मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

“जूता” पहनो तो लाइसेंस जरूरी

छोटा सा था । बस ये समझें, जब पैदा ही हुआ था। कोमल से पैरों में, मां ने पहनाया था। ऊन से बुना जूता, ताकि मेरे पैरों की कोमलता बरकरार रहे । मोजे से दिखने वाले वो जूते जब गंदे हो जाते थे, तो मां उन पर पॉलिश न करके,निरमा से धो देती थी । दिन में कई बार गंदे हो जाते थे वो जूते। लेकिन इसका भी इंतज़ाम था । कई जोड़ी जूते थे मेरे, पास ऊन से बुने हुए, रंग बिरंगे से। कई बार बदलती थी मां दिन भर में। कई बार तो, वो जूते कपड़ों से मैच हो जाया करते थे । मैं छोटा सा तो था ही बोल पाता नहीं था ,बस कुदरती मां मां ही मुंह से निकलपाता था । मैं जब उन्हे देखकर खुश होता तो मां भी मुझे वात्सल्य देती ।धीरे-धीरे बड़े होने का समय भी आया और न जाने कब वो छोटा सा “नंदू” (घर पर सब मुझे नंदू बुलाते हैं) 5 फिट साढ़े दस इंच का फुल साइज़ युवा हो गया । साइज़ बढ़ा था । तो जूता भी बढ़ना था । एक नंबर से आठ नंबर तक पहुंचने में 16 साल लग गए। अब ये जूता कुछ ऐसा हो चुका है, कि ठक ठक का साउंड पल्यूशन भी करता है। जब पानी पड़ जाए तो यही ठक-ठक, चर्र-चर्र होने लगता है । बेहद मजबूत बाटा का जूता, हिलाए से न हिले, बहुत दिनों से यही पहन रहा हूं। रंग भी काला है, मेरा वेरी फेवरेट कलर,आज ये आठ नंबर का जूता वाकई रौबीला सा अहसास कराता है। जहां से निकलता हूं, बस लोग देखते रह जाते हैं, कि “एक्खें कुंवर साब आ रहे हैं” । अपने दोस्तों के बीच इस जूते ने बहुत सम्मान सा दिलाया, मजा तो तब आया जब एक दिन ये किसी पर बज गया, मतलब वफादार ने निभाई वफादारी,उस दिन तो वाकई मैं निहत्था था सिर्फ जूते का सहारा था, बस जूते ने इज्जत बचा ली। इतना ही नहीं इस जूते से बड़े महान काम भी होते हैं। समाज को सुधारने के अपना विरोध जताने के, लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने को हाइलाइट करने के दरअसल सात अप्रैल 2009 को एक बार फिर जूता चला (मेरा नहीं किसी और का), निशाने पर थे चिदंबरम साहब और निशानेबाज़ थे सीनियर पत्रकार जरनैल सिंह सभी ने देखा कि किस तरह चौरासी के दंगों पर आई सीबीआई रिपोर्ट के विरोध में ये जूता चला। जूता चलने का इतिहास बेहद पुराना है ,अफगानिस्तान को ही ले लें वहां तो विरोध जूता चलाकर ही दिखाया जाता है।लेकिन जरनैल जी इंस्पायर्ड थे उस ईराकी पत्रकार से, जिसने बुश पर जूता चलाया था उस दिन भी जूता विरोध के स्वर बोल रहा था। लेकिन सोचने वाली बात ये है, कि चमड़े से बना ये “मृत जूता” कितना और बोलेगा विरोध के स्वर, क्या लोकतंत्र के रहनुमा, ऐसे ही जूते का फायदा उठाएंगे, जूते को एक हथियार बनाएंगे,कहीं ऐसा न हो जाए,कि जूता पहनने वालों के लिए एक दिन लाइसेंस कम्पलसरी हो जाए। और जूता खरीदने के लिए पहले आरटीओ के चक्कर लगाने पड़ें। इतिश्री फिलहाल।

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