बुधवार, 15 अप्रैल 2009

दइया रे दइया ‘बदल गई वो’

छरहरी काया, इठलाता बदन, बिल्कुल हिरणी के जैसा। आंखों में तीर सा चुभने वाला शार्प सा काजल, होंठों पर गुलाब की झलक। एक दम मादक सी हंसी। और उस पर गालों में पड़ने वाला भंवर। ओफ्फो एक अनूठी याद थी वो। लगता था कुदरत ने सारी फुरसत उसी पर उड़ेल दी हो। उसके बदन का हर एक पार्ट बड़े करीने से सजाया था खुदा ने। उस हूर का नूर कुछ ऐसा ही था। बस जहां से निकल जाए। हाएतौबा मच जाए। मार ही डालोगी, मर जांवा गुड़ खाके, मेरी दुकान पे आना मेरी जान, जैसे कमेंट उसे मिला करते थे । लेकिन उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। पता नहीं कौन सी मिट्टी से बनी थी। सबको कतार में ही रखती थी। किसी की सीट कंफर्म ना की उसने । और एक दिन न जाने कौन लंगूर उसे ले उड़ा। किसी को हवा तक न लगी। क्योंकि जिन गलियों से वो निकलती वहां से अब उसके बदन पर लगे इत्र की सुगंध भी न आती थी। कई दिन हो गए । लोग इंतज़ार करते करते थक गए। कि न जाने वो लाल दुपट्टे वाली कहां चली गई। उसी की राह तकते तकते छोटे की सात आठ चाय हो जाया करती थीं। लेकिन अब तो छोटे की दुकान भी सूनी सूनी रहती है। सब ऐसे उदास रहते जैसे उनकी अर्धांगिनी उन्हे किसी पराये मर्द के साथ भाग गई हो। पप्पू भइया तो उसके ग़म में ऐसे दीवाने हुए कि रामप्यारी का सेवन करने लगे। रात को जब उसका इंतजार करके घर लौट रहे होते तो कभी कभी हम लोग मिल जाया करते थे । बस शुरु हो जाती थी फ्रस्ट्रेटेड लवर की फ्रस्ट्रेटेड लव स्टोरी। यार वो चली गई। उसका इंतजार करते करते मेरे घर का बजट बिगड़ गया और वो है कि बिना बताए चली गई। हाय री बेवफा सनम। पप्पू की हालत देख कर एक जुमला बिल्कुल फिट बैठ रहा था। कि ‘पुतलियां पथरा गईं , और गर्क चहरा हो गया, डाल दो मुंह पर कफन, कह दो कि पर्दा हो गया’ । बेहद बुरे दौर से गुजर रहा था पप्पू। खैर रात गई बात गई। होली के आसपास की बात है। वो दिन हम सभी मित्रों को हमेशा याद रहेगा । सब रंग खेल रहे थे । छोटे की दुकान पर एक बार फिर जा पहुंचे । यादों को ताजा करने क्योंकि फिछली होली मैं भी घर नहीं जा पाया था। सो इस बार हम सब फिर साथ थे । पप्पू भी मौजूद थे। सब बेहद खुश थे। पुरानी यादें ताजा कर रहे थे। कि अचानक पड़ोस वाले मकान पर नज़र गई। उस मकान की छत पर लोग काफी लोग मौजूद थे। और उनके बीच मौजूद थी वो हुस्न ए बहार। शादी के बाद पता नहीं कब वापस आई। किसी को न पता चल पाया। सबकी निगाहें ऊपर ही थीं । टकटकी लगाए बस सारे के सारे छैला बिहारी निहारे चले जा रहे थे। इतने में वो नीचे उतर आई अपनी पुरानी सखियों के साथ। लेकिन जैसे ही वो नीचे आई। सबको झटका लगा। क्योंकि जिस हुस्न ने गली के 20 नौजवानों को मजनू बना दिया वो वो हूर कुछ और ही हो गया था। और अनायास ही पप्पू के मुंह से प्रस्फुटित हुआ ‘दइया रे दइया बदल गई वो’ । जिसकी जवानी के चर्चे चहुंओर से । वो शादी के बाद क्या हो गई। न तो वो छरहरी काया ही रही । न वो काजल । न वो गुलाब सी हंसी । सबकुछ मुरझाया सा लग रहा था। सब चकित थे । और एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। क्योंकि पहले तो उसकी त्वचा से उसकी उम्र का पता ही न चलता था । और अब है कि उम्र ही उम्र नज़र आती है। मेरा तो मन मान ही न रहा था । कभी मैदा की भेंड़ रही उस मनचली का रंग भी डाउन हो गया था। चूंकि पप्पू तो नशे में चूर था । और सब जानते हैं नशे में आदमी शेर होता है । किसी बात का डर नहीं होता। रोक ही लिया लड़की से आंटी हो चुकी श्रीमती जी को। एक ही सांस में सैकड़ों सवाल दाग डाले। और ये भी कह डाला हम से ही सेट हो जातीं तो क्या बिगड़ जाता । चली गईं लंगूर के पास। अब भला लंगूर की सोहबत में कोई इंसान रह सकता है क्या ? हीहीही....रामप्यारी का जोरदार भभका और फिर ये हंसी। और अचानक एक जोरदार साउंड। चांटा जड़ने का । बेचारे पप्पू का गाल हरे से गुलाबी हो गया। सब तितर-बितर हो गए उस एक विस्फोटक चांटे की बदौलत। लेकिन जिस चांटे का कहर पप्पू पर पड़ा। वो टस से मस न हुआ। नो डाउट ही वाज़ ए ब्रेब पर्सनालिटी। और फिर गिरते हैं शह सवार ही मैदान ए जंग में। लेकिन कुछ देर के लिए वातावरण शून्य हो गया था। लेकिन पप्पू की बात में वाकई सच था । उसकी ज़ुबान से उस दिन निकला एक एक शब्द उसकी उस व्यथा को बता रहे थे। जो उसने विरहा में बिताए थे। आज अचानक उसे देख मन का सारा गुब्बार सामने आया । जिसका रिज़ल्ट चांटे के रुप में पप्पू के गालों पर साफ दिखाई दे रहा था। खैर जो भी हो । वो वाकई अब वैसी नहीं रही थी । जिसकी बदौलत छोटे चाय कार्नर की का लाभ कभी-कभी 9000 रु प्रति माह को पार कर जाता था। उसके इंतजार में लोग चाय की रेलमपेल जो मचा देते थे। लेकिन फिर वही बात अब वो दिन कैसे लौटेंगें। अब लोग उसका इंतज़ार बिल्कुल नहीं करेंगे। क्योंकि ज़माने लद गये, जब पसीना गुलाब था, अब मलते हैं इत्र, पर बदबू नहीं जाती। और उसकी काया वाकई बदल गई है। सोच कर हैरत सी होती है। और लगता है अब किसी और का इंतज़ार करना पड़ेगा। लेकिन दुआ भी करनी होगी कि अब दइया रे दइया न हो। औऱ पप्पू की कोई घरवाली हो जाए।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

मिडिल क्लास भगवान

बारि मथे घृत होई, सिकता ते बरु तेल,।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल ।।
महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तर कांड में इन पंक्तियों का ज़िक्र किया है। जिसका अर्थ है कि हवा को मथने से घी बन सकता है, और रेत से तेल निकल सकता है, लेकिन बिना ईश्वर को याद किए इंसान इस भवसागर रुपी संसार को पार नहीं कर सकता। यानि ईश्वर ही सब कुछ है। इसके बगैर इंसान कुछ नहीं। लेकिन बदला ज़माना, बदला परिवेश, बदले चेहरे, और बदल गया चरित्र । अब भवसागर पार करने के लिए भगवान की नहीं, दो घूंट बाटली की जरूरत होती । औऱ खुद आदमजात खुदा हो जाता है। इस खुदा को अगरबत्ती नहीं सिर्फ चार कश श्वेत दंडिका के चाहिए वो भी सुबह सुबह। अर्ली मॉर्निंग। आखिर प्रेशर का सवाल है। ये खुदा अब तकिया छोड़ अखबार पढ़ने को बेताब है। जल्दी जल्दी सारी ख़बरें चाट लेंते हैं, न जाने कितने चटोरे हैं भगवान। और इसी बीच चाय समोसे हो जाएं फिर तो समझो भगवान की लॉटरी लग गई। ओए होए मजा ही आ गया (ये भगवान की फीलिंग है मेरी नहीं) । मजे की बात ये भगवान मिडिल क्लास हैं। मतलब जिनकी मार कभी कभी राक्षस भी लगा जाते है। तो छोटे मोटे राक्षसों पर विजय पाकर ये भगवान अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इन भगवान की एक धर्मध्वजा भी हैं। वो और देवियों की तरह शर्मीली सी नहीं दिखतीं कैलेंडर में। वो बेहद आधुनिक हॉट एंड सेक्सी दिखने की होड़ में कभी कभी मार्केट चली जाती हैं। तो बेचारे भगवान की दो जून की बाटली पर ही बन आती है। मिडिल क्लास भगवान की मिडिल क्साल धर्मध्वजा। वैसे भगवान की फैमली का ये छोटा सा लेखा जोखा था। खैर अब चाय समोसा हो चुका । टाइम है आवारागर्दी करने का । एक बात और इन दिनों ये मिडिल क्लास भगवान भी मंदी की चपेट में हैं। सो स्वर्ग लोक से धक्का देकर इन्हे कहीं और ही भेज दिया गया है। इस समय खाली हैं। जिन कपोलों पर कभी लालिमा सी हुआ करती थी । वो कपोल अब रामचंदर सूखे के गालों की तरह गर्त में जा चुके हैं( रामचंदर एक बहुत ही सूखा सींक सा व्यक्ति, ये व्यक्ति सिर्फ हमारे शाहजहांपुर में ही पाया जाता है ) । चूंकि दौरे आवारागर्दी है। लेकिन भगवान हैं। इज्जत का सवाल है। लोग टोंकेंगे कि कैसे भगवान हो खाली रहते हो। बस इन्ही सब वजहों से आजकल साइडबिजनेस और लोगों पर फर्जीवाड़े का रौब झाड़ने के लिए बमपुलिस की जमादारी का टेंडर हाथ में ले लिया है। छोटे मोटों को हड़का कर दाम कमा लेते हैं। और हाफटाइम ही काम करके घर लौटने की चिंता सताने लगती है। इस हाफटाइम में भी पूरी हरामखोरी रहती है। खैर भगवान का अब घर लौटने का समय हो चुका है । बेहद कम पैसे लेकर लौटे भगवान को इस बात का ज़रा भी इल्म ना था कि आज उनकी बेलन से मार होने वाली है (ध्यान रहे, कि भगवान कभी अंतर्यामी थे, उन पर कोई संकट आने वाला होता तो उन्हें पहले से ख़बर लग जाती, लेकिन मंदी के दौर में हाइकमान ने उनसे ये ताकत भी छीन ली, जिसके चलते उनकी अंतर्यामी होने की ताकत जाती रही)।और वो ख़तरे को भांप ही न सके जो उन पर आने वाला था। घर के दरवाजे खुलते हैं। आवारागर्दी के दौरान कुकर्म किए वो मुंह से महक के रुप में वापस आ रहे थे । घर में घुसे ही थे कि गालियों की बौछार से कैलेंडर वाली माता ने उनका स्वागत किया। आ गए पीके। कुत्ते, कमीने हरामजादे। घर में नहीं खाने को, और अम्मा चलीं भुनाने को । घर में ढेला नहीं है और तुमने दारु की अती कर रखी है। कम्बखत कहीं के । बड़े आए भगवान बनने । इसी दौरान एक बेलन भी फेंक कर मार दिया। जैसे तैसे खोपड़ी झुकाकर बच पाए मिडिल क्लास भगवान। दौर ए अब्यूज़ जारी है। कैलेंडर वाली माता कहती हैं, हमें तो एक साड़ी कभी न लाकर दी। खूंटी देवी पर तो बड़े मेहरबान होते हो। सारी ख़बर मुझे पता चल चुकी है। दिन में कहीं और रात में कहीं और । तुम्हारे सारे कुलच्छनों का चिट्ठा मेरे पास है। अगर आइंदा से मेरी सौतन के पास गए तो तुम्हारे प्राण हर लूंगी (मालूम हो कि स्वर्ग में भी महिलाओं की तरह देवियों को आरक्षण दिया गया है, इस आरक्षण की वजह से कैलेंडर वाली माता की सारी दिव्य शक्तियां अभी तक बरकरार है, यही कारण है कि उन्होंने भगवान से प्राण हरने वाली बात कही) । खैर जैसे-तैसे प्राणों की प्यासी कैलेंडर वाली माता से छुटकारा मिला । अगेन गम गलत करने ठेका कच्ची शराब की दुकान पर जा पहुंचे। एक पाउच में ही टल्ली हो गए। पहले से जो पी रखी थी। कैलेंडर वाली माता के सदमे से उबरने के लिए और दिल की भड़ास निकालने के लिए, लोगों को गलियाने लगे । पब्लिक प्लेस पर दारू और ऊपर से गलियाना किसी बडी़ मुसीबत को दावत देने जैसा ही था। एक बार फिर याद दिला दें कि ये भगवान अपनी सारी शक्तियां खो चुके हैं, जिसके चलते उन्हें ये अंदेसा ही नहीं रहा कि वो किस मुसीबत में फंसने वाले है। पुलिस आई और बजाए चार पांच बेंत पिछवाड़े पर। अब भगवान लगे गिड़गिड़ाने। कैलेंडर वाली माता की दुहाई देने लगे। रिश्वतखोरों ने कुछ ले देकर छोड़ दिया। भगवान सोच रहे थे । आज ससुरा कुछ दिन ही अच्छा नहीं है। पहले धर्मध्वजा से पिटा और अब पुलिस से। अभी भी मानने को तैयार नहीं एक बीड़ी का बंडल खरीद ही लिया। घर के बाहर खड़े होकर आसमान में देखने लगे । सोच रहे थे कि शायद हाइकमान से बुलाबा आ जाए और मेरी स्वर्ग में फिर से बहाली हो जाए। इतने में उनके पुराने दोस्त रहे मान न मान मैं तेरा मेहमानाचार्य ऋषी टपक पड़े। कष्ट से घिरे भगवान को देखकर दारुण हो उठे। बोले भगवन अगर आप कहें तो में दुश्कर्मा जी से बात करुं वो ही आपकी बात ऊपर तक पहुंचा सकते हैं ( आपको पता होना चाहिए कि गर्मी के मौसम में मान न मान मैं तेरा मेहमानाचार्य ऋषी हमेशा छुट्टी पर निकलते हैं, इसी दौरान घूमते हुए उन्हे उनके पुराने मित्र मिले,­ ऋषी काफी सोर्स फुल हैं, अपनी पंडिताई के बल पर इन्होंने परलोक में एक नया फ्लैट लिया है वो भी कैश इन हैंड देकर) । उधर मिडिल क्लास भगवान पर कृपादृष्टि करने को आतुर ऋषी ने इतनी देर में कई सुझाव दे डाले। लेकिन उन्हे कोई रास न आया । उन्हे तो बस एक ही धुन थी। कि कैसे भी उनकी वो ताकतें वापस आ जाएं। जो खो चुकी थीं। लेकिन मंदी से त्रस्त स्वर्ग लोक उनका नाम रजिस्टर में लिखने को तैयार ही न था। क्योंकि भगवान की लतों के बारे में सब जानते थे । उनका खर्चा कौन संभालता। जब स्वर्ग लोक में थे तो बिल्कुल कुंवर साहब बनकर रहते थे उस समय कपोल भी लाल-लाल टमाटर से थे। एक दम हस्ठ पुष्ठ। मिडिल क्लास भगवान। अब कोई सुनवाई को तैयार न था बेचारे कुंवरसाब की कहने का मतलब है भगवान की सुनवाई को कोई तैयार नहीं था। अपनों में बेगाने से नज़र आते थे। हर कोई दुश्मन लगता था। लेकिन समझने वाली बात ये है वो तो भगवान थे । लेकिन हम तो आम हैं ऐसे में हमारी क्या दुर्दशा होती। जब भगवान ने भगवान को न छोड़ा तो हमारी क्या औकात। इसलिए ज़रा संभल कर भगवान बनने की कोशिश करें। नहीं तो खुदा के फेर में ज़िंदगी से जुदा न होना पड़ जाए। जय बजरंग बली।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

भाषा तो ऐसी होती है (शाहजहांपुर के गंवार से दिल्ली की ‘खड़ी बोली’तक)

सतत्, निरंतर, लगातार, यही परिभाषा है समय की। जो न कभी थकता है, न किसी का इंतज़ार करता है, और न ही किसी का मोहताज है। सबको इसी के हिसाब से चलना पड़ता है। मिट्टी की खुशबू हमेशा ज़हन में बसी रहती है सो आज भी वही सुगंध एक बार फिर हिलोरें मारने लगी। और खुशनुमा मौसम ने उस सुगंध और भी महक उड़ेल दी है। कुछ लिखने का मन करने लगा, सोचा बदलते मौसम के साथ, “भाषा और बदलते परिवेश” पर ही लिख दूं। ये सफर शाहजहांपुर से दिल्ली तक की कहानी बयां करता है। कि दिल्ली आया एक युवा समय के बदलाव का कैसे शिकार हुआ। चलिए पहले आपको शाहजहांपुर लिए चलते हैं। दिल्ली से 330 किलोमीटर दूर ये शहर मुगल कालीन सभ्यता का परिचायक शहर रहा है। इस शहर को क्रांतिकारियों का शहर भी कहा जाता है। रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्ला जैसे क्रांतिकारियों की कर्मभूमि रही है शाहजहांपुर की मिट्टी। भाषा भी बेहद निराली है यहां की । अगर बड़े बूढ़ों के बीच बैठ जाएं तो जो गंवई अंदाज़ ए बयां होता है। वो वाकई अनूठा अहसास कराता है। और यदि शहर से सटे गांव चले जाएं तो और भी आनंदमंगल । गांव के एक स्कूल में एक बहनजी (बीएड-बीटीसी मार्का) बच्चो को पढ़ा रही हैं। अब सुनिए शहर की बहन जी और गांव के बच्चों के बीच संवाद। हाजरी का समय है। सारे बच्चे अपने नाम का इंतज़ार कर रहे हैं। कुछ कपड़े पहने हैं तो कुछ बिचारे नंगे पुंगे हैं, बिना नहाए धोए स्कूल में बिछी टाट पर आकर बैठ जाते है। हाजरी शुरु होती है। रामलाल, जी बहिनजी। कल्लू, जी बहिन जी। कलट्टर, आए हैं बहिन जी कहूं गए हैं ( कलट्टर की गैरमौजूदगी में संतरा बोलीं) । संतरा एक लड़की का नाम। हाजरी जारी है। दरोगा, जी मदम ( अंग्रेजी बोलने की पुरजोर कोशिश की दरोगा ने फिर भी मैडम को मदम ही बोल पाया) । कथा, जी बहिन जी। रुमाली, जी बहिन जी। हाजरी लगती रही। इसी बीच कलट्टर आ गए जो हाजरी के दौरान गायब थे। बहिन जी ने पूछा कहां रई गए थे( कहां रह गए थे)। कहूं नाई बहिन जी हमारे गोरु कहूं भाजि गए थे(कहीं नहीं हमारे जानवर कहीं भाग गए थे) । उन्हई का पठऊन गए थे घरई ( उन्हे घर भेजने गए थे) । गोरू चरइयू कि पढ़ियऊ भी ( जानवर ही चराते रहोगे या पढ़ोगे भी) । बहिन जी बप्पा नाई मान्त का करईं ( बहिन जी बाप नहीं मानते क्या करें)। भोर होत से बहिरार भेजि देत, हम घास छोरईं की पढ़ईं, तुमई बताबऊ (सुबह होते ही मुझे घास छीलने के लिए खेत पर जाना होता है तुम ही बताओ घास छीलूं की पढूं)। सो ता हइय ( बहिन जी ने सिर हिलाते हुए कहा ये तो है ही) । इस बीच हाजरी एक बच्चे की तो रह ही गई। नाम था नपोरा। तो बहिन जी बोली नपोरा का संबोधन करते हुए नपोरा । चेहरे पर सत्तर तरीके के बल पढ़ गए बहिन जी के । जी बहिन जी(यानि नपोरा प्रेजेंट) अब नपोरा को बुलाया गया अपनो नाम काहे नाई बदलबाऊत। नाई बहिन जी हमारी अम्मा ने रखो। हम नाई बदलबईं। चलऊ अपने बप्पा का पठऊ । उनसे कहिई कि कहूं अइसो नामऊ होत। नपोरा अपने पापा को बुला लाता है। जी बहिन जी का बात है। देखऊ नपोरा गारी होत अऊ तुम जा नाम को बदरबाबऊ। नाई तउ नाम काटि दौ जइही( बहिन जी ने धौस दिखाते हुए हड़काया कहा नपोरा गाली होती है, नाम बदलबाओ नहीं तो नाम काट दिया जाएगा) लेकिन नपोरा के बापू कहां मानने वाले थे। कहते हैं, नाई बहिन जी हम कतई नाई नाम बदरिहीं, नाम चाहे रहई या नाई रहई( हम नाम कतई नहीं बदलेंगे, नाम चाहें कटे या बच रहे) हें नाई तौउ (हा नहीं तो) बचपनई मां नाम रक्खि लओ( छोटे पर से ही नाम रख लिया था) । सारे गौंतरिया नपोराई कहत( सारे रिश्तेदार उसे नपोरा ही कहते हैं)। हम नाई बदरिहीं कतई ( हम नहीं बदलेंगे कतई)। और आखिर उसका नाम नपोरा ही रहा वो आज काफी बड़ा हो चुका है लेकिन वो आज भी नपोरा ही है। ये सब सुनकर एक अद्भुत अनुभव की प्राप्ति हो रही थी । क्योंकि जो शब्द संचार मैं स्कूल में सुन रहा था, वही शब्द संचार मैं अपने दादी, बाबा, पापा और मित्रमंडली से करता था। वही ठेठ गंवई अंदाज़। मजा आ जाता था सचमुच। और मिट्टी की खुशबू तो आपको पता ही है कैसी होती है। “देश की माटी माटी चंदन, मस्तक इसे लगा लें हम”। लेकिन उस गंवई भाषा ने भी बदलाव का दौर देखा । मैं दिल्ली पहुंचा, द्रुतगामी गति से चलने वाली मीडिया का पत्रकार बनने। इस दौर ए पत्रकारिता ने मेरा भाषा संचार कुछ ऐसा कर दिया कि बस पूछिए मत। जो शब्द कभी “हम” हुआ करता था वो “ मैं” में बदल गया, “आप” बदल गया “तू” में। खड़ी बोली का ऐसा भूत सवार हुआ कि अब जब घर पहुंचता हूं तो बमुश्किल ही गंवई अंदाज़ बाहर आ पाता है। बिल्कुल बनावटी सा। मजे की बात तो ये है कि यही दिल्ली मेड भाषा अब गले का हार बनकर सोभायमान होती है । डिलाइट्स के बीच ये भाषा मुझे उन जैसा ही बनावटी बना देती है। छोले कुल्चे सी टिकाऊ ये भाषा बदलते परिवेश के बीच मुझे वो ताकत देती है कि अब मैं उनके बीच ठगा सा नहीं महसूस करता । जब शुरु में दिल्ली आया तो लोग बड़ी आसानी से मेरी भाषा को पहचान लेते थे कि बेचारा कहीं यूपी व्यूपी का होगा । ठग लोग साले को। और कई बार भाषा के चलते ठगा गया। कभी अपनों से तो, कभी परायों से। लेकिन आज पूरे पांच साल का अनुभव हो चुका है इस दिल्ली मार्का लैंग्वेज का । यानी पूरा पोस्ट ग्रेजुएट कर चुका हूं, इस भाषा में, देखते हैं अब कौन ससुरा ठगता है। अब तो मैं ही ठग लूं ससुरों को। लेकिन बनावट के तड़के से लबरेज इस भाषा में वो स्वाद नहीं है। जो मेरी ठेठ गंवई भाषा में था । आज भी उन शब्दों में बातें करने को कसमसाता हूं। कि काश कोई अपना मिल जाए, और बदलते परिवेश में मुझे अपनों सा अहसास करा दे। और फिर वही गांव का स्कूल याद आ जाए। वो बहिन जी जो अब मां जी हो चुकी होंगी, वो कलट्टर जो चपरासी भी न बन पाया होगा, वो संतरा जिसके छिलके छिल कर सूख चुके होंगे और वो नपोरा जो आज भी नपोरा ही होगा। शायद समय के कुछ परिवर्तन से बदले होंगे लेकिन फिर भी वैसे ही होंगे। आज के लिए इतना ही।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

“जूता” पहनो तो लाइसेंस जरूरी

छोटा सा था । बस ये समझें, जब पैदा ही हुआ था। कोमल से पैरों में, मां ने पहनाया था। ऊन से बुना जूता, ताकि मेरे पैरों की कोमलता बरकरार रहे । मोजे से दिखने वाले वो जूते जब गंदे हो जाते थे, तो मां उन पर पॉलिश न करके,निरमा से धो देती थी । दिन में कई बार गंदे हो जाते थे वो जूते। लेकिन इसका भी इंतज़ाम था । कई जोड़ी जूते थे मेरे, पास ऊन से बुने हुए, रंग बिरंगे से। कई बार बदलती थी मां दिन भर में। कई बार तो, वो जूते कपड़ों से मैच हो जाया करते थे । मैं छोटा सा तो था ही बोल पाता नहीं था ,बस कुदरती मां मां ही मुंह से निकलपाता था । मैं जब उन्हे देखकर खुश होता तो मां भी मुझे वात्सल्य देती ।धीरे-धीरे बड़े होने का समय भी आया और न जाने कब वो छोटा सा “नंदू” (घर पर सब मुझे नंदू बुलाते हैं) 5 फिट साढ़े दस इंच का फुल साइज़ युवा हो गया । साइज़ बढ़ा था । तो जूता भी बढ़ना था । एक नंबर से आठ नंबर तक पहुंचने में 16 साल लग गए। अब ये जूता कुछ ऐसा हो चुका है, कि ठक ठक का साउंड पल्यूशन भी करता है। जब पानी पड़ जाए तो यही ठक-ठक, चर्र-चर्र होने लगता है । बेहद मजबूत बाटा का जूता, हिलाए से न हिले, बहुत दिनों से यही पहन रहा हूं। रंग भी काला है, मेरा वेरी फेवरेट कलर,आज ये आठ नंबर का जूता वाकई रौबीला सा अहसास कराता है। जहां से निकलता हूं, बस लोग देखते रह जाते हैं, कि “एक्खें कुंवर साब आ रहे हैं” । अपने दोस्तों के बीच इस जूते ने बहुत सम्मान सा दिलाया, मजा तो तब आया जब एक दिन ये किसी पर बज गया, मतलब वफादार ने निभाई वफादारी,उस दिन तो वाकई मैं निहत्था था सिर्फ जूते का सहारा था, बस जूते ने इज्जत बचा ली। इतना ही नहीं इस जूते से बड़े महान काम भी होते हैं। समाज को सुधारने के अपना विरोध जताने के, लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने को हाइलाइट करने के दरअसल सात अप्रैल 2009 को एक बार फिर जूता चला (मेरा नहीं किसी और का), निशाने पर थे चिदंबरम साहब और निशानेबाज़ थे सीनियर पत्रकार जरनैल सिंह सभी ने देखा कि किस तरह चौरासी के दंगों पर आई सीबीआई रिपोर्ट के विरोध में ये जूता चला। जूता चलने का इतिहास बेहद पुराना है ,अफगानिस्तान को ही ले लें वहां तो विरोध जूता चलाकर ही दिखाया जाता है।लेकिन जरनैल जी इंस्पायर्ड थे उस ईराकी पत्रकार से, जिसने बुश पर जूता चलाया था उस दिन भी जूता विरोध के स्वर बोल रहा था। लेकिन सोचने वाली बात ये है, कि चमड़े से बना ये “मृत जूता” कितना और बोलेगा विरोध के स्वर, क्या लोकतंत्र के रहनुमा, ऐसे ही जूते का फायदा उठाएंगे, जूते को एक हथियार बनाएंगे,कहीं ऐसा न हो जाए,कि जूता पहनने वालों के लिए एक दिन लाइसेंस कम्पलसरी हो जाए। और जूता खरीदने के लिए पहले आरटीओ के चक्कर लगाने पड़ें। इतिश्री फिलहाल।

बड़ा महंगा है ये रब, जो “तुझमें दिखता है”

पीढ़ी बदल चुकी है। आदिकाल नहीं रहा। बेचारे नंगे पुंगे वो लोग जो पत्तों से अपने तन को ढका करते थे । सिलाई मशीन से सिले कपड़ों के दिवाने हो चुके हैं। वो खेतिहर मजदूर भी नहीं रहे जो अपने जीवन यापन के लिए जानवरों पर निर्भर होते थे, जानवरों से खेती करवाना उनका शिकार करना, उनके पेट की छुदा को शांत करता था। और उससे मिली ताकत से खुद ही यदा कदा खेतों में बैल की तरह काम किया करते थे। आधुनिकीकरण के इस युग में ट्रैक्टर ट्रॉली, थ्रेशर, आदि आधुनिक यंत्र उनका रुप ले चुके हैं। लेकिन समय का बदलाव ऐसे ही जारी रहता है । हर किसी को अपने तौर तरीकों में परिवर्तन करना पड़ता है। और शायद यही परिवर्तन उसे जीने के मायने समझाता है। आज आधुनिकता का दौर कुछ यू है। कि बगैर महिला मित्र इंसान अपने को अधूरा समझता है। उस महिला मित्र को जवां पीढ़ी परिवार से ऊपर भी ओहदा दे देती है। बाप, पाप हो जाता है। मां न जाने कहां खो जाती हैं। घरवाले, बाहरवाले हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही होता है जब मुहब्बत का जुनून सर चढ़कर बोलता है। लेकिन मजा तो तब आता है। जब मोहब्बत का ये भूत, महबूबा में अपने रब को देखता है। “तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करुं सजदे सिर झुकता है यारा मैं क्या करुं” सभी ने सुना होगा। यानी महबूबा में दिखा भगवान। जो ले लेता है प्राण। प्राण कैसे लेता है वो भी समझिए ! इस रब को चाहिए मैकडॉन्ल्ड्स का बर्गर, कोल्ड ड्रिंक्स, पिज्जा हट का पिज्जा, बनाना लीफ की थाली, हफ्ते में एक बार डिस्को थेक की थिरकन, मल्टीप्लेक्स में एक चलचित्र-वो भी गोल्डन लेन में, महंगे डिजाइनर शोरुम्स से सूट्स वो भी बगैर छूट, बाइक पर लॉंग ड्राइव, कभी कभी सड़क पर खड़े खोमचों का स्वाद, प्रिन्स पान वाले का महंगा पान, वोडका के दो दो पैग (मालूम हो कि रब सिर्फ वोडका सेवन करते हैं) वो भी किसी धांसू बार में । वाकई बड़े महंगे पड़ते हैं ये रब। खून चूस लेते हैं, फिर प्राण क्या बचेंगे खाक। इसलिए ऐसे रब से सावधान। वरना आदिकाल कहीं वापस न आ जाए। और फिर वही तंगी आपको नंगा न कर दे । और आप मजबूर हो जाएं पत्ते पहनने को।