मंगलवार, 26 मई 2009

वो चीफ प्रॉक्टर और वो चचेरा भाई

एक बार चीफ प्रॉक्टर ने विद्यालय में लगाया राउंड
लंबा था ग्राउंड
हाथ में डंडा
शक्ल से पंडा
रोबीला चेहरा देखकर
बच्चे सकपकाए
दौड़कर अपनी कक्षाओं में आए
किसी कक्षा में
कुछ बच्चे शोर कर रहे थे
और गालियों से अलंकृत कर रहे थे
चीफ प्रॉक्टर को गुस्सा आया
डंडा हिलाते हुए धमकाया
कि बोलो ये कुर्सियां किसने तोड़ीं
इस लड़के की खोपड़ी किसने फोड़ी
एक लड़का सीट पर तमतमा कर खड़ा हुआ
और बोला
गरुजी, डोनेशन चुकाया है
सीट पर बैठूंगा
अभी तो सर ही तोड़ा है
हाथ पैर तोड़ूगां
उस लड़के की उद्दंडता के पीछे कुछ राज़ था?
शायद किसी टीचर्स का ग्रुप उसके साथ था?
सभी टीचर्स चीफ प्रॉक्टर से खिन्न थे
उस छात्र की विलक्षण प्रतिभा के आगे प्रश्नचिन्ह थे?
एक बार चीफ प्रॉक्टर ने उस लड़के को
अपने ऑफिस में बुलाया
डंडा हिलाते हुए धमकाया
कि इस डंडे से सभी घबराते हैं
और प्रधानाचार्य जी थर्राते हैं
कि इस डंडे से सभी घबराते हैं
प्रधानाचार्य जी थर्राते हैं
लड़के ने हिम्मत दिखाई
ऑफिस में गोली चलाई
फायर हवाई था
वो और कोई नहीं
प्रधानाचार्य जी का चचेरा भाई था....
(नोट –ये कविता सत्य घटनाओं पर आधारित है)

शुक्रवार, 1 मई 2009

सत्यानासी काशी निवासी

प्रस्तुत होने वाली पंक्तियां मेरे पड़ोसी बर्बाद गुलिस्तां की पंडिताई से अवतरित हैं(नोट-बर्बाद गुलिस्तां माने पंडित का घर)। ये कहानी श्री-श्री 108 कदाचित् तामलोट लोटन प्रसाद सत्यानासी काशी निवासी पंडित राधेश्याम उपाध्याय की करतूतों से प्ररित होकर लिखी जा रही है। अपने आप को किसी की प्रेरणा का पात्र बनाने के लिए पंडित जी ने पूरे 60 बर्षों का कठोर तप किया है। किसी वन वगैरा में जाकर नहीं, बल्कि लोगों के घर में शादी से लेकर गरुण पुराण तक का इंतजाम कराने तक । कमाल के मैनेजर हैं पंडित जी। और वैसा ही कमाल की उनकी तोंद। जो उनकी पंडिताई के इतिहास की वीर गाथांएं सुनाती है। पेट का लंबा चौंड़ा घाट, कि जिस पर, बिछा लीजिए खाट। कुछ ऐसी ही सुंदर छवि है राधे महाराज की । नाम बेहद लंबा था पंडित जी का सो लोग उन्हें निकनेम से ही पुकारते हैं, जय हो राधे महाराज कहकर। अगर किसी को ज़ुबान दे दी तो कभी वापस नहीं ली, महाराज ने। बस पहुंच जाते हैं समय से एक घंटा पहले छप्पन भोग चटोरने। और अपने ज्ञान की गंगा बहाने। इस बार मैं उनसे पूरे एक साल बाद मिल रहा था। थोड़ा मैं भी बदल गया था । लेकिन वो कुछ ज्यादा ही बदल गए थे। इसलिए उनकी काया में थोड़ा संशोधन करके बता रहा हूं। पेट का लंबा चौंड़ा घाट कि जिस पर बिछा लीजिए एक बड़ी खाट। यानि पंडित जी की तोंद का साइज दिनों दिन तरक्की पर था। मंदी के दौर में जहां कॉरपोरेट जगत में पींगे लड़ाने वालों के गाल सूख चुके थे, वहीं पंडित जी के चेहरे पर बहार नज़र आ रही थी। पांच फिट सवा दो इंच लंबाई लिए पंडित जी जब फर्जी ज्ञान की गंगा बहाते । तो लोग उस बदबूमई गंगा स्नान करने से ना चूकते और तारीफों के पुल बांधने लगते और इस पल को देखते ही मेरा मन हमेशा की तरह बांकेलाल स्टाइल हो जाता(नोट-बाकेंलाल यानि कॉमेडी किंग, कॉमिक कैरेक्टर)। हाल ही की बात है एक विवाह समारोह में शिरकत करने आगरा गया था। फैमिली पंडित जी भी मौजूद थे। बरात चढ़ने से एक दिन पहले का समय था । दोपहर के 12 बजे होंगे। धूप उबाल मार रही थी। पसीना जलधारा बनकर निकल रहा था। इतने में शादी वाले घर पर राधे महाराज के कदम पड़ते हैं। अब पंडित जी पहले से ढाई गुना ज्यादा मोटे हो चुके थे और उनकी तोंद हमेशा की तरह गौरवमई इतिहास की गवाही दे रही थी। क्योंकि दरवाजे से अंदर जब वो आ रहे थे तो वो तो बाद में आए लेकिन उनका तोंद पहले घर में घुसकर अपनी प्रेजेंटेशन का अहसास करा चुकी थी।
जय हो राधे महाराज के संबोधन के साथ मैने उनका अभिवादन किया। जवाब भी मिला लेकिन अंजाना सा। शायद भूल चुके थे पंडित जी मुझ जैसे खुराफाती कैरेक्टर को । लेकिन मेरा ये सोचना गलत हो गया जब पंडित जी ने मुझे मेरे निकनेम से संबोधित कर कहा कि और नंदू भइया कइसे हौ ? कुशल मंगल महाराज। कुछ चाय पानी हो जाए क्या पंडित जी । मैने तो औपचारिकता मात्र पूछा था। लेकिन पंडित जी तो जैसे थाली चाटने को बेताब थे। बोले, भइया एक लोटा शीतल दूध ले आओ रुहआफजा डालकर। ओफ्फो आज तो लगता है आत्मा तृप्त करके ही दम लेंगे राधे महाराज। दूध प्रस्तुत किया गया । एक सांस में गटक गए पूरा एक लीटर दूध। ये तो शुरुआत थी क्योंकि अब तो भोजन भक्षण का खौफनाक आगाज होने वाला था। अरे ओ बड़े की बहू तनिक भोजन वोजन भी हो जाए। क्या लेंगे महाराज ? कुछ हल्का फुल्का जो बना हो वो ले आएं तो आनंदमंगल हो जाए। जी महाराज। भोजन के आते ही जुट पड़े राधे महाराज, ऐसा लग रहा था न जाने कितने जन्मों से भूखे हैं। जब खाने से छक गए तो अब बारी थी तोंद को तर करने की। पानी से कहां मानने वाले थे महाराज। कहा, बेटी अगर कुछ खीर जैसा बनाया हो तो दो वरना कोई बात नहीं। दरअसल पंडित जी को पूरा विश्वास था कि खीर बनी होगी। क्योंकि उनके पड़ोस में जो छोटा बच्चा खड़ा था उसका मुंह खीर की उपस्थिति की गवाही दे रहा था। और पंडित जी वो इतिहास पढ़ चुके थे। खैर उनकी वो मंशा भी पूरी हुई। और खीर से गले को तर किया गया। खाना खा चुके थे पंडित जी। अब बारी थी फलाहार की । मैं सोच रहा था कमाल की तोंद है इनकी कुछ पता ही नहीं चलता पता नहीं इतना खाना किस कोने में पहुंच गया। माया थी उनकी पंडिताई की जो बचपन से ही उनका पेट ज्यादा खाने की प्रैक्टिस में पारंगत था। इसी बीच फलाहार भी हुआ। बारी थी पूजा पाठ की जिसके लिए उन्हें अर्जेंट बुलाया गया था। वर पक्ष से दूल्हा तैयार था रस्मो रिवाज को। घर के आंगन में गड़े खंब के एक तरफ से राधे तो दूसरी तरफ थे भावी दूल्हा महाराज। और इन दोनो को घेरे हुए बैठी थी पूरी रिश्तेदार मंडली। पूजा पाठ आरंभ होता है (नोट-ये सारी रस्में शादी से एक दिन पहले की हैं) दूल्हे को प्रीपेयर करने के लिए पंडित जी पूरी तरह तैयार थे।
मंत्रोच्चार आरंभ होता है। ओइम गराणांत्वा गणपतिगोंगवा महे प्रियाणांत्वा प्रिय पति गोंगवा महे निधिनांत्वा निधिपति गोंगवा महे स्वाहा(स्पेलिंग मिस्टेक हो सकती है लेकिन मैं जैसा सुन रहा था वैसा ही लिख रहा हूं) । कलश के चारो ओर पान से जल प्रवाहित करें। दूल्हे से बोले राधे महाराज। और एक सौ एक रुपए भगवान के नाम चढा़ दें। दूल्हे की थाली में रखे हुए पैसों की ओर इशारा करते हुए हुए पंडित जी बोले । ओइम मंगलम भगवान विष्णु, मंगलम गरुणध्वजा, मंगलम पुंण्डरिकाछं, मंगलाय तर्णोहरि(स्पेलिंग मिस्टेक्स मे बी वो भी टू मच)। पुन: पैसे से भरी थाली की ओर इशारा करते हुए राधे महाराज ने 251 भगवान के नाम पर चढ़वा लिए। जैसे जैसे पंडित जी के वही रटे रटाए मंत्र बढ़ रहे थे। वैसे वैसे उनके ईश्वर अमीर होते जा रहे थे। लगभग बीस मिनट तक चले उस फर्जी मंत्रोच्चार ने भगवान को हजार पति तो बना ही दिया था। लेकिन दूल्हे महाराज बेफिक्र थे दनादन पैसों की बारिश कर रहे थे। आखिर जन्नत की सैर जो करने वाले थे कुछ ही घंटों बाद। उधर राधे महाराज पूजा समाप्त कर घर वापसी की तैयारी में थे। लेकिन उस बीस मिनट के पूजा सेशन में पंडित जी का पेट कुछ हल्का हो गया था। सो एक गिलास लस्सी की दरकार थी पंडित जी को। लस्सी का भी स्वाद चखा गया। और अब बारी थी पंडित जी की विदाई की । विदाई रस्म के अनुसार 501रु की तो बनती ही है। 501 रु लेकर ही माने काशीनिवासी राधे महाराज।
बारात वाला दिन। घर पर भीड़ बढ़ चुकी थी रिश्तेदारों की संख्या में ढ़ाई गुना इज़ाफा, घर पर तकरीबन अस्सी रिश्तेदार मौजूद थे। हर चीज़ के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ रहा था। चाहे बात फ्रेश ब्रश करने की हो, या फिर चाय नाश्ते की ही क्यों न हो। माहौल काफी कंजस्टेड हो चुका था। धीरे धीरे शाम हो चली थी। और बारात चढ़ने का समय करीब था।
मौका पाकर चौका मारने पंडित जी पधार चुके थे। इतने सारे रिश्तेदार देखकर पंडित जी की बांछें खिल गईं। मन ही मन जेब गरम करने के तरीके सोच रहे थे पंडित जी। आते ही आते रिश्ते में मेरे एक अंकल के हाथ टटोलने लगे। क्योंकि पिछली दफा उन्हीं अंकल से काशीनिवासी को बोनी हुई थी। मंशा इस बार भी कुछ ही थी । अरे जजमान इस बार तो आपके हाथ में एक नई रेखा जन्मी है। जो आने वाले 20 सालों तक आपके हाथ में राजयोग दिखा रही है। अंकल उनकी चालाकी से अंजान किंतु बेहद खुश। विदेश जाने का भी योग अतिशीघ्र बन रहा है। अंकल और खुश। पिछले 30 सालों से विदेश जाने की ही रट लगाए थे। हरबार पासपोर्ट और वीसा की दुहाई दिया करते थे। लेकिन इस बार तो पंडित जी ने उस पर हामी भी भर दी थी। और इस तरह पंडित जी की दिन की शुरुआत 251 रु से हो गई। देखा देखी में कई और लोग हाथ बढ़ाने लगे, फिर पंडित जी का वही पुराना प्रपंच शुरु हो जाता। मालूम हो कि कदाचित तामलोट महाराज लग्न मंडप में बैठने से पहले ही अपनी धोती काफी गरम कर चुके थे। जेब तो थी नहीं धोती में खूंट बांधकर पैसे रख रहे थे। खैर पुजापे का समय फिर चालू होता है। फर्जी ज्ञान के अंधकार में दिया जलाए बैठे पंडित जी पाल्थी मारकर मंडप में विराजमान होते हैं। वर-वधू तैयार हैं एक सात फेरे लेने के लिए और एक दूसरे को माला पहनाने के लिए। इतने में दूल्हे राजा के कानों में कुछ बुदबुदाने लगे पंडित जी। मैं समझ न पाया । लेकिन कुछ समय बाद दूल्हे के पिता की जेब से जो दान दक्षिणा बाहर आ रही थी। वो इस बात को चरितार्थ कर रही थी कि राधे महाराज ने क्या कहा होगा दूल्हे के कान में। कार्यक्रम आगे बढ़ता है। और वही पुराने मंत्रोच्चार जो एक दिन पहले मैं सुन चुका था । उन्ही की सीडी एक बार फिर रिपीट अवस्था में सुन रहा था। कई बार तो ऐसा होता कि न तो दूल्हे को मंत्र समझ आ रहे होते और न ही मुझे। पता नहीं कौन सी किताब पढ़ रहे हैं पंडित जी। सवालिया निशान तो बहुत सारे थे ।लेकिन टोकना उचित नहीं समझा। आखिर रिश्तेदार की शादी थी । गुस्से में कहीं उल्टे मंत्र पढ़ दिए तो पता नहीं क्या गजब हो जाए। और फिर दूल्हा ही जब इंटरफियर नहीं कर रहा तो मैं क्यों भांजी मारता। और हां एक बात तो बताना भूल ही गया इस बीच पंडित जी की करतूत जारी थी । वही बढ़ते मंत्र और बढ़ता पैसा। समय बीतता गया । पंडित जी का खूंट गर्म होता गया। अब तक तो लंबी चपत लगा चुके थे, सत्यानासी महाराज।
फेरों का कार्यक्रम समाप्त होता है। लेकिन पंडित जी का नहीं । वो वैसे ही जजमान नाम के एटीएम से गांधी जी बाहर निकालते रहे।
कहते हैं लालच बुरी बला है। लेकिन शायद सत्यानासी काशी निवासी पंडित राधेश्याम उपाध्याय के घर का नाम बर्बाद गुलिस्तां ऐसे ही थोड़े ही रखा था मैंने। क्योंकि उनके हालात भले ही सही हों लेकिन लोगों की हाय ले चुके महाराज की फैमिली में ऐसा कोई नहीं था जो समाज की ठेकेदारी न करता हो। सब एक से बढ़कर एक खुराफाती । पंडित जी कमाते थे और बीवी-बच्चे लुटाते थे। दूसरों को नोच-नोच कर प्लॉट बनाने वाले पंडित जी पता नहीं कब सुधरेंगे। ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन ये जरुर कहा जा सकता है। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाए।
जो इतिहास काली स्याही से लिख दिया गया हो वो भला कैसे मिट सकता है। पंडित जी के साथ भी कुछ ऐसा ही था।