मंगलवार, 18 जनवरी 2011

बिहारीनामा

नाम बिहारी था। लेकिन रहते उत्तर प्रदेश में थे। कंजूसी उनका पेशा था, जिसे वो तब से कर रहे थे, जब से होश संभाला। चार बच्चे अपने, और दो बच्चे पराए। ये दो बच्चे युवावस्था के कुटैवों का परिणाम थे जो उनके अनुसार अब गले की हड्डी थे। उनका पेशा सरकारी नहीं था, फिर भी एक सरकारी आवास उनके कब्जे में था, और मरते दम कई सरकारी फरमानों के बावजूद वो उसका मोह त्याग न सके। जसके परिणाम स्वरूप वो दरवाजा पकड़े-पकड़े इस लोक से इह लोक सिधार गए। मतलब दरवाज़े की कुंडी पकड़े-पकड़े उन्होंने अपने प्राणों को यमराज के हवाले कर दिया। इसमें भी थोड़ा संदेह है, कि इतनी आसानी से उन्होंने अपने प्राण यमराज के हवाले क्यों किए। जबकि वो तो निहायत ही ज़िद्दी किस्म के थे।



इस समस्या के निदान के लिए उनेक आलोचकों के खोजबीन विभाग ने जब अपने डोज़ियर सौंपे तो पता चला कि उन्होंने चित्रगुप्त से भी समझौता कर रखा था, कि उनके कुटैवों को संज्ञान में न रखा जाए, और दो चार भले कार्य जो उनके द्वारा भली भांति नहीं निपटाए जा सके थे, उन्हें ध्यान में रखा जाए। इसका सीधा अर्थ ये था कि वो नर्क नहीं जाना चाहते थे, स्वर्ग उन्हें प्रिय था। चूंकि मरण एक सत्य है, इसलिए वो स्वर्ग जाने की ख्वाहिश तब से पाले थे, जब से उन्होंने होश संभाला था, और मृत्यु के मर्म को जाना था। यही कारण था कि 60 की अवस्था में उन्होंने छिनैती, छेड़खानी, उठाईगीरी, और कंजूसी जैसी घिनौनी घटनाओं को अंजाम दे दिया था। अप्रत्यक्ष तरीके से पैसा कमाने का कोई भी विचार उनसे बच न सका था।



बचपन से ही जुगाड़ नामक वाहन पर सवार बिहारी इतना ही पढ़ सके थे, कि बस किसी अखबार का मास्टहेड देखकर पहचान जाते थे, कि वो अखबार कौन सा है। वैसे नोट गिनने की तकनीक भी उनकी साक्षरता को दर्शाती थी। उनकी जुगाड़ प्रवृत्ति के किस्से बीसियों मील तक फैले थे, ठीक वैसे ही जैसे बम पुलिस के जमादारों द्वारा न साफ की जा सकी जगह की बदबू। युवावस्था की उम्र में पांचवें तक बमुश्किल ही की जा सकने वाली उनकी पढ़ाई का एक वाकया बेहद मशहूर था, जब मास्टर पढ़ा रहा था लिंग भेद, और कह रहा था नपुंसक लिंग, तो वो समझे कि मास्टर ने उन्हें नपुंसक कह दिया, तो वहीं मास्टर के सामने दिखाने लगे अपनी मर्दानगी के सुबूत। मास्टर शर्मसार थे, लेकिन बिहारी तो बिहारी थे, मास्टर द्वारा न की जा सकने वाली बेज्जती भला कैसे बर्दाश्त होती। ध्यान रहे उनकी मर्दानगी के सबूत लेख की शुरुआत में ही दिए जा चुके है
उनके फलेफूले शरीर को देखकर जल-भुन जाने वालों की एक लंबी कतार थी। किसी विवादास्पद ढांचे की तरह उनका उदर पूरे शरीर पर एक साम्प्रदायिक दंगे जैसा था। जिसमें निश्चित तौर पर जीत उनके उदर की ही मानी जाती। उनके करामाती उदर के भी काफी किस्से थे। कुछ लोग जो उनकी उदरछटा का शिकार हुए थे, वो जब उनके बारे में कुछ बताया करते थे, तो मन वाह वाह कर उठता। क्योंकि जब कभी सफेद धोती में बिहारी सैर सपाटे पर निकलते, तो सड़क चलते ही उनका उदर बहक जाता, और उनके पीछे आने वाला आदमी अपनी नाक को बचाए फिरता दिखाई देता । कई बार तो आलम ये हो जाता कि जब कभी शरीर पर मौजूद विवादित ढांचा दस्त के साये में होता, तो ये साया उनके उस प्रलाप के साथ बाहर निकलता और उनकी धोती पर फाइन आर्ट की अद्बुत छटा बिखेर जाता, जिसकी वजह से लोग अपनी नाक बचाये फिरा करते थे। और उन फाइन आर्ट रुपी दागो से उन्हें कोई ऐतराज भी नहीं होता क्योंकि उनके लिए तो दाग अच्छे हैं। अजीबो गरीब और पूर्व सूचना के साथ बने इन नक्शों में छोटे छोटे राज्यों की झलक साफ देखी जा सकती थी। कुल मिलाकर उनकी धोती ऐतिहासिक जामा बन चुकी थी।
सीधे बोलना उनकी आदत थी। ऐसा नहीं था कि वो लखनऊ में बहन जी द्वारा कराए गए वर्टिकल डेवलपमेंट की तरह सीधे थे। कई बार उनकी ज़ुबान से निकला वर्टिकल वार उस क्रूज मिसाइल की तरह साबित होता, जिसे अक्सर अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान पर छोड़ा जाता था। जिसका नतीजा ये होता था। कि सीधी बात लोगों का कलेजा छलनी करते हुए मुंह के रास्ते अपशब्दों के माध्यम से बाहर आ जाती थी। और इसके बाद शुरु होता था फसाद-ए-मां बहन। जिसका जीवन रहते तो उन्हें कभी मलाल न हुआ।
विडंबना देखिए कि हाथ अचानक बिहारी नामा लिखते लिखते रुक गए। ऐसा नहीं कि लिखने का मन नहीं हो रहा। बस यूं समझिए कि इतना उनकी छवि के लिये काफी है। वैसे कहानी अभी अधूरी है जिसका ज़िक्र अपनी किताब में कभी किया जाएगा। आत्मा अजर है ।अमर है ।बिहारी मृत हैं। लेकिन फिर भी उनकी स्मृतियां आज भी लोगों के ज़हन में हैं। और खास बात ये कि चर्चाओं के बाज़ार में वो हमेशा की तरह अपनी धाक जमा ही लेते हैं।