाकर बन ठन लें। मैडम की उम्र जरुर पचास की थी। लेकिन सौंदर्य प्रसाधनों के गजब के इस्तेमाल ने उनकी रुप रेखा को आज भी जीवित रखा था। सही मायने में तो ये कहें कि जितना सुंदर वो मेकअप के बाद खुद को समझतीं थी। वास्तव में उतनी थीं नहीं। क्योंकि उम्र के पड़ाव पर कोई मेकअप काम नहीं आता। आखिर कब तक छिपातीं अपनी ढलती उम्र को। वो तो भला हो आधुनिक सौंदर्य प्रसाधनों का जो इस पंच लाइन के साथ बाज़ार में उतरती हैं। कि ‘आप की त्वचा से तो आप की उम्र का पता ही नहीं चलता’। लेकिन मैडम की त्वचा का पता जैसे तैसे चल ही जाता था। फिर भले ही वो कितना रंग रोगन ही क्यों न कर लें।
अब मेकअप वाली भठियारन सज धज कर पेज थ्री वाली पार्टी की ओर रुख कर चुकीं थी। यहां मैडम ने उन सारे सौंदर्य प्रसाधनों इस्तेमाल किया था। जिनका इस्तेमाल उन्होंने मइय्यत वाली कथित पार्टी में नहीं किया था। पचास की उम्र में ताजे मेकअप ने उन्हें पैंतिस का बना दिया था। इससे वो खुश भी थीं। उनकी खुशी इस बात से पता चलती थी। कि गाड़ी में बैठकर महज दो किलोमीटर की दूरी में ही वो बीस बार आइना निहार चुकीं थी। बेशर्म आइना अगर कुछ बोल सकता तो उन्हें उनकी औकात बता ही देता।
मैडम पार्टी में पहुंच चुकी हैं। पार्टी में बिल्डर, फिल्मकार, कलाकार, पत्रकार इत्यादि इत्यादि मौजूद हैं। सभी बड़े प्रोजेक्ट की चर्चाओं में मशगूल हैं। कई लोग मइय्यत से ही बगैर किसी चेंज के पार्टी में पहुंचे थे। लेकिन मैडम फुल चेंज थीं। उनका बदला बदला सा नूर नज़र आता था। बालों में खिजाब, मुंह पर मेकअप का लेप नज़र आता था। सभी की नजरें अकस्मात् ही मैडम पर टिक जाती हैं। और पुन: उन्हें ठीक वैसे ही घेर लिया जाता है। जैसे कई सारे कुत्ते कातिक के महीने में एक कुतिया को घेर लेते हैं। और उस अकेली कुतिया पर अपना अधिकार जताने की कोशिश करते हैं। यहां भी मैडम अपनी टीआरपी से खुश थीं। उनके हम उम्र कई लोग उन पर लाइन मारने को उतारु थे। लाइन मारने की सभी की अलग-अलग अदा थी।
इस पार्टी में जो बात चर्चा का विषय थी। वो ये थी कि हाल ही में मैडम ने एक गैर जिम्मेदार संगठन खोला है। मेरा मतलब गैर सरकारी संगठन से है। कई लोगों को साथ लेकर इस संगठन की स्थापना की गई है। लिखित रुप में इस संगठन का मकसद गरीब और बेसहारा लोगों की मदद करना है। लेकिन किताबी बातें किताबी ही होती हैं। संगठन का असल मकसद लोगों का असामाजिक कार्यों से ध्यान बंटा कर उस गैर सरकारी संगठन की ओर ध्यान केंद्रित करना था। जो गैर जिम्मेदार था। मैडम के दूसरे संगठनों में कार्यरत सभी मजदूर इस बात को जानते थे। लेकिन चुप रहते थे। नौकरी चली जाने का डर था।
अपवाद स्वरुप किसी बड़े लेखक ने ठीक ही कहा था। कि औरत के हाथ में सत्ता और शासन का जाना वैसे ही खतरनाक होता है। जैसे जंगल में किसी शेर के सामने बकरी को खड़ा कर देना। बकरी की शामत आनी ही है। ठीक वैसा ही डर मैडम के मजदूरों के मन में भी था। बहरहाल पार्टी में गैर जिम्मेदार संगठन को लेकर चर्चा जारी थी। मैडम उपलब्धियों को उंगली पर गिनाए जा रहीं थीं। सच भी यही था कि उनकी उपलब्धियां उंगलियों पर ही गनाई जा सकतीं थी। लेकिन उनके चुतियापे भरे कारनामों के लिए हजार पेज की डायरी भी कम पड़ेगी।

सोमवार, 8 मार्च 2010

वैचारिक चुतियापा, और “मन भठिया चित्त भुसौरी”

वो विचारशील भी थे। और चूतिया भी। कहने में भी उतना ही अंतर था। जितना करने में। कभी किसी की सुनी नहीं। हमेशा अपना हाथ जगन्नाथ समझा। फिर भले ही हाथ में कोढ़ ही क्यों न हो गया हो। वो जो कर रहे हैं, जिन हाथों से कर रहे हैं, बस कर रहे हैं। किसी से कोई मतलब नहीं। गर्दभ राज की तरह उनकी ढेंचू-ढेंचू लोग सुनें। इसलिए वो हमेशा ही कुछ न कुछ ऐसा ही करते थे। जो जनमानस के विरुद्ध हो। यानि उनके अनुकूल हों।
ये मुक्तसर सा कैरीकुलम है दक्ष कुमार का। दक्षप्रजापति का नहीं। जैसा कि इनके नाम से ही इंगित होता है कि ये हर मामले में बड़े ही प्रवीण होंगे, वास्तव में प्रवीण हैं भी। इनके नाम के मुताबिक ही इनके काम बड़ी ही दक्षता के साथ निपटाए जाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी दक्ष झुमरी तलैया के निवासी हैं। और रेडियो नहीं सुनने के लिए भी जाने जाते हैं। संज्ञान में कि झुमरी तलैया से काफी रेडियो श्रोता पैदा हुए हैं। और शायद होते भी रहेंगे। लेकिन दक्ष कुमार को जो पसंद था वो कुछ इस प्रकार है। बतौर ऑलराउंडर वो हर काम करना चाहते हैं। सिवाए किताब पढ़ने के। उनके ज्ञान का शिला लेख महज़ के कंकड़ के जितना ही छोटा है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि किसी की शक्ल देखकर उसके ज्ञान का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । वैसा ही दक्ष कुमार के साथ भी था। काम के सिलसिले में हमेशा उनके चेहरे पर बारह बजे रहते हैं। और वो सड़कों पर किसी न किसी काम की तलाश में हमेशा फंटियाते रहते है। और सबसे बड़ी बात ये है कि उनका अनुकूलन वहीं से शुरु होता है, जहां से लोगों को उनकी कार्यप्रणाली पर विरोध होता है। ये विरोध कैसे होता है। खुद ही देखिए।
झुमरी तलैया में बत्ती ज्यादातर गुल रहती है। कहीं फेस आता है, तो कहीं नहीं आता। दृश्य कुछ ऐसा बनता है कि आपके घर बिजली नहीं होगी । और बीस मीटर पर बल्ब जलता दिख जाएगा। ऐसी विडंम्बनाओं से दो चार होने का नाम ही है दक्ष कुमार। समस्या जहां से शुरु होती है, वहां दक्ष पाए जाते हैं। और समस्या जहां खत्म होकर फिर शुरु होती है। वहां भी दक्ष पाए जाते हैं। खैर गुल बिजली से घरों को रोशन करने का जिम्मा दक्ष कुमार के ही कंधों पर है। सरकारी मुलाजिम देर से सीढी लेकर आते हैं। लेकिन फुर्तीले दक्ष महज एक रस्सी के माध्यम से किसी बंदर के मानिंद खंबों पर लटक जाते हैं। और इधर की कटिया उधर करते हैं। उधर की कटिया इधर । और एक आवाज़ लगाते हैं। कि देखऊ नंदू भइया का बिजली आई। हां आई गई भइया। इस बीच चार पांच लोगों के घर बिजली चली जाती है। तो दक्ष को खंबे पर चढ़ा देख मुहल्ले वाले गरियाने लगते हैं। ए ग्रेड गालियों के आदी हो चुके दक्ष के लिए ये कोई मुश्किल वक्त नहीं था। कि कोई उन्हें गरिया रहा हो। और ऐसे समय पर जब वे बिजली के खंबे पर बंदर की तरह लटके हों। मर्दमराठा बीवी से गालियां सुनते-सुनते उनके कान मुहल्ले वालों की गालियां सुनने के भी आदी हो चुके थे। और अब उन्हें किसी की गाली का कोई फर्क नहीं पड़ता । चालीसा पार कर चुके दक्ष जिस तार को दिन में लगाते थे। उसी तार को रात में जरुरत पड़ने पर काट भी लिया करते थे। ये उनका निजी विचार होता था।
ऊलजलूलू विचारों के धनी दक्ष के लिए किसी की साइकिल पर हाथ साफ करना और उसे पांच मिनट से पहले ठिकाने तक पहुंचा देना कोई बड़ी बात नहीं थी। मुहल्ले में सफाई का ठेका हो, तो दक्ष आगे । किसी की पिटाई का ठेका हो, तो दक्ष आगे। वाह रे दक्ष। हर काम खुराफाती अंजाम के साथ निपटाना उनकी एक अच्छी आदत है। खुद उनके अनुसार। क्योंकि जब से उन्होंने होश संभाला, तब से कई लोग उनके कष्टकारी कदमों से अपने होश खो बैठे थे।
एक रोज़ की बात है जब मुहल्ले में एक बंदर मर गया थ। उसे ठिकाने लगाने का ज़िम्मा भी उन्हीं के सिर था। यहां कहेंगे कि मन भठिया चित्त भुसौरी । वो ऐसे कि उनका एक मन ये कहता था। कि वो बंदर की अर्थी बाइज्जत शमशान तक पहुंचाएं। दूसरा मन कहता था। कि उस बंदर की लाश पर एकत्रित चंदे को अपने निजी इस्तेमाल में लाकर बंदर को बोरे में बंद कर नदी में प्रवाहित कर दें। निसंदेह दूसरा आईडिया ही उन पर फबता था। और बस ऐसा ही हुआ। बंदर की मइय्यत पर एकत्रित चंदा उनके निजी इस्तेमाल में ही प्रयोग किया गया । मुहल्ले वालों को हवा भी लगी, कि एकत्रित चंदा दक्ष के निजी हितों में इस्तेमाल किया गया । लेकिन सभी दक्ष के विचारों से वाकिफ थे। बोलना मुंह पिटवाने जैसा था। दक्ष भला कैसे बाज आते। दक्ष को ऐसे कामों के लिए मन भठिया नाम दिया जा सकता है। जो भाड़ झोंकने में माहिर कहे जाते हैं। फिर भाड़ में चाहें कोएला हो या न हो।
उनकी वैचारिक चुतियापे की एक निजी कहानी ये भी है। कि दक्ष ने कुछ न सीखा हो। लेकिन अपनों के ठिए में आग लगाना खूब जानते थे। त्यौहारी मौसम हो, साहलक हो, या उनके घर में निजी फंक्शन, चोरी की आदत को एक विचार मानकर हर जगह हाथ की सफाई दिखा दिया करते हैं। और अगले दिन मुहल्ले में खबर को आग की तरह फैलाकर अपने आप को गौरवशाली महसूस करते हैं।
ये दक्ष कुमार की कुछ विधाएं हैं। जिनके बल पर उन्होंने मुहल्ले में अपने कार्यों का लोहा मनवाया है। निसंदेह उनके इस लोहे में जंग की बहुतायात है। लेकिन वो इस जंग को दूर करने के लिए मिट्टी के तेल का इस्तेमाल कतई नहीं करना चाहेंगे। क्योंकि यही लोहा उनके लिए तरक्की के नए आयाम खोजता है। तो कहिए जय दक्ष कुमार की।