सोमवार, 6 सितंबर 2010

नाक का सवाल

इंसान से लेकर जानवर तक की भौतिक संचरना में नाक का स्थान काफी महत्वपूर्ण है, सूंघने के सुख से लेकर छींकने के सुख तक नाक ने अपनी महत्ता को ऐसे दर्शाया है जैसे आगरा में ताजमहल ने अपने आप को। चेहरे पर नाक की उपस्थिति दिल्ली के कुतुबमीनार का अहसास कराती है। कई वन्य जीवों के लिए नाक उनके शिकार का माध्यम बनती है। ये कहा जा सकता है कि उनकी जो जून की जुगाड़ नाक आधारित होती है। अगर नाक न हो तो उन्हें लंघन (व्रत) करना पड़ जाए।
पुराणों में भी नाक की महिमा का बड़ा ही विशद वर्णन किया गया है। शूर्पनखा की नाक न कटती तो राम की विजय और रावण की हार न होती। ये नाक की ही लीला थी जो लक्ष्मण, रावण की बहिन को नकटा कर बैठे, शूर्पनखा राम के साथ रंगरेलियां मनाना चाहती थी, जबकि लक्ष्मण के लिए यही बात नाक का सवाल थी, एक झटके में गुस्सैल लक्ष्मण ने शूर्पनखा की नाक को हमेशा-हमेशा के लिए उसके सुंदर मुखड़े से जुदा कर दिया। अब जब कि लक्ष्मण ने अपनी और अपने भाई की नाक की बदौलत शूर्पनखा की नाक शहीद कर डाली तो ये बात भला रावण की नाक के लिए कैसे सवाल न बनती। अहंकारी रावण चल दिया राम के साथ सीतमपैजार करने। नाक का सवाल तो सभी के लिए बराबर ही है फिर चाहे वो राम हो या रावण। अब सीता के अपहरण मामले में रावण की खोज एक बार फिर राम के लिए नाक का सवाल बन गई। दोनों की नाक चूंकि अपने अपने समाज में बेहद ऊंची थी, इसलिए नाक के बचाव के लिए दोनों एक दूसरे के प्राण हरने को आमादा थे। अब जबकि बात राम और रावण चल रही है तो भला सु्ग्रीव, बाली, अंगद और हनुमान जैसे चरित्रों को कैसे भूले, इन सभी ने अपनी अपनी नाक के सवाल की रक्षा हेतु शोणित की नदियां बहा डालीं। अथक प्रयासों से और नाक के सवाल ने क्षत्रीय कुल की जैसे- तैसे लाज बचा ही ली, तमाम सीतमपैजार के बाद जब सीता घर लौटीं तो राम के नाक का सवाल बन गई सीता जी की इज्जत, जिसकी खातिर लव कुश की महतारी को अग्निपरीक्षा देनी पड़ी। वाह री नाक हो तो भी मुसीबत, न हो तो भी मुसीबत।
द्वापर युगीन यदुवंशी के लिए भी कंस नाक का सवाल था, लिहाज़ा महज़ 12 साल की ही आयु में किसन जी को अपने मामा के रक्त से हाथ लाल करने पड़े। यहां भी नाक ने ही युद्ध करवा दिया । इस बात से ये बात भी साबित होती है कि नाक के सवाल के जवाब ढूंढो तो युद्ध हो जाता है। दो देश आपस में भिड़ जाते हैं। जैसा कि मैं पहले ही इंगित कर चुका हूं, कि नाक चाहे किसी की भी हो उसके अहंकार का प्रतीक होती है। अगर किसी भिखारी से भी ऊंचे स्वर में बात की जाए तो, और भिखारी थोडा़ भी स्वाभिमानी हुआ, तो नाक के सवाल की खातिर वो आपकी इज्जत का भी फालूदा कर सकता है।
गणेश जी और शंकर जी की कहानी भी शायद आपको याद ही होगी, एक बार गणेश जी की अम्मा यानी पार्वती जी स्नान ध्यान में तल्लीन थी, लिहाज़ा द्वार पर ताका-झांकी से बचाव हेतु गणेश जी को पहरेदार के रुप में खड़ा किया गया था, इतने में कैलाश पर्वत पर भड़ैती फाने भगवान शंकर वहां आ पधारे, वो पार्वती से मिलना चाहते थे, लेकिन गणेश अवरोध उत्पन्न कर रहे थे, दोनों में काफी हील-हुज्जत हुई, लेकिन कोई टस से मस न हो। क्योंकि यहां भी दोनों की नाक का सवाल था, इसलिए दोनों में काफी तूतू-मैंमैं हुई, फैसला कुछ हो पाता इससे पहले ही गुस्सैल कैलाशी ने गणेश जी का सिर धड़ से अलग कर दिया। ऐसे मौके पर पार्वती का हाल भी वैसा ही हुआ जैसा भारतीय पुलिस का, जो हमेशा देर से पहुंचती है, यहां पार्वती जब तक पहुंचीं तब तक गणेश जी खूना खच्चर हो चुके थे, अब पार्वती को शंकर जी पर गुस्सा आया, अब उनमें तूतू-मैमैं शुरु हो गई, निर्णय ये निकल कर आया कि अब गणेश जी के सिर की व्यवस्था की जाए। इसी व्यवस्था के साथ एक बार फिर शंकर जी के लिए नाक का सवाल सामने निकल कर आया, खैर जैसे तैसे शंकर जी की असीम अनुकंपा से एक हाथी के सिर की जुगाड़ कर ली गई, जिसे गणेश जी के धड़ में फिक्स कर दिया गया, जो आज भी हम कैलेंडरों में देख सकते हैं, कैलेंडर देख कर याद रखिएगा कि ये सिर किसी की नाक का सवाल था।
धर्मयुग पर चलते-चलते थोड़ा अधर्मी युग की ओर भी चलिए, जहां खाने को रोटी नहीं लेकिन फिर भी नाक का सवाल हर किसी की नाक पर रखा रहता है। चने वाले ने चने में प्याज थोड़ी कम डाली तो ये बात ठाकुर वीर सिंह ने अपनी आन पर लेते हुए, उसके ही चाकू से उसकी नाक काट डाली, और उसे शूर्पनखा का मर्दाना रुप दे डाला। भला हो लुच्चे रस्तोगी का, जिसको ये बात नागवार गुजरी कि किसी ने उसके पीछे से उसे चिढ़ाने के लिए सीटी बजा दी, ये बात लुच्चे रस्तोगी के लिए नाक का सवाल बन गई, और उससे सीटी बजाने वाले को गरियाना शुरु कर दिया, ये बात और है कि बाद में पिटाई उसी की हुई। और नाक का सवाल करते करते सरे आम उसकी नाक बगैर खूना खच्चर हुए कट गई। हमारे मोहल्ले में लल्लन बाबू की नाक के लिए सबसे बड़ा सवाल यही है कि मोहल्ले में बंदर दिख न जाएं। क्योंकि जहां बंदर दिखेंगे वहां लल्लन बाबू भी दिख जाएंगे। लल्लन और बंदरों के बीच की ये दुश्मनी चोर सिपाही की दुश्मनी जैसी है। और इस दुश्मनी के बीच जो सबसे बड़ी बात जुड़ी है वो भी नाक से ही ताल्लुक रखती है। लल्लन चाहते हैं कि बंदर मोहल्ले से निकल जाएं और बंदर चाहते हैं कि लल्लन इस मोहल्ले से निकल जाएं। रोज़ इस बात की जंग होती है, लेकिन सच यही है कि पिछले तीस सालों का इतिहास आज भी बदला नहीं है, न लल्लन ने ही बंदरों के भय से मोहल्ला छोड़ा और न ही बंदरों ने लल्लन के भय से। उनकी नाक का सवाल आज भी सवाल ही है?
उत्तरप्रदेश की सत्ता में बहन जी का भी हाल नाक की खातिर कुछ ऐसा हो चुका है, चूंकि यूपी की सत्ता मायावती के लिए नाक का सवाल थी, इसलिए ब्राह्मण ठाकुरों को भी अपने दल में जोड़ने लगीं, जिन्हें पहले वो गरियाया करती थीं, अब उन्हीं को गले लगाती हैं, ये जरुर है कि पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता सुख भोगने के बाद पुन: उनके दल से ब्राह्मण ठाकुरों को लतियाया जाने लगा है। खैर बहिन जी की नाक तो बच ही गई, अब चाहे दूसरों की कटे या बची रहे। सोनिया गांधी के लिए भी हिंदी सीखना नाक के सवाल जैसा था, क्योंकि विपक्ष उनकी हिंदी की खिल्ली उड़ाया करता था, और इस इतालवी महिला को बार बार शर्मिंदा होना पड़ता था, औरत के लिए हया ही सब कुछ है, हया और नाक के सवाल की खातिर सोनिया को हिंदी सीखनी ही पड़ी। और आज हिंदी में ही भाषण देने की बदौलत वो काफी हद तक लोगों को जवाब देने में सफल रही हैं।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी नाक ने सफलता के झंडे गाड़े हैं, इस मामले में भारत की नाक वाकई कुतुबमीनार साबित हुई है, इंदिरा नुई, लक्ष्मी मित्तल, बॉबी जिंदल आदि आदि, इन सभी ने विदेशों में सफलता की वो इबारत लिखी कि विदेशियों के लिए ये लोग नाक का सवाल बन गए। तो भइया नाक सवालों की जननी है, या यूं कहें कि सूंघने छींकने के अलावा नाक के पास सवाल पैदा करने का भी एक बड़ा काम है। नाक ने जब-जब जहां-जहां सवाल किए वहां-वहां इतिहास लगभग बदल ही गया। बशर्ते कि सवाल बेक़ायदा न हों। इतिश्री फिलहाल नाक के सवालों को थोड़ा विश्राम दिया जाए। नाक बचा कर रखिएगा।

बुधवार, 1 सितंबर 2010

अहिर चाहे पिंगल पढै़........

कई दिन बिस्तर पर बिताने के बाद खुराफाती कलम आखिर बंदिशों से मुक्त हुई, और चंचल मन कुछ खुराफात करने को बेताब हो उठा। विचार आया कि कुछ लिख दिया जाए। क्या लिखूं ये बड़ा सवाल था? पिछले कई दिनों से एक चाटुकार बॉस की तानाशाही से आजिज़ था, इसलिए बॉस पर व्यंग ही सबसे उम्दा विषय सुझाई दिया। तो चलिए बगैर सुस्ती दिखाई आपको मस्ती में डुबो देता हूं।
शक्ल पर बजे 12 और शरीर पर बजे 24, टी.वी. की दुनिया में टी.बी.(ट्यूबर कुलोसिस) के मरीज की शक्ल को मात देता कुछ ऐसा ही चेहरा है हमारे दफ्तर में मौजूद एक बॉस का। कुंठा के मैले नाले से सराबोर उस बॉस की बदौलत दफ्तरी माहौल में एक नकारात्मक प्रभाव घुला सा नज़र आता है। जीर्ण शीर्ण अवस्था में चैनल के अंदर उसकी मौजूदगी हिरोशिमा नागासाकी के पीड़ितों की याद दिलाती है। तो वहीं महीनों से न धुले कपड़ों का चीकट आवरण दक्षिणी ध्रुव पर बने उन इगलू आवासित (बर्फ से बने मकान) लोगों की याद दिलाता है जिन्हें सालों स्नान ध्यान की आवश्यकता नहीं होती। अगर बॉस दफ्तर में कभी जुराब उतारकर बैठ जाए तो समझिए भोपाल गैस त्रासदी की तरह एक और हादसा दफ्तर में भी हो जाए। जुराबों की सड़ांध इस कदर समाचार कक्ष में घुल जाती है कि लोगों को कक्ष से बाहर भागना पड़ता है। अपने ऐसे ही कैरिकुलम की बदौलत बॉस दफ्तर में चर्चिल की तरह चर्चित रहता है। समीकरण अब कुछ यूं बनता है कि बॉस देश की जनसंख्या में नहीं बल्कि देश की समस्या में आता है।
उसके चेहरे पर भावों का अभाव साफ बताता है कि बाढ़ के बाद का तनाव प्रभावित शहरों में ही नहीं बल्कि उसके हमेशा फूले रहने वाले चेहरे पर भी मौजूद रहता है। जिसे देखकर कोई भी मौसम विज्ञानी बड़ी आसानी से भविष्य में होने वाले घटनाक्रम का अंदाज़ा लगा सकता है। विशेषताओं को दबाती उसकी खामियां ही उसकी खूबी हैं, जिनकी बदौलत उसने रिशेप्सन से होकर बड़ी मैडम के केबिन तक गुजरने वाले रास्ते को शीश झुकाऊ प्रणाली के माध्यम से पार कर लिया है। और यही उसकी विशेषता है। जहां कोई नहीं जा पाता वहां वो आधार से 45 डिग्री के कोण पर अपने सर को झुकाकर पहुंच जाता है। उसकी साधारण लंबाई इस प्रकार के झुकाव में उसकी खासी मदद करती है। अपनी इसी विशेषता की बदौलत लुगदी साहित्य के माहिर उस बॉस का संकुचित सीना गर्व से चौड़ा रहता है।
दो बजे की पाली में चार बजे दफ्तर की सीमा में उसका प्रवेश साफ इंगित करता है कि वो मैडम से सीधे टच में है। ऐसा जान पड़ता है कि मैडम को उसकी काफी आदतें पसंद हैं, जैसे-शीश झुकाऊ प्रणाली, जी मैडम-जी मैडम, हाथ जोड़ू तकनीक, गुदा के ठीक विपरीत दिशा में बंधे हुए हाथों की तकनीक, और दिवालिया दारुण चेहरा तकनीक आदि-आदि। मैडम की मुखबिरी करने वाले इस बॉस रुपी यस मैन ने दफ्तर के हर कोने में जाल बिछा रखा है। इस जाल के फंदे में जैसे ही कोई छोटी-मोटी कर्मचारी रुपी मकड़ी फंसती है, वैसे ही बॉस एक एसएमएस के द्वारा मैडम तक खुराक की खबर पहुंचा देता है, और त्वरित गति से मैडम रुपी बड़ी मकड़ी उस अदने को अपना शिकार बना लेती लेती है, ये एक ऐसी आहार श्रृंखला है जिसका शिकार कई लोग हो चुके हैं।
संगठन में उसकी इस प्रकार की गाथाएं लिखने का तीन साल से ज्यादा का इतिहास हो चुका है। जो अब तक बरकरार है। बॉस के मन में कब क्या चल रहा है किसी को पता नहीं, ठीक वैसे ही जैसे किसी गुप्त रोगी के शरीर की बीमारी का पता किसी को नहीं चल पाता, हक़ीम ही जानता है कि गुप्त रोगी आखिर शरीर के किस आपत्तिजनक रास्ते का इलाज करवा रहा है। वो भी तब जब हक़ीम को पूरी बात तफ़्सील से बताई जाए। लेकिन ये बॉस निहायत ही सूम किस्म का इंसान है, इसको पता है कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी, इसलिए बिना हाजमोला के ही बातों को निगल जाता है। बातें शेयर करने का डेयर उसके भीतर कतई नहीं। बस कुर्सी पर बैठकर हाथ में मोबाइल लेकर एक प्रकार की खुड़पैंच करता रहता है। सभी को पता रहता है कि ये खुड़पैंच सीधे डिजिटल संदेशों के माध्यम से बड़ी मैडम तक प्रेषित की जा रही है। ये एक ऐसा प्रेषण (consignment) है जिसके कमीशन के रुप में बॉस को मैडम के बाप से मिलता होगा 10,000 प्रतिमाह मैसेज का फ्री बाउचर। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि मैडम के अब्बा हुजूर से मिला ये कमीशन रुपी बाउचर बॉस की महिला मित्र को लेटनाइट तंग करने और मैडम का सूचना तंत्र मजबूत बनाने के काम आता होगा। यक़ीनन ऐसा था भी, क्योंकि डिजिटल संदेशों की सुपरफास्ट आवृत्ति देखकर कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि सूचनाओं की आवाजाही कहां तक हो रही है। मजे की बात तो ये है कि कई बार मैडम की ओर से आए संदेश लोगों के लिए भय का प्रतीक बन जाते हैं,जिन्हें दिखाकर बॉस छोटे मोटे कर्मचारियों की जान हलक में डाल देता है। महज़ तीन अर्दलियों के गुट का नेतृत्व करने वाला बॉस अपने आप को ऐसा समझता है जैसे नेपोलियन की तरह वो तीस हज़ार सैनिकों का नेतृत्व कर रहा हो। लेकिन सच यही है कि वो बंदर के खौंखियाने मात्र से डर जाता है।
निहायत ही कायराना प्रवृत्ति के इस बॉस के पास एक मोटरसाइकिल भी है, जो निश्चय ही देखने से युगांडा के ई-कचरे की समस्या जैसी लगती है, हॉर्न छोड़कर बाइक का हर पार्ट बड़े ही करीने बजता है, किश्त भुगतान पद्धति के बाद से बाइक ने शायद ही कभी सर्विस सेंटर का मुंह देखा हो? इस बॉस की एक और आदत है दूसरों के कार्य का क्रेडिट खुद ले उड़ना। और पिछले तीन सालों से ये इस कार्य को बखूबी अंजाम दे रहा है, झूठे रसूख के ठर्रे की मदहोशी इसके पाखंडी होने का अहसास हमेशा कराती रहती है।
सुकरात की तरह दिखने वाला ये बॉस ज़हर पीता नहीं बल्कि लोगों के लिए ज़हर की व्यवस्था करता है। दुनिया पर राज करने की जो समस्या अंग्रेजों के साथ रही वही समस्या इसके साथ भी है, लोगों में फूट डालकर ये बॉस अपने आप को डलहौजी समझता है। और खुद को एक निरंकुश प्रवृत्ति के चैनल का राजा समझता है, हालांकि ये एक ऐसा राजा है जिसे गद्दी कभी हासिल ही नहीं हुई। लेकिन फिर भी रहमो करम पर जीने की आदत ने इसकी आउटपुट हेड बनने की जिजीविषा को आज भी जीवित रखा है।
अपने आप को चैनल का एक प्रतिष्ठित और बेहद व्यस्त कर्मी सिद्ध करने के लिए ये अपने मित्रों तक को चैनल के बाहर दो-दो घंटे इंतज़ार करवा देता है। इस दौरान एक दूत को दोस्तों के पास भेजकर ये बात कहलवा देता है कि बॉस अभी मैडम के साथ मीटिंग में हैं, जबकि उसके दोस्त भी ये बात जानते थे कि ससुरा बेवकूफ बना रहा है, क्योंकि जब भी बॉस के दोस्त आते, तो बॉस की तरफ से एक ही संदेश भिजवाया जाता कि थोडा़ इंतज़ार करो, बॉस अभी मैडम के साथ मीटिंग में हैं।
आधार से 45 डिग्री तक झुकाव की नीति को अपनाने वाले इस बॉस के एक डायलॉग से लोग काफी खौफ खाते हैं, और वो डायलॉग है नौकरी खा जाऊंगा, उसके इस डायलॉग से लगता है कि जिस प्रकार से सूरदास बचपन से आंखों के लिए तरसते रहे, वैसे ही बॉस बचपन से लोगों की नौकरी खाने के लिए तरस रहा है। इस बात का खौफ लोगों में इसलिए भी था कि पूर्व में उसकी षडयंत्रकारी नीतियों की बदौलत दो चार लोग नौकरी से हाथ धो बैठे थे, और यही बॉस की पिछले तीन सालों में सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इन्हीं कारणों की बदौलत परेशान कर्मचारियों ने एक लंबे शोध के बाद उसके कई निक नेम रख दिए, जैसे- मोसाद(एक खूफिया जांच एजेंसी), खड़कसिंह, फ्राइड राइस, बुरी आत्मा, मैसेज मैन आदि आदि। ये सभी नाम उसके व्यक्तित्व के निखार को आधार मानकर रखे गए है। अब लोग अपनी भड़ास उसी के सामने उसके निकनेम के माध्यम से निकाल लेते हैं, और बॉस ये समझता है कि लोग किसी और का तियापांचा कर रहे हैं।
तो मित्रों बॉस पर व्यंग का ये एक सत्य घटनाओं पर आधारित किस्सा था, बचिएगा ऐसे अकर्मण्य बॉस से, क्योंकि इनका काम आप जानते ही हैं, ये चाटुकारिता और तानाशाही की दुनिया में तो झंडा बुलंद कर सकते हैं, लेकिन ईमानदारी की दुनिया में इनके लिए कोई जगह नहीं। वैसे भी तानाशाही ज्यादा दिन की नहीं होती, हिटलर भी मारा गया, और सद्दाम भी। अब तेरा क्या होगा बॉस ? क्योंकि सच ही कहा गया है “अहिर चाहे पिंगल पढ़ै, तबहुं तीन गुण हीन, खइबो, बुलिबो, बैठिबो लयो विधाता छीन”.....

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

राजनैतिक रतौंधी

इन दिनों सियासी चिल्ल-पों चरम पर है, उत्तर प्रदेश में बहन जी को चिंता सता रही है कि कहीं उनकी पार्टी का हाथी 2012 तक पगला न जाए। अगर ऐसा हुआ तो बौराया हाथी सबसे पहले अपने करीबियों को ही कुचलता है। जो माया पूर्ण बहुमत से सत्तासीन हैं, उनका सीन इस बार बिगड़ सकता है। हालात खुद के पैदा किए हुए हैं। खुद मायावती के खेमे में मौजूद एक सीनियर विभीषण से मेरी चंद रोज़ पहले वार्ता हुई। “तात लात रावण मोहि मारा” रावण की लात से बड़ा आहत मालूम दे रहा था वो। मैं उसके लिए शायद उस वक्त राम से कम न था, क्योंकि उसका दुखड़ा सुन रहा था।
रावण के उस अनुज भ्राता के अनुसार टीका टिप्पणी करने वाले राजनीति के कथित बुद्धिजीवी इन दिनों यूपी वाली बहिन जी को संयुक्त रुप से घेरने की फिराक में हैं। साम, दाम, दंड, भेद, हर किस्म का इस्तेमाल दौलतमंद माया के खिलाफ उनके विरोधी कर सकते हैं। दल अलग-अलग हैं लेकिन मकसद एक है, कहीं बहन जी एक बार फिर सत्तासीन न हो जाए ! उसकी मोसादिक(एक खूफिया एजेंसी) प्रवृत्ति की रिपोर्ट के आधार पर ये कहना उचित होगा कि, लोग बहिन जी को 2012 तक डाइटिंग जरुर करा देंगे। अपने घड़े समान उदर में करोड़ों समेट चुकी बहन जी चालाक हैं, शातिर हैं, और सबसे बडी़ बात, कथित तौर पर दलित मसीहा भी हैं, लिहाज़ा उनके खिलाफ शह और मात का खेल इतना आसान नहीं। तभी लोग माथापच्ची को मजबूर हैं। बहन जी की सत्ता समेटने के लिए लोग इस कदर प्रयासरत हैं कि बस पूछिए मत, अगर ऐसे प्रयास गुलाम भारत के लिए किए गए होते, तो शायद अंग्रेजी पिछवाड़े पर पेट्रोल पहले ही लग गया होता, और गुलामी का इतिहास 200 सालों का नहीं होता।
ये सत्ता का सुख राजनैतिक रतौंधी (एक बीमारी जिसमें रात में दिखाई नहीं देता) है, यहां दिन में आदमी सबका होता है, और रात में किसी का नहीं। राजनीति का ये अंधापन बहनजी को भी खा गया है, भले ही माया पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता और शासन का सुख भोग रही हैं, लेकिन दिन के वादे रात की भूल साबित हो रहे हैं। वो वादा तो कर लेती हैं, लेकिन किसी ग़लती की तरह भूल जाती हैं। उत्तर प्रदेश आपराधिक मामलों का जानकार बन गया है, और माया कहती हैं, ये दोष है और किसी का। अगर दोष किसी और का होता, तो कलह का शिकार उक्त विभीषण को न होना पड़ता । उसकी नौकरी नहीं जाती, वो बेरोजगार नहीं होता, ठलुअई नहीं करता, और सबसे बड़ी किसी राम की शरण में नहीं जाता।
अब जब कि वो कलयुगीन राम के द्वारे आया है, तो कुछ न कुछ तो फायदा उसे मिलना ही चाहिए। लेकिन इस बार बेचारे राम भी कुछ नहीं कर सकते । वो खुद फाके में जी रहे हैं, विभीषण के लिए दो जून की व्यवस्था क्या ख़ाक करेंगे। लेकिन बहन जी के लिए किसी के फाके मायने नहीं रखते, खा-खाकर उनका घाट इतना चौड़ा गया है कि अब पुश्तें मौज काटेंगी ही। यकीन करिए, जिन योजनाओं का विस्तार कागज़ में हुआ, उनमें से कई कागज़ों को तो दोबारा हाथ तक नहीं लगाया गया। जिन योजनाओं को अमल में लाया भी गया, तो उनमें घोटाले चीख़-चीख़ कर कह रहे थे, कि मैं माया हूं, मैं माया हूं। भला कौन समझाए राजनीतिक रतौंधी की शिकार बहन जी को। वक्त सब कुछ समझा देता है, और वैसे भी माया के लिए उनके विरोधियों ने इस बार एक ऐसा मंच बना दिया है। जिस पर चढ़ते ही, धड़ाम की आवाज़ आएगी। आगे आप खुद समझदार हैं।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बदलते मौसम की भयानक तस्वीर

पसीने से सराबोर शरीर की दुर्गंध ने डियो कंपनियों के सारे दावों को तहस नहस कर दिया है। तप रही गर्मी की भट्टी में शरीर ऐसा लग रहा है मानो भुने हुए आलू की तरह सूरज हमें चटनी डालकर चाट जाने वाला है। वाह रे भगवान भास्कर की चटाई, पृथ्वी पर पैदा हुई इस सर्वश्रेष्ठ कलाकृति को ही लीलने पर उतारु है। शरीर पर जमी कालिख की परत और झुलस कर पड़ीं झुर्रियों ने अभी से साल के अस्सीवें पड़ाव पर लाकर खड़ा कर दिया है।
बद मिज़ाज मौसम को तो देखिए, चीख-चीख कर कहता है मैं ग्लोबल वॉर्मिंग का शिकार हूं। मुझे बख्श दो। न हम उसे बख्श रहे हैं, और न वो हमें। जुलाई का महीना है और बारिश के नाम पर दिल्ली-एनसीआर में दो चार छीटे, अल्लाह ने मेघ जहां दिए वहां कयामत आ गई। पंजाब, हरियाणा, में अब तक पानी की कमी थी, लेकिन अब इतना पानी है, लोगों के रहने के लिए जगह कम पड़ गई। नियति का खेल, प्रकृति का तमाशा यही कहता है कि उससे छेड़ छाड़ न करो। वरना वो हमारे साथ खेलेगी। और ये खेल ऐसा है जिसमें जीत की मंशा रखना ही बेमानी है। न ड्रॉ की स्थिति, न वॉकओवर की, बस हारना ही है। खुदा खैर बरकत करे उन लोगों को जिनके घर बाढ़ में तबाह हो गए, जिनके परिवार में से कोई पानी की बलि चढ़ गया। जल की लीला ही ऐसी है, ज्यादा हो तब भी मुसीबत कम हो तब भी मुसीबत।
कहानी से थोड़ा हटना चाहूंगा ले चलता हूं आपको अपने पैतृक गांव जहां इस बार हवा-पानी बदलने के लिए गया था, पूरे दस साल बाद गांव तस्वीर ही बदल गई थी, मेरा खुद का घर भी पक्का हो गया था। छप्पर की जगह लिंटर की छांव थी, मिट्टी की दीवार की जगह भट्टों की पकी लाल ईंटों ने ले ली थी। सड़क पक्की बनाई गई थी, लेकिन मिलावट के माल ने उसकी हकीकत को छिपाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, जो घुचड़ू मदारी मेरे साथ कभी खेला करता था, उसके चार बच्चे हैं, वो सिर्फ खेती करता है, और कच्ची पीता है। उसकी दिनचर्या भी यही है। ये दिनचर्या बच्चों की नहीं बच्चों के बाप की है। गांव में अब वैसा मजा नहीं था, जैसा सोचकर मैं वहां गया था। हालांकि चंद खुशकिस्मत पेड़ों की छांव मुझे जरुर मिल गई, लेकिन फिर भी उन पेड़ों के बीच अब सूरज की रोशनी की तपिश ने अपने लिए हजारों दर्रे बना लिए थे, जहां से वो अपने कोप से मुझे अपना शिकार बना सकता था। वहां मौजूद कई पोखर तालाब अब सूखने की कगार पर थे क्योंकि मौसम बेईमान है, और उससे ज्यादा हम। तालाबों को पानी की जरुरत है, और हमें पूंजीवाद में अपने आपको आगे बढ़ते देखने की ललक। तालाब अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हम गलत हैं, क्योंकि हमारे हित नुकसान प्रकृति का ही करते हैं। और फिर प्रकृति या तो हमारे सामने भीषण गर्मी के रुप में, हाड़ कंपाने वाली ठंड के रुप में या फिर किसी सुनामी के रुप में सामने आती है, जिससे हम बच नहीं सकते ।
हमारी किस्मत चमकने के साथ प्रकृति की किस्मत फूट जाती है, और जब ऐसा होता है, तो तबाही का दृश्य बदलते मौसम की भयानक तस्वीर पेश करता है। ज़िंदगी की रहगुजर अब इतनी आसान नहीं रह गई, हमारी लड़ाई बदलते मौसम से है, जहां हम जीत नहीं सकते। इस नफरत को ख़त्म कर दें, वरना ये हमारे लिए नर्क के द्वार खोल देगी। हम प्रकृति को कुछ दे नहीं सकते तो उसकी रक्षा जरुर कर सकते हैं। वैसे भी भीषण गर्मी ने हमें हमारी औकात बता दी है। बामुलाहिजा होशियार तूफान तबाही लेकर ही आते हैं।

रविवार, 11 जुलाई 2010

बारह फट्ट-फट्ट, आठ परसीं चार गायब

टाइटिल उलझाऊ हो सकता है, लेकिन कहानी बेहद साफ है। एक दम शीशे सी उजली । बात दिनों की है, जब शायद वस्तु विनिमय का दौर रहा होगा। एक गांव में एक भठियारन ( पैसे या सामान लेकर खाना बनाने वाली महिला) रहा करती थी, उस दौर में मुद्रा अलग-अलग रुपों में प्रचिलित थी, नोट चलन में नहीं थे, लेकिन सिक्कों का चलन शायद रहा होगा। वो भठियारन राहगीरों के लिए खाना बनाया करती थी, एवज़ में राहगीरों से लेती थी, अपनी जरुरत का कुछ सामान, जो कि उसके लिए मुद्रा का कार्य करता था। वो भठियारन अपनी उम्दा पाक कला के कारण दूर-दूर तक मशहूर थी, लिहाज़ा बीवियों से ठुकराए हुए, समाज से ठुकराए हुए, या नहीं भी ठुकराए हुए लोग उसकी झोपड़ी में कुछ दमड़ी चुका कर उदर छुदा को मिटा लिया करते थे। कुछ लोग उसके शरीर की कीमत भी लगा दिया करते थे, और वो भी मना नहीं करती थी। लेकिन ज्यादा पैसे की लोलुपता ने उसके मन में कपट भर दिया था।
एक रोज़ की बात है, एक राहगीर जिसके पास पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री का कच्चा माल मौजूद था, लेकिन भोजन बनाना नहीं जानता था, इसलिए उसने उस भटियारन की झोपड़ी की ओर कूच कर दिया। दरवाजे पर पहुंचते ही, उसने अपनी फरमाइश भठियारन के सामने रख दी । और भठियारन ने कहा ठीक है, लेकिन खाना बनने में थोड़ा वक्त लगेगा, वो राहगीर वहीं भठियारन की झोपड़ी के एक दूसरे छोटे कमरे में बैठकर खाने का इंतज़ार करने लगा, सब्जी तैयार हो चुकी थी, और रोटियों के लिए आंटा भी गूथा जा चुका था। अब बारी थी, रोटियां सेंकने की। उस आंटे से बनने वाली रोटियों की तादात 12 थी। क्योंकि राहगीर ने बारह बार रोटियों की फट्ट फट्ट (हाथ से बेलने की आवाज़) की आवाज़ को सुना था, लेकिन जब राहगीर को रोटियां परोसी गईं तो रोटियां 12 की संख्या में नहीं बल्कि 8 की संख्या में थीं। राहगीर भौचक्का था, बोला क्या बीबीजी बारह “फट्ट फट्ट, आठ परसीं चार गायब” । पहले तो भठियारन को कुछ समझ नहीं आया, लेकिन जब राहगीर ने अकड़ कर उससे कहा कि मैने बारह बार रोटियां बेलने की आवाज़ को सुना, और तुमने आठ ही परोसीं, ये क्या घपला है। वो भठियारन सफाई देने लगी कि नहीं तुम्हें गलतफहमी हुई है। लेकिन वो राहगीर भी चालाक था और उसकी हरकतों को अच्छी तरह जानता था, वो उसकी रसोई की तरफ गया, और छिपा कर रखी गईं चार रोटियों को दिखाते हुए बोला कि ये वही रोटियां हैं, जो कि तुमने मेरे हिस्से में से चुराकर अपने पास रख लीं। गलत मैं नहीं था, गलत तुम हो अपने ईमान से।
तो कहानी का सार यही कहता है कि हिंदुस्तान की सियासत में बनने वाली रोटियां बारह फट्ट फट्ट हैं, जिनमें चार गायब हो जाती हैं, और पता तक नहीं लगता, जनता जनार्दन जानती है, कि सरकार की योजनाओं से जो हिस्सा उसे मिलना चाहिए या तो वो उस तक पहुंच ही नहीं पाता और अगर पहुंचता भी है तो आधा-अधूरा। सरकार के बीच बैठे चंद लोग भठियारन का रोल निभाते हैं, और हम राहगीर हैं, जो अपने हिस्से से टैक्स देते हुए भी अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। आंखों में जब लालच भर जाए तो उन्हें दमड़ी के सिवाए कुछ दिखाई नहीं देता। ऐसा ही हाल भारतीय राजनीति का भी है, यहां भठियारन भी है, और राहगीर भी।
भठियारन की आँखों में सिर्फ लालच भरा है, तो उसे सिर्फ दमड़ी दिखाई देती है, और राहगीर हमेशा की तरह बेचारा बना रहता है।
बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ के बाद की कहानी भी ऐसी ही है, यहां बाढ़ के बाद अगर कुछ बचता है, तो सिर्फ किसानों के हाथों में रेत, खेतों में खरपतवार, और तबाही, पिछली बाढ़ के बाद दूसरे राज्यों से मिली मदद के बावजूद कई लोग अब तक बेघर हैं, उनके खेतों से अभी तक वो मनहूस रेत नहीं हट सकी है, जिसे पिछले साल की बाढ़ बहा कर अपने साथ ले आई थी। और अब अगर इस बार भी बिहार को इंद्र देवता का कोप झेलना पड़ा, तो नुकसान की सुनामी आ जाएगी। और मुआवज़े या मदद के रुप में वही “बारह फट्ट फट्ट आठ परसीं चार गायब” या फिर शायद इससे भी ज्यादा। हमें उस राहगीर की तरह जागरूक और बुद्धिमान बने रहना होगा, और चेताना होगा सरकार के उन नुमाइंदों को जो सफेदपोश भठियारन का किरदार निभा रहे हैं।

मंगलवार, 22 जून 2010

चमचा उन्नति कॉर्नर

पिछले कई बर्षों से देख रहा हूं, चमचों को फलते-फूलते, ये नहीं पता चल पा रहा था कि वो और क्यों, कैसे, और किस विधि से दिन ब दिन विकसित हो रहे हैं, और भारत विकाशसील का विकाशसील ही बना हुआ है। भारत ढर्रे पर चल रहा है, और वो ढर्रे से हट चुके हैं। शायद यही उनके विकास का जरिया बन गया है। विकासशील भारत की उन्नत तस्वीर जब चमचों के द्वारा खींची जाएगी, तो भारत का गर्त में जाना तय है। खासकर तब जब हिंदुस्तान में चमचा उन्नति कॉर्नर खोला जाने लगा हो। चूंकि अब से कुछ रोज पहले मैने अपने एक ब्लॉग में http://khabarloongasabki.blogspot.com/2010/03/blog-post_29.html
चमचा काल का जिक्र किया था, इसलिए इसमें जिक्र नहीं करुंगा की चमचों का इतिहास कलिकाल से चला आ रहा है। मेरी बात ढर्रों से थोड़ी हटकर है क्योंकि ढर्रे पर चलना मेरी आदत नहीं, लेकिन मैं एक चमचा भी नहीं, बस चमचों पर नज़र रखने वाला एक ख़बरदार हूं। इसमें कोई शक नहीं हमाम में नंगों की कोई कमी नहीं, लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं कि भारत में चमचों की कोई कमी नहीं।
जब घी सीधी उंगली से नहीं निकला, तो चमचों ने उन्नति कॉर्नर खोल लिया। चमचों के इस ठिए में (निवास स्थान) सिर्फ मंत्रणा होती है, भारत के विकास पर नहीं, बल्कि खुद के विकास पर । जनता इन दिनों महंगाई और गर्मी से परेशान हैं, लेकिन चमचों को इससे कोई इत्तेफाक नहीं, क्योंकि वो मेरी नज़र में इंसानों की श्रेणी में नहीं आते, वो एक अलग तरह की प्रजाति है, जिसने पिछले दिनों में बेतरतीब उन्नति की है। बस कुछ ऐसा ही बूछिए कि वो जब चर्चा करते हैं, तो सिर्फ निजी विकास पर। भारत की विकास दर से उन्हें कोई आशय नहीं।
चमचों का ये कोना एक ऐसी चर्चा का मंच है, जहां चमचैली परंपराओं की कलश यात्रा से लेकर उनका अश्वमेघ यज्ञ भी किया जाता है। एक बॉस की पीछे दस चमचे ठीक वैसे ही लगे होते हैं, जैसे कातिक की कुतिया के पीछे सड़क छाप कुत्ते। निजी विकास की रबड़ी को लालायित ये कुत्ते, कातिक की कुतिया के पीछे ऐसे पड़े रहते हैं, जैसे गाजर के पीछे गधा। “तात लात रावण मोहि मारा” की तरह किसी दफ्तर के लिए ये विभीषण साबित होते हैं, जैसे ही रावण इनके पिछवाड़े पर लात मारता है, ये फौरन राम की शरण में जाकर सारे राज़ उगल देते हैं। बस अंतर इतना है कि राक्षस कुलीन विभीषण एक सीधा साधा इंसान था, जबकि ये आदम युगीन लोग लोभी प्रजाति के जीव के जीव की तरह हैं। जो नौकरी में प्रमोशन पाने से लेकर, लोगों की नौकरी खाने तक में बॉस की जी हुजूरी बजाते फिरते हैं। काम के नाम पर उनकी दिहाड़ी सिर्फ बॉस को एक मैसेज भेजने मात्र से ही पूरी हो जाती है। मैसेज का विषय कुछ ऐसा रहता है, कि आज दफ्तर में इतने आदमी मौजूद रहे, उस व्यक्ति ने काम किया, अमुक व्यक्ति ने काम नहीं किया, फलाना व्यक्ति आपको गरिया रहा था, और आपकी दुआ से सब बढ़िया चल रहा है। कुल मिलाकर बॉस को भेजा गया ये एसएमएस छ महीनों में ही उनकी तरक्की के साधन जुटा देता । बॉस की जूठन चमचों के लिए नाइट मील से कम नहीं है। और उसकी जूठन खाकर चमचा अपने आप को महान समझता है।
ये सच है कि चमचा उन्नति कॉर्नर में मौजूद सारे चमचे बॉस की खिचड़ी हिलाने का काम करते हैं, वो दिगंबर हैं, और उनका बॉस द हेड ऑफ दिगंबर। वाह रे नंग, जो तुम अपने आप को परमेश्वर से भी ऊंचा समझते हो। क्योंकि आपको पता ही होगा “नंग बड़े परमेश्वर से”। इसलिए चमचों की नंगई से बचकर ही रहिएगा। इनकी हरामगर्दी आपकी खुद्दारी को लील सकती है।

रविवार, 13 जून 2010

चिलम चूतिया

एक रात की बात है,
बिना विचारे,
मेरे द्वारे,
दो चूतिया पधारे।
मकसद-ए-खाक था,
इरादा नापाक था।
बनाना था मुझे चूतिया,
मौका था अप्रैल फूल का।
भीषण गर्मी थी,
उन्हें ठहराने को,
घर में जगह कम थी।
चू रहा था,
उनकी टांट से पसीना,
उस रात दोनों ने,
कर दिया हराम मेरा जीना।
अपनी संकुचित जुबान से,
बड़े बड़े प्रोजेक्ट मुझे सुझाने लगे।
कम लागत में,
बड़े बनने का ख्वाब,
मुझे दिखाने लगे।
उनकी बातों में उस रात बड़ा दम था,
जो मुझे हर बात सुहाने लगी।
लगा,
कि अब बड़ा बन जाऊंगा
टेम्स के दर्शन कर पाऊंगा ।
लेकिन उनकी सुलगती,
चिलम-ए-चूतिया का धुंआ,
मैं महसूस न कर पाया,
उनके इरादों को भांप न पाया ।
अपने आप को वो समझ रहे थे,
भारत की महान विभूतियां,
और बना रहे थे मुझे चूतिया।
था मलाल इस बात का ,
कि वो दो थे ,
और मैं था अकेला,
समझ नहीं पा रहा था,
उनका झमेला ।
उनकी हर बात में रबडी़ का लच्छा था,
उनका हर विचार उस समय बड़ा अच्छा था।
वो ब्रेन वॉश में माहिर थे,
चाट गए किसी दीमक की भांति,
मेरे दिमाग को,
और समझ रहे थे बुद्धिजीवी,
अपने आप को ।

शनिवार, 5 जून 2010

हलाल हो गई कसक

तुम्हारी कसक मेरे घावों पर लगी उस बैंडेड की उधड़ी पैबंद है जहां से झांकता मेरा घाव अब लोगों को भी नज़र आने लगा है। ये घाव कभी सी नहीं सकेगा कोई, तुम्हारे अहसासों की पुलटिस (मरहम) बार-बार इन घावों को हरा करती रहेगी, ये टीस हमेशा उठती रहेगी। बार बार आवाज़ आएगी, तुम मतलब परस्त हो। मैं तुम्हें जीत तो न सका, लेकिन तुम मेरी हार पर हमेशा हंसते गए। तुम्हारी उस हंसी में आत्म सुख की अनुभूति दिखाई देती है मुझे। शायद तुम्हारा आत्मसुख मेरी हार से ही जीवित है। मैं हर बार हारुंगा ऐसा नहीं होगा। जीतने आया था, जीत कर जाऊंगा। मेरी इच्छाएं नेपोलियन के साहस से भी ऊंची हो जाती हैं, जब मैं इस खेल में अपने आप को हारा हुआ महसूस करता हूं। कभी न झुकने का साहस मेरी खुद्दारी है। हो सकता है कि मैं थोड़ा सा नरम हुआ हूं, लेकिन झुका कभी नहीं। तुमने शायद इसी नरमी को गले लगाकर जीत का हार पहन लिया हो। लेकिन मैं अपनी हार से ऊपर उठ जाऊंगा, तुम्हें हराकर जाऊंगा। तुम्हारे साथ के अहसासों में मैने अपने आप को कहीं खो दिया था। लेकिन अब निष्ठुर हो चुका हूं। कहीं खोने नहीं दूंगा अपने आप को । अब साधा हुआ तीर चिड़िया की आंख पर ही लगेगा। मेरे दरीचे का जो शामियाना तुम्हारे तूफान से उखड़ गया था, वो अब फिर लग चुका है। फिर बहार उस शामियाने को अपने आगोश में लेने वाली है। तुम्हारी हर मीठी छुअन अब चुभन बन चुकी है। पोटेशियम साइनाइट बनते जा रहे हो तुम मेरे लिए, मैं तुम्हें सिर आंखों पर बिठाता गया, और तुम चंदन पर लिपटे सांप की ही तरह मेरे तन को डसते चले गए।तुम खुद्दार हो किसी के लिए ये तो मैं नहीं जानता, लेकिन तुम्हारी गद्दारी ने मुझे खूब सिखाया है। वक्त बदल चुका है, राहों के कांटे अब पुष्प बन चुके हैं। तुम्हारी याद करके इन लम्हों में और ज़हर नहीं घोलना चाहता। तुम्हारे सुख की कामना करता रहूं, अब शायद ये भी न हो पाए मुझसे। अगर तुम व्यस्त हो, तो मैं तुमसे ज्यादा व्यस्त हूं। मेरी जीवनी में तुम एक ऐसा चरित्र बन बैठे थे, जो मुझे हमेशा कमज़ोर करता रहा। अपनी इसी कमज़ोरी से निपटने का उपाय ढूंढ लिया है मैने। जाओ चले जाओ कहीं दूर, जहां से न मैं तुम्हारी आवाज़ सुन सकूं, और न ही तुम्हें देख ही सकूं। तुम एक बेरहम कातिल हो, तुमने मेरे शरीर का कत्ल तो नहीं किया। लेकिन मेरी आत्मा और मेरे अहसासों को हलाल जरुर कर दिया। अब वो अहसास कभी जीवित न होंगे। जाओ किसी कण में अब तुम्हारी शक्ल मुझे दिख जाए न कहीं। मेरी कसक की हलाली करने वाले ऐ दोस्त तुम्हारी गुमशुदगी अब कभी तलाश न हो सकेगी।

बुधवार, 19 मई 2010

तीन मिनट की ‘लोन व्यवस्था’

भारत एक कृषि प्रधान देश है, साथ ही तुर्रमखाओं का देश भी है। यहां तुर्रमखाओं ने अपनी तुर्रमई की बदौलत पड़ोसियों को जलने-कुढ़ने पर मजबूर कर दिया है, ‘पड़ोसियों की जलन आपकी शान’ सभी को याद होगा। कि किस तरह से एक कंपनी की टीवी खरीदने से दूसरों के जलन की व्यवस्था हो जाती है। यहां हमारी शान से कोई मतलब नहीं विशेष प्रायोजन तो दूसरे की जलन से है। नब्बे के दशक में विलासकारी वस्तुओं की खासी कीमत हुआ करती थी। इन वस्तुओं को घर में सजाने के लिए पहले योजनाबद्ध होना पड़ता था, उसके बाद अगर योजना अमल में आ जाती थी, तो घर में अच्छे पकवानों के साथ उस योजना का शुभारंभ भी हो जाता था। मसलन बीस हजार रुपए में अगर रंगीन टेलीविजन बाज़ार में बिक रहा है, तो तुर्रमखां को कम से कम बीस बार सोचना पड़ता था, उसके बाद कहीं जा कर जोड़-जुगाड़ भिड़ा कर रंगीन स्क्रीन टीवी घर पर आ पाता था। और यहीं से शुरु हो जाती थी, पड़ोसी के जलने की व्यवस्था।
उस वक्त विलासकारी समस्त वस्तुओं के दाम इतने ज्यादा हुआ करते थे, कि सरकारी नौकरी करने वालों के बस के बाहर की बात थी, कि वो हर सुविधा का लुत्फ उठा सकें। जिस तरह से जब ताकत तानाशाह बन जाती है तो विनाश की बू आने लगती है। ठीक वैसी ही कहानी है भारत में लोन व्यवस्था की, यहां धन संपन्न होना समाज में पैठ है, ख्याति है, डूड है, हंक है, एलीट है, और न जाने क्या क्या, लेकिन अगर आप धन संपन्न नहीं हैं तो, आप नाकारा हैं, काहिल हैं, मजबूर हैं, गरीब हैं, सस्ते हैं, निरीह हैं, हैरान हैं, परेशान हैं, और न जाने क्या क्या।
चलिए शुरु करते हैं लोनिंग व्यवस्था के बारे में। ये आज के युग में सभी के लिए ठीक वैसे ही जरुरी है, जैसे एकाउंट्स में व्यापार आरंभ करने की जर्नल एंट्री। अमीर हो तो लोन, गरीब हो तो लोन, कहीं के नहीं हो तो भी लोन। लोन यूनिवर्सल है, तुर्रमखां ने लिया लोन और बनवा ली कोठी, खरीद ली कार, लगवा लिया एसी, और बन गए एलीट, ब्याज चुकाए पड़े हैं, नौबत ये आ गई है कि जो खरीदा था वो धीरे धीरे बेंचना पड़ रहा है। यही तो कर्ज की माया है, और कर्जदार का दुर्भाग्य।
बड़ी पुरानी कहावत है, किसान कर्ज में जन्म लेता है, और कर्ज में मर जाता है। लेकिन फिर भी कर्ज लेता है, ले भी क्यों न, कृषि प्रधान देश है तो क्या, यहां किसानों की इज्जत करने वाले न तो हम हैं और न सरकार । हालांकि सरकार ने तो इस बार ऋण माफ कर दिया, लेकिन साहूकार कोई मर थोड़े ही गए हैं, किसान उनसे और लोन लेंगे, और साहूकार उनसे और ब्याज लेंगे। नतीजा ये निकलेगा कि बेचारे की लुटिया डूब जाएगी। उसकी ज़मीन पर सामंतवाद का अंगूठा लगा दिया जाएगा । और किसान फिर मजबूर हो जाएगा कर्ज में मरने को।
लोन की बात चली रही है तो एक साइन बोर्ड पर आपकी नज़र ले जाता हूं, जो कहता फिरता है कि “तीन मिनट में लोन” । ये तीन तिगाड़ा जहां भी होता है काम बिगाड़ता ही है। लेकिन किसी रचनात्मक व्यक्ति द्वारा रखी गई ये पंच लाइन, बड़ी सफाई से चूतिया बना रही है। पहले तो ये सुनें कि तीन मिनट में कर्जदार बनाने वाली कंपनिया, तीस चक्कर कटवाती हैं, उसके बाद कहीं जाकर इंसान को कर्ज में डुबा दिया जाता है। औद्योगिक क्रांति है, सभी को कर्ज चाहिए किसी को इनकम टैक्स से बचने के लिए तो किसी को पड़ोसियों की जलन के लिए, तो किसी को दो जून के लिए। ऐसे में तीन मिनट की लोन व्यवस्था बड़ी आसान नज़र आती है।
ये तीन मिनट की लोन व्यवस्था दूर का ढोल है जरा उनसे पूछिएगा जो इस सुविधा का कथित तौर पर आनंद उठा चुके हैं। उनके लिए आज का आनंद कल का रोग बन चुका है। हायर परचेज़िंग और इंस्टॉलमेंट सिस्टम ने सिस्टम खराब कर दिया है। ये व्यवस्था, उदारवादी युग में साझीदार बन चुकी है। एक ऐसा साझीदार जो सिर्फ सुख का साथी है, दुखों के दौर में वो मौत बनकर प्रकट हो जाता है। लोन लेने से पहले विचारना ये कर्जदार की फितरत नहीं, यही कारण है कि बाद में उसे कई बार लोन माफियाओं के लट्ठ खाने पड़ते हैं। लोनिंग के पीछे बैठी लोन माफियाओं की ताकत कर्जदारों की नींद हराम कर देती है। ये इतने ताकतवर होते हैं कि अगर आपने अपनी किश्त वक्त पर नहीं जमा की तो ये आपका आने वाला वक्त खराब कर सकते हैं। लठैतों को ट्रेंड करने वाली ये निजी कर्ज संस्थाएं बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह फैली जा रही हैं। एक कर्जदार के पीछे चार लठैत नियुक्त किए जाते हैं। जो किश्त वक्त पर नहीं भर पाता उसे घर से उठवाने का माद्दा भी रखते हैं ये। प्रशासन इनकी दौलत और रसूख के सामने खुद को बौना साबित कर लेता है। यही कारण है कि कर्ज का कैंसर लाइलाज बीमारी बनने की कोशिश करने लगा है।
खैर तुर्रमखां अब लोन लेंगे, इस बात का तो पता नहीं, लेकिन वो लोनिंग प्रक्रिया के परिणामों को नहीं भूलेंगे। कई बार ऐसा होता है कि दूसरों को जलाने के चक्कर में हम खुद जल जाते हैं। जलन बड़ी महान है, दूसरों को हो जाए तो समझिये हमारे लिए सबसे बड़ा सुख । तो कवि कहता है कि लोन लेकर तुर्रमखां न बनिए। दूसरे आपके सुखों से जलेंगे, ये मत सोचिए। बस ये सोचिए कि अब कर्ज नहीं लेंगे।

बुधवार, 12 मई 2010

सीख, सरीखत और विनाशकारी विचार

वक्त इतना नहीं बीता कि, अभी सब कुछ ठीक न हो सके। सबकुछ समेटा जा सकता है। बहुआयामी विकास के जिस चेहरे और मोहरे को गढ़ने के चलते हमने बहुत कुछ खो दिया है। वो हम फिर से पा सकते है। भारत की विकास दर पर भले ही हल्ला होता है । लेकिन विकास की आड़ में बढ़ती विनाश दर ने ज़िंदगी के मायने ही बदल दिए हैं।
कंकड़ों के जंगल से लेकर हरी घास के मैदानों तक भारत थोथे विकास का एक ऐसा जामा ओढ़े हुए है। जिसका भविष्य सिर्फ शून्य है। विकास की अंधी में विनाश का चेहरा बड़ा भयावह हो जाता है। और यही हमारी समझ में नहीं आता । या यूं कहें बुद्धिजीवी होते हुए भी समझने की चेष्ठा नहीं करते। यही हमारा दुर्भाग्य भी है।
विकास के भोथरे चाकू के बल पर हम सरीखत कर लेते हैं। लेकिन ये सरीखत बंदर की खौं-खौं से कुछ ज्यादा नहीं है। सरीखत करने की इसी परंपरा ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। जिसका नतीजा है कि हम आज हम उदीयमान भारत की ब्लर तस्वीर देख पा रहे हैं। लेकिन कहते फिरते हैं, कि हम एलीट हो चुके हैं। सच क्या है, ये जानते हैं, फिर भी खीसें नपोरते हैं। विडंबना यही है विकास की आड़ में विनाश को ढोने के तरीके ईजाद किए जाने लगे है।
यहां एक चीज़ पर ध्यान दें। कि सरीखत और सीख में बड़ा अंतर होता है। सरीखत इंसान में बेवजह की होड़ पैदा करती है। जबकि सीख उद्देश्यपरक होती है। लेकिन हम सरीखत करते हैं। सीखते कहां हैं ? उदाहरण के तौर पर हम नकस्ली आंदोलन को ले सकते हैं। जिसको पांच दशक होने को हैं। और लाल सलाम बेगुनाहों के शोणित से सना जा रहा है। यहां भी बात विकास की ही थी। विचारों के विकास की ! साठ का दशक खत्म होने को था। और कुछ युवा बंदूक उठाकर विचारों की आजादी चाहने की फिराक में थे। सोचिए कि क्या बंदूक की नोक किसी के विचारों को आजाद करा सकती है। नहीं कतई नहीं। शायद इस आदिवासी आंदोलन को इस बात का मलाल है कि उन्हें आज़ादी के आंदोलन में शामिल नहीं किया गया। या उनकी सक्रियता को नज़र अंदाज़ कर दिया गया । यहीं हमें सीखने की जरुरत है सरीखत की नहीं। इटली एक बड़ा उदारण बन सकता है। 1861 में इटली के एकीकरण की शुरुआत थी। उनके भी आंदोलन का रंग लाल था। और नक्सली विचारधारा भी लाल रंग को मानती है। लाल रंग या तो इनके मायनों में विरोध का ज़रिया थी। या फिर रक्त को इंगित करने वाला विरोध था। इटली के एकीकरण के दौरान गैरीबाल्डी का बड़ा योगदान माना जाता है। ठीक वैसे ही चारु मजूमदार और कानू सान्याल को भी नक्सली आंदोलन की शुरुआत के लिए जाना जाता है। लेकिन यहां अंतर है विचारधारा के भटकने का । जहां इटली के एकीकरण में लाल कुर्ती वालों ने बेहतरीन भूमिका निभाई। वहीं नक्सली आंदोलन बंदूक की नोक के बल पर सियासत को जीतने वाली जंग बन गई।
एक तरफ भटकाव था। तो दूसरी तरफ सही राह पर चलने वाले आंदोलन कारी। जो लोग सही रास्ते पर चल निकले उनके हालात कभी हमसे कहीं बुरे थे। लेकिन विचारों में भटकाव को उन्होंने वक्त रहते समझ लिया और हम नहीं समझ पाए। यही वजह है कि आंतरिक आतंकवाद बन चुका नक्सलवाद भारत के कई राज्यों में अपनी पकड़ और मजबूत कर चुका है। भारत के कई राज्य अब लाल स्याही से चिन्हित हो चुके हैं। जिनके निशां मिटा पाना इतना आसान नहीं रहा जितना हम समझ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम की शुरुआत की, लेकिन रमन सिंह की नादानी ने और ज्यादा बेगुनाहों को हत्यारा बना दिया। सलवा जुडूम में आम नागरिकों को अपनी रक्षा के लिए हथियार मुहैया कराए गए। लेकिन नक्सलियों को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने बंदूक की नाल का मुंह और खोल दिया। रोजाना बह रहा खून इस आंदोलन की भद पहले ही पीट चुका था। और अब सरकार की अजीब नीतियां नक्सलियों को और ज्यादा खूंखार बना रही है।
विकास की राहों पर ये भारत का विनाशकारी चेहरा है। जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे हालात पैदा कर देता है। इस इस समस्या से क्या नहीं निपटा जा सकता ? निपटा जा सकता है। लेकिन ठोस उपायों के साथ, सरीखत से नहीं, सीख से, बंदूक से नहीं, भटकाव से नहीं। सोचिए विनाशकारी विचारों से बचने के बारे में, जो हमें बरबस ही जान लेने और जान गंवाने पर मजबूर कर रहे हैं। इन विचारों का जल्द ही अंत होना चाहिए। नहीं तो लाशों का सौदा ही इस आंदोलन की विचारधारा बन जाएगा। वक्त रहते संभल जाइये।

सोमवार, 10 मई 2010

दुखती रग

रोम-रोम
हर रग-रग पर
दुखती हर नस
जब रह-रह कर
जलते ज़ख्मों
पर वार करे
कष्टों की बंदिश पार करे
द्रवित ह्रदय
कुछ यादों में
सिमटे, बिखरे जज्बातों में
ओझल आंचल के ख्वाबों में
दुखती है रग
चीत्कार सी करती है
कहती है
उनको मिले सज़ा
जो मिली
कभी न
कहीं किसे
क्यों बांटी तब
मौत उन्होंने
क्यों छीन लिया
एक आंचल
क्या रिश्ते
समझ नहीं पाते वो
बस ढोते हैं वहशीपन को
मौत बांटते फिरते हैं
लाशों का सौदा करते हैं
क्यों सवाल बाकी हैं उनके
जिनकी राहों में
रक्त बहा
अब नहीं चाहिए
बहता शोणित
अब नहीं चाहता
दुखती रग
अब नहीं चाहता
दुखती रग...

शुक्रवार, 7 मई 2010

'गुण' माता के दूध में...

प्रश्न पूछते क्लास में,
मास्टर वेंकट राव,
गुण माता के दूध में,
क्या-क्या हैं बतलाओ,
क्या क्या हैं बतलाओ,
तभी एक बोला बच्चा,
बिना उबाले पी सकते हैं,
इसको कच्चा,
अदर दूध से मदर दूध,
होता पॉवरफुल,
इसमें चीनी नहीं,
डालनी पड़ती बिल्कुल,
हाथ खड़ेकर सोनू बोला,
लाख विटामिन मइया में,
गिरा न देना चइया (चाय) में
इतने में एक बोली लड़की लिल्ली,
मम्मी जी का दूध,
नहीं पी सकती बिल्ली,
पॉवरफुल इस दुद्धू का,
अपमान कभी न करना,
माता जी के चरणों में,
अपने को अर्पण करना ।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

मृग-नयनी

सूनी गलियों में उनका आना
कुछ ऐसा लगता है
ज्यों बदन तपाती गर्मी में
शीत हवाओं का सहलाना
हिम सी सुंदर उसकी छवि में
थोड़ी गर्माहट घुल जाना
मृग-नयनी सी जंगल में वो
है ढूंढ रही कस्तूरी को
नहीं जानती, वो नादां है
वो खुशबू उसमें ही है
मोम सी नाजुक वो गुड़िया है
मखमल के अहसासों सी
मादक उसकी इतनी काया
है मर्तबान में हाला सी
बालों के रेशम को सुलझाती
है जैसे उलझ तसब्बुर में
याद किसी की रह रह आती
न जाने कौन बसा मन में
छणिक कपट क्या उसके मन में
नहीं बताती वो कुछ भी
मेरी उलझन को सुलझा दे
बस बात बता दे वो कुछ भी
सखियों से कहती है कुछ वो
न सीधे मुझसे कह पाई
न प्यार करे, मंजूर मुझे
है नफरत ऐसी क्यों पाई
पता नहीं क्यों उम्मीद बड़ी है
उसके वापस आने की
मेरे सूने आसमान पर
फिर बादल सी छा जाने की
मेरे सूने आसमान पर
फिर बादल सी छा जाने की...

रविवार, 4 अप्रैल 2010

सफलता की आतिश

अद्भुत, अदम्य, साहस की परिभाषा
जिससे दूर रहे हमेशा निराशा
घुंघरुओं की तरह बजने की आदत
एक इत्तेफाक़, एक इबादत
हर किसी को कायल कर देना
बगैर तीर के घायल कर देना
लूट ले बगैर कुछ होते हुए भी
पा जाए बहुत कुछ न कुछ होते हुए भी
ज़िंदगी को मिसाल बनाकर
हर लम्हे को तराश कर
जीने की बड़ी चाह
कुछ पाने की की उससे भी बड़ी चाह
औरों से हटकर
देती है जवाब पलटकर
श्याम वर्ण चेहरे पर
अजब सी मुस्कुराहट
बेबाक, बैलौस
उसकी बातों के घुंघरुओं की
बजने की आहट
सतत् बढ़ते कदम सफलता की ओर
छूना चाहते हैं हिमालय का हर पोर
सच और झूठ में उलझते कदम
हर कुछ हासिल करने का दम
विविध उलझनों से जूझती
निरंतर प्रयत्न करती
हाला सी कशिश चेहरे पर
मदहोशी है उसकी निगाहों पर
अंधेरे में जलती लौ सी प्रकाशित
जैसे वो है कोई
सफलता की आतिश, सफलता की आतिश...

सोमवार, 29 मार्च 2010

महामना लंपटेश्वर चमचा, सर्वत्र व्याप्तये

चमचों का इतिहास कलिकाल से चला आ रहा है। सबने अपने अपने चमचे बनाए। और चमचे थे कि बनते चले गए। कलिकाल की परंपराओं को जीवत रखना वर्तमान का ठेका है। इस लिहाज़ से हर कोई परंपराओं का ठेकेदार है। चमचैली परंपरा इन्हीं कारणों से जीवित है। सभी इसको जीवित रखना चाहते हैं। क्योंकि बगैर चमचा आज के युग में कोई कार्य नहीं हो सकता। चमचा बनना मिसाल है, ताकत है, बुद्धि है, विज्ञान है, जुगाड़ है, और मजबूरी भी है। जिसके पास ऊंचा ओहदा है। उसके पास चमचों की कमी नहीं। या यूं समझें, चमचे उसी के पास होंगे जो ऊंचे ओहदे पर विराजमान होगा। कुलयोग किया जाए तो चमचा सूक्ति कुछ इस प्रकार बनती है। ‘महामना लंपटेश्वर चमचा, सर्वत्र व्याप्तये’।
गौर कीजिएगा, कि कांग्रेस वाली बड़ी मैडम के पास खूब चमचे हैं। उत्तर प्रदेश वाली बहन जी के पास खूब चमचे हैं। बीजेपी के नवीन अध्यक्ष के कई चमचे बन गए हैं। ठीक उसी प्रकार से एक मैडम और भी हैं। जिनके खूब चमचे हैं। इन चमचों के पास बुद्धि है, विवेक है, चालाकी है, मिथ्या है, और है पटाने का ढंग। जो एक कुशल चमचे के लिए बेहद जरुरी है। ऐसे भी कह सकते हैं। कि इतने सारे गुणों से लबरेज़ इंसान ही एक सफल चमचा हो सकता है। मैडम के इर्दगिर्द व्याप्त चमचे हमेशा ही बिलबिलाते रहते हैं। कभी बिजली के बिल के लिए। कभी स्टेशनरी के बिल के लिए, कभी फोन के बिल के लिए, कभी किसी के लिए। बस मैडम पटाऊ तकनीक हमेशा ढूंढते रहते हैं। और ऐसी तकनीकों की इनके पास कमी भी नहीं रहती । पिछले कई दिनों से चमचों ने संगठन में विकास मेरा आशय विनाश से है, की ऐसी बयार बहाई है कि गुलाब की खुशबू भी अब जुलाब के बाद का रिजल्ट हो चुकी है।
महामना लंपटेश्वर समुदाय पिछले कई दिनों से प्रगति पर है। और जो लंपट नहीं हैं। वो विकासशील भी नहीं हैं। यानि लंपट और विकास का भी सीधा संबंध होता है। लंपट हो तो विकास है। लंपट नहीं हो। तो विकास भी नहीं है। लगता है विकास की आधुनिक परिभाषा भी लंपटों के हाथों से ही लिखी जाएगी। और टुटपुंजिए धरे के धरे रह जाएंगे।
वैसे एक बात तो है कि टुटपुंजिए अपनी गैरविकास तकनीकों को लंपटों पर मढ़ देते हैं। क्योंकि वो विकास कर नहीं पाते । और लंपटों के विकास से ईष्या होती है। बेचारे टुटपुंजिए आज भी विकास की राहें गढ़ने को सड़कें खोदे पर पड़े हैं। और लंपट हैं कि जोर-जुगाड़ से सड़क बनाने का क्रेडिट खुद ले लेते हैं। बाप बड़ा न भइया, सबसे बड़े लंपट भइया। बड़े इसलिए कि वो जानते हैं कि विकास किस विधि करना है।
कुछ रोज की बात है । एक लंपट चमचा बड़ा उदासीन नजर आ रहा था। वो मैडम की चमचई से आजिज आ चुका था। क्योंकि उसकी चमचागिरी का पारिश्रमिक उसे नहीं मिल पा रहा था। कुछ ऐसा भी था। कि बड़े चमचे छोटे चमचे पर हावी हो चले थे। जो उसका पारितोषिक मार रहे थे। मैने उसके मजनू छाप चेहरे को देखकर उससे कुछ पूछा तो नहीं। लेकिन उसने खुद ही बता दिया । कि भइया, मैडम बड़ी हराम हो गई है। जो कुछ अच्छी जुगाड़ चल रही थी। वो अब नहीं हो पा रही है। मैने कहा, भइया देखो गलती मैडम की नहीं । गलती तुम्हारी है। तुम चमचागिरी का प्रमोशन नहीं ले पाए। और दूसरे तुमसे बड़े कम समय में बड़े चमचे बन बैठे। तुम्हारे पास तो चमचागिरी का पांच साल का अनुभव था। लेकिन तुम अनुभव का फायदा ही नहीं उठा पाए। जरा उन्हें देखो पांच महीनों में ही चमचागिरी के मैनेजिंग एडिटर हो गए हैं। मैडम की सारी व्यवस्थाएं देख रहे है। आलम ये है प्यास मैडम को लगती है। तो पानी वो पी लेते हैं। दिसा मैडम को लगती है। तो मैदान वो हो लेते हैं। सिग्नेचर मैडम के होने होते हैं। कर वो देते हैं। वाकई मैडम ने बड़ी जल्दी प्रमोशन दे दिया उसे। और तुम हो कि। हुंह धिक्कार है तुम्हारी चमचागिरी पर।
इतना सुनने के बाद हैरान परेशान छोटा चमचा बोला यार क्या बताऊं मेरी मजबूरी थी। जो मैडम के साथ हो लिया। ईमान-धर्म सबकी बलि देकर उनका कार्य निपटाता रहा । लेकिन ढपोरशंखों ने मेरी पीठ में ही छुरा घोंप दिया। मुझसे ही चमचई के सारे गुण सीखे और मेरे ऊपर ही उनका प्रयोग भी कर दिया। मैने कहा, तो अब भुगतो। ओखली में सिर दिया था। और मूसलों के वार से चोट लगती है।
बेचारे चमचा जूनियर की हालत खस्ता थी। और मैं उसे ऐसे सुना रहा था। जैसे वो मेरा कोई दुश्मन हो। उसके दुख और दर्द की सीमाओं का कोई ओर छोर नहीं था। वो कुत्सित हो चुकी व्यवस्था से त्रस्त था। लेकिन ये बीज उसी के बोए हुए थे। जो अब फल के रुप में उसके सामने आ रहे थे। चूल्हे में अगर कंडे डालो तो धुआं होता ही है। उस धुएं से आंखों में जलन भी होती है। चमचा जूनियर भी कुछ ऐसा ही कर बैठे थे। आधुनिकता के दौर में चूल्हा जलाया और उसमें कंडे ठेल दिए । अब बगैर धुएं आग की गुजारिश कर रहे हैं। जो फिलहाल संभव नहीं। धुएं का कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

गर्म-आहट

सिकुड़ती रात
बाहें फैलाता दिनकर
सर्द हवाओं पर
अब अधिकार जताती
गर्महवा
सच ही है
वक्त से पहले दस्तक दे चुकी है
गर्म-आहट
बदन पर चिपचिपा पसीना
गले में पानी की कमी से
चुभते शूल
शुष्क हवा के साथ
उड़ती धूल
फाग में मुरझा चले हैं
धरती पर कुछ निरीह फूल
ऊपर अंबर
नीचे धरती की बढ़ती बेचैनी
जीव धरा के व्याकुल से हैं
और हवा में पंछी
निडर आसमां
में घबराहट
और घबराहट है गंगा में
छांव मांगता पीपल अपना
उस बैरागी सी यमुना में
अब घुलती जाती गर्माहट
अब घुलती जाती गर्माहट

गुरुवार, 18 मार्च 2010

मइय्यत से पेज थ्री तक ‘मेकअप वाली भठियारन’

(मैडम को भठियारन का टाइटिल इसलिए दिया जा रहा है। क्योंकि एक रसूख युक्त खानदान में जन्म लेने के बाद भी वो अपने जीवन में सिर्फ भाड़ ही झोंक पाईं थी। वो इंसान का रक्त चूस कर उस रक्त को भाड़ में घासलेट की तरह इस्तेमाल किया करती थीं।)
मइय्यत थी, तो याद आया मैडम भठियारन को। कि आज सफेद साड़ी पहननी है। लाली नहीं लगानी है। नाखूनी(एलीट रुप में नेल पॉलिश) नहीं लगानी है। बाल ड्रायर से नहीं सुखाने हैं। गले में हार-जीत नहीं पहननी है। नाभी में नथ नहीं डालनी। कानन-कुंडल नहीं डालने। हाथ में काली जुराब नहीं पहननी। चेहरे पर फाउंडेशन नहीं लगानी । इत्र फुलेल से कोसों दूर रहना है। और एक शरीफ ढोंगी की तरह दिखना है। जनाज़े वाला घर किसी दुख प्रदर्शन वाली पार्टी का घर होता है। ऐसा भठियारन मानती थी। जहां पहले से ही कई ढोंगी अपने विभिन्न स्वांग का प्रदर्शन कर रहे होंगे । वे ऐसा ही सोच कर किसी की मइय्यत में जाती थी। कुल कर मिलाकर आलम जो बनता था। वो ये था कि हंसनी इस बार कौवे की चाल चलने को मजबूर हो रही थी। वो आज से पहले हंसनी ही थी। वो ही ऐसा मानती थी। हमारी नजरों में तो वो कौवा ही थी।
मैडम अब अपनी फुर्र-फुर्र फरारी से मइय्यत वाले घर को निकल चुकी थीं। मन ही मन उन विधियों के बारे में सोच रही थीं। कि कैसे लोगों को चूतिया बनाना है। यानि संवेदनशील होने का ढोंग किस विधि से करना है। हालांकि ये कोई पहला मौका नहीं था जब पेज थ्री वाली मैडम को किसी की मइय्यत में जाने का मौका मिला हो। इससे पहले भी वो कई बार वो लोगों को बड़ी सफाई से बेवकूफ बना चुकी थीं। लेकिन हर बार रचनात्मक विचारों के साथ भी चूतिया बनाना होता है। इसलिए वो फुर्र फुर्र फरारी में कुछ सोच रहीं थीं। मैडम की सोच पर कलियुगी तुलसीदास की कुछ पंक्तियां याद आती हैं ‘केहि विधि नाथ बनावऊं चुतिया तोरा’।
करीब एक सौ तीस किलो मीटर प्रतिघंटा की चाल से मैडम दुख मानने पहुंच चुकी है। उस घर में जहां कोई परालौकिक हो चुका है। माहौल पुरानी फिल्मों में प्रेमिका के पुरुष मित्र की मृत्यु सरीखा दिखाई पड़ रहा है। बैक ग्राउंड में चल रही सैड धुन माहौल को करुणामई बना रही है। घर में मौजूद सौ डेढ़ सौ लोग दुख प्रकट करने को पिले हुए हैं। कुछ ढोंगी हैं तो कुछ वास्तव में दुख प्रदर्शित करने को आए हुए हैं। तभी फुर्र फुर्र फरारी वाली मैडम घर में प्रविष्ट होकर माहौल का जायज़ा लेती है। देख रही हैं। कि कौन-कौन किस-किस विधि से दुखी दिखने की कोशिश कर रहा है। मैडम को पता नहीं क्यों इस अपने आप को दुखी जैसा प्रकट करना किसी चुनौती जैसा लग रहा है। शायद वो लेट पहुंची थीं इसलिए।
लगभग पंद्रह मिनट तक माहौल का जायज़ा लेने के बाद। घड़ियाल (एलीट मैडम) की आंखों में आंसू दिखाई देने लगे। करुणा का सागर आंखों से छलक रहा था। और लोग बरबस ही चूतिया बने जा रहे थे। मैडम अपने मकसद में कामयाब हो चली थीं। और अब जो आंसू दिखाई दे रहे थे। वो दुख के नहीं बल्कि खुशी के थे। क्योंकि वो कई लोगों से आगे निकल चुकी थीं। दुख प्रदर्शन के मामले में। दुख की बेला में खुशी के आंसू। नज़ारा कैसा होगा। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। इस बीच जब वो अपने रेशमी रुमाल से चेहरे पर पोछा लगातीं। तो इस बात का भी ध्यान रखा जाता कि उनके गालों की झुर्रियां दिखाई न दें। यानि चेहरे पर रुमाल रुई के किसी फाय की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा था।
कई लोग अब एलीट मैडम के चेहरे पर तनाव देखकर उनसे मिलने आने लगे थे। सभी को पता था कि मैडम रसूख युक्त हैं। इसलिए ज्यादातर लोग उनसे इसी लिए मिल रहे थे क्योंकि मैडम कई संगठनों की मालकिन थीं। और इस खास मौके पर मेल मिलाप भावी जुगाड़वाद में तब्दील हो सकता था। कई लोग अब उस परिवार का दुख छोड़ मैडम के व्यक्तिगत दुख में शरीक हो चले थे। लेकिन कुछ लोग बीच-बीच में ये कहना नहीं भूल रहे थे। बड़े अच्छे इंसान थे। चले गए। अभी उम्र ही क्या थी। हालांकि जिसकी मौत हुई थी। वो 95 साल का था। और बड़ी ही शालीन मौत मरा था। लेकिन फर्जी लोग। फर्जी बातें। फर्जी संवेदनाएं उस दुख भरी महफिल में चलन में आ चुकी थीं। मैडम को मइय्यत में आए एक घंटा हो चुका था। और इन साठ मिनटों में मैडम, ढोंग के सिर्फ तीस आंसू ही गिरा पाईं थीं शायद। इस बात का उन्हें अफसोस भी था। वो चाहती थीं। कि उनके आंसू उस महफिल में दुख की सुनामी का कारण बन जाएं। लेकिन वो ऐसा कर न सकीं।
समय बीतता जा रहा था। और मैडम अब ऊब रही थीं। शायद उन्हें कहीं जाना था या किसी का इंतज़ार था। क्योंकि वो बार-बार अपनी नाजुक कलाइयों पर बंधी घड़ी को घूर रही थीं। निसंदेह पहली वाली बात ही सही होगी क्योंकि मइय्यत में और दुखियारों का इंतज़ार करना उनकी बर्दाश्त से बाहर की बात थी। यानि अब उन्हें कहीं तिड़ी होना था। शायद किसी पार्टी में। या फिर कहीं और। यहां भी पहली वाली बात ही सही निकली । क्योंकि अब वास्तव उन्हे कोई पेज थ्री वाली पार्टी भी निपटानी थी। लिहाज़ा वो सबसे और सब उनसे विदा लेकर निकल लिए। अपने-अपने गंतव्य की ओर। फुर्र-फुर्र फरारी अब सीधे उनके निजी सौंदर्यालय (ब्यूटी पार्लर) की ओर रुख कर चुकी थी। ये ब्यूटी पार्लर मैडम के इमरजेंसी पीरियड में काम आता था। जैसे जब वो अपने घर से बन संवर कर न निकल सकीं हों। तो वो रास्ते में अपने निजी सौंदर्यालय में जाकर बन ठन लें। मैडम की उम्र जरुर पचास की थी। लेकिन सौंदर्य प्रसाधनों के गजब के इस्तेमाल ने उनकी रुप रेखा को आज भी जीवित रखा था। सही मायने में तो ये कहें कि जितना सुंदर वो मेकअप के बाद खुद को समझतीं थी। वास्तव में उतनी थीं नहीं। क्योंकि उम्र के पड़ाव पर कोई मेकअप काम नहीं आता। आखिर कब तक छिपातीं अपनी ढलती उम्र को। वो तो भला हो आधुनिक सौंदर्य प्रसाधनों का जो इस पंच लाइन के साथ बाज़ार में उतरती हैं। कि ‘आप की त्वचा से तो आप की उम्र का पता ही नहीं चलता’। लेकिन मैडम की त्वचा का पता जैसे तैसे चल ही जाता था। फिर भले ही वो कितना रंग रोगन ही क्यों न कर लें।
अब मेकअप वाली भठियारन सज धज कर पेज थ्री वाली पार्टी की ओर रुख कर चुकीं थी। यहां मैडम ने उन सारे सौंदर्य प्रसाधनों इस्तेमाल किया था। जिनका इस्तेमाल उन्होंने मइय्यत वाली कथित पार्टी में नहीं किया था। पचास की उम्र में ताजे मेकअप ने उन्हें पैंतिस का बना दिया था। इससे वो खुश भी थीं। उनकी खुशी इस बात से पता चलती थी। कि गाड़ी में बैठकर महज दो किलोमीटर की दूरी में ही वो बीस बार आइना निहार चुकीं थी। बेशर्म आइना अगर कुछ बोल सकता तो उन्हें उनकी औकात बता ही देता।
मैडम पार्टी में पहुंच चुकी हैं। पार्टी में बिल्डर, फिल्मकार, कलाकार, पत्रकार इत्यादि इत्यादि मौजूद हैं। सभी बड़े प्रोजेक्ट की चर्चाओं में मशगूल हैं। कई लोग मइय्यत से ही बगैर किसी चेंज के पार्टी में पहुंचे थे। लेकिन मैडम फुल चेंज थीं। उनका बदला बदला सा नूर नज़र आता था। बालों में खिजाब, मुंह पर मेकअप का लेप नज़र आता था। सभी की नजरें अकस्मात् ही मैडम पर टिक जाती हैं। और पुन: उन्हें ठीक वैसे ही घेर लिया जाता है। जैसे कई सारे कुत्ते कातिक के महीने में एक कुतिया को घेर लेते हैं। और उस अकेली कुतिया पर अपना अधिकार जताने की कोशिश करते हैं। यहां भी मैडम अपनी टीआरपी से खुश थीं। उनके हम उम्र कई लोग उन पर लाइन मारने को उतारु थे। लाइन मारने की सभी की अलग-अलग अदा थी।
इस पार्टी में जो बात चर्चा का विषय थी। वो ये थी कि हाल ही में मैडम ने एक गैर जिम्मेदार संगठन खोला है। मेरा मतलब गैर सरकारी संगठन से है। कई लोगों को साथ लेकर इस संगठन की स्थापना की गई है। लिखित रुप में इस संगठन का मकसद गरीब और बेसहारा लोगों की मदद करना है। लेकिन किताबी बातें किताबी ही होती हैं। संगठन का असल मकसद लोगों का असामाजिक कार्यों से ध्यान बंटा कर उस गैर सरकारी संगठन की ओर ध्यान केंद्रित करना था। जो गैर जिम्मेदार था। मैडम के दूसरे संगठनों में कार्यरत सभी मजदूर इस बात को जानते थे। लेकिन चुप रहते थे। नौकरी चली जाने का डर था।
अपवाद स्वरुप किसी बड़े लेखक ने ठीक ही कहा था। कि औरत के हाथ में सत्ता और शासन का जाना वैसे ही खतरनाक होता है। जैसे जंगल में किसी शेर के सामने बकरी को खड़ा कर देना। बकरी की शामत आनी ही है। ठीक वैसा ही डर मैडम के मजदूरों के मन में भी था। बहरहाल पार्टी में गैर जिम्मेदार संगठन को लेकर चर्चा जारी थी। मैडम उपलब्धियों को उंगली पर गिनाए जा रहीं थीं। सच भी यही था कि उनकी उपलब्धियां उंगलियों पर ही गनाई जा सकतीं थी। लेकिन उनके चुतियापे भरे कारनामों के लिए हजार पेज की डायरी भी कम पड़ेगी।

सोमवार, 8 मार्च 2010

वैचारिक चुतियापा, और “मन भठिया चित्त भुसौरी”

वो विचारशील भी थे। और चूतिया भी। कहने में भी उतना ही अंतर था। जितना करने में। कभी किसी की सुनी नहीं। हमेशा अपना हाथ जगन्नाथ समझा। फिर भले ही हाथ में कोढ़ ही क्यों न हो गया हो। वो जो कर रहे हैं, जिन हाथों से कर रहे हैं, बस कर रहे हैं। किसी से कोई मतलब नहीं। गर्दभ राज की तरह उनकी ढेंचू-ढेंचू लोग सुनें। इसलिए वो हमेशा ही कुछ न कुछ ऐसा ही करते थे। जो जनमानस के विरुद्ध हो। यानि उनके अनुकूल हों।
ये मुक्तसर सा कैरीकुलम है दक्ष कुमार का। दक्षप्रजापति का नहीं। जैसा कि इनके नाम से ही इंगित होता है कि ये हर मामले में बड़े ही प्रवीण होंगे, वास्तव में प्रवीण हैं भी। इनके नाम के मुताबिक ही इनके काम बड़ी ही दक्षता के साथ निपटाए जाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी दक्ष झुमरी तलैया के निवासी हैं। और रेडियो नहीं सुनने के लिए भी जाने जाते हैं। संज्ञान में कि झुमरी तलैया से काफी रेडियो श्रोता पैदा हुए हैं। और शायद होते भी रहेंगे। लेकिन दक्ष कुमार को जो पसंद था वो कुछ इस प्रकार है। बतौर ऑलराउंडर वो हर काम करना चाहते हैं। सिवाए किताब पढ़ने के। उनके ज्ञान का शिला लेख महज़ के कंकड़ के जितना ही छोटा है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि किसी की शक्ल देखकर उसके ज्ञान का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । वैसा ही दक्ष कुमार के साथ भी था। काम के सिलसिले में हमेशा उनके चेहरे पर बारह बजे रहते हैं। और वो सड़कों पर किसी न किसी काम की तलाश में हमेशा फंटियाते रहते है। और सबसे बड़ी बात ये है कि उनका अनुकूलन वहीं से शुरु होता है, जहां से लोगों को उनकी कार्यप्रणाली पर विरोध होता है। ये विरोध कैसे होता है। खुद ही देखिए।
झुमरी तलैया में बत्ती ज्यादातर गुल रहती है। कहीं फेस आता है, तो कहीं नहीं आता। दृश्य कुछ ऐसा बनता है कि आपके घर बिजली नहीं होगी । और बीस मीटर पर बल्ब जलता दिख जाएगा। ऐसी विडंम्बनाओं से दो चार होने का नाम ही है दक्ष कुमार। समस्या जहां से शुरु होती है, वहां दक्ष पाए जाते हैं। और समस्या जहां खत्म होकर फिर शुरु होती है। वहां भी दक्ष पाए जाते हैं। खैर गुल बिजली से घरों को रोशन करने का जिम्मा दक्ष कुमार के ही कंधों पर है। सरकारी मुलाजिम देर से सीढी लेकर आते हैं। लेकिन फुर्तीले दक्ष महज एक रस्सी के माध्यम से किसी बंदर के मानिंद खंबों पर लटक जाते हैं। और इधर की कटिया उधर करते हैं। उधर की कटिया इधर । और एक आवाज़ लगाते हैं। कि देखऊ नंदू भइया का बिजली आई। हां आई गई भइया। इस बीच चार पांच लोगों के घर बिजली चली जाती है। तो दक्ष को खंबे पर चढ़ा देख मुहल्ले वाले गरियाने लगते हैं। ए ग्रेड गालियों के आदी हो चुके दक्ष के लिए ये कोई मुश्किल वक्त नहीं था। कि कोई उन्हें गरिया रहा हो। और ऐसे समय पर जब वे बिजली के खंबे पर बंदर की तरह लटके हों। मर्दमराठा बीवी से गालियां सुनते-सुनते उनके कान मुहल्ले वालों की गालियां सुनने के भी आदी हो चुके थे। और अब उन्हें किसी की गाली का कोई फर्क नहीं पड़ता । चालीसा पार कर चुके दक्ष जिस तार को दिन में लगाते थे। उसी तार को रात में जरुरत पड़ने पर काट भी लिया करते थे। ये उनका निजी विचार होता था।
ऊलजलूलू विचारों के धनी दक्ष के लिए किसी की साइकिल पर हाथ साफ करना और उसे पांच मिनट से पहले ठिकाने तक पहुंचा देना कोई बड़ी बात नहीं थी। मुहल्ले में सफाई का ठेका हो, तो दक्ष आगे । किसी की पिटाई का ठेका हो, तो दक्ष आगे। वाह रे दक्ष। हर काम खुराफाती अंजाम के साथ निपटाना उनकी एक अच्छी आदत है। खुद उनके अनुसार। क्योंकि जब से उन्होंने होश संभाला, तब से कई लोग उनके कष्टकारी कदमों से अपने होश खो बैठे थे।
एक रोज़ की बात है जब मुहल्ले में एक बंदर मर गया थ। उसे ठिकाने लगाने का ज़िम्मा भी उन्हीं के सिर था। यहां कहेंगे कि मन भठिया चित्त भुसौरी । वो ऐसे कि उनका एक मन ये कहता था। कि वो बंदर की अर्थी बाइज्जत शमशान तक पहुंचाएं। दूसरा मन कहता था। कि उस बंदर की लाश पर एकत्रित चंदे को अपने निजी इस्तेमाल में लाकर बंदर को बोरे में बंद कर नदी में प्रवाहित कर दें। निसंदेह दूसरा आईडिया ही उन पर फबता था। और बस ऐसा ही हुआ। बंदर की मइय्यत पर एकत्रित चंदा उनके निजी इस्तेमाल में ही प्रयोग किया गया । मुहल्ले वालों को हवा भी लगी, कि एकत्रित चंदा दक्ष के निजी हितों में इस्तेमाल किया गया । लेकिन सभी दक्ष के विचारों से वाकिफ थे। बोलना मुंह पिटवाने जैसा था। दक्ष भला कैसे बाज आते। दक्ष को ऐसे कामों के लिए मन भठिया नाम दिया जा सकता है। जो भाड़ झोंकने में माहिर कहे जाते हैं। फिर भाड़ में चाहें कोएला हो या न हो।
उनकी वैचारिक चुतियापे की एक निजी कहानी ये भी है। कि दक्ष ने कुछ न सीखा हो। लेकिन अपनों के ठिए में आग लगाना खूब जानते थे। त्यौहारी मौसम हो, साहलक हो, या उनके घर में निजी फंक्शन, चोरी की आदत को एक विचार मानकर हर जगह हाथ की सफाई दिखा दिया करते हैं। और अगले दिन मुहल्ले में खबर को आग की तरह फैलाकर अपने आप को गौरवशाली महसूस करते हैं।
ये दक्ष कुमार की कुछ विधाएं हैं। जिनके बल पर उन्होंने मुहल्ले में अपने कार्यों का लोहा मनवाया है। निसंदेह उनके इस लोहे में जंग की बहुतायात है। लेकिन वो इस जंग को दूर करने के लिए मिट्टी के तेल का इस्तेमाल कतई नहीं करना चाहेंगे। क्योंकि यही लोहा उनके लिए तरक्की के नए आयाम खोजता है। तो कहिए जय दक्ष कुमार की।

शनिवार, 30 जनवरी 2010

उनकी आज़ादी का कारण थी संडास-ए-नाजी

काम जो बेहतर लगे। वो करो। ऐसा कतई न करो जो दूसरे के मन का हो। या यूं कहें कि जो हमने सोचा वही बेहतर है। अपनी बेहतरी से गद्दारी न करो। दरअसल नाजियों की जिस सेना ने यहूदियों समेत कइयों को अपने अत्याचार का शिकार बनाया । उस सेना को कई यहूदियों ने अपनी बेहतरी साबित करके ठेंगा दिखाया । और इसका अहसास उन्हें कतई नहीं हुआ। कुछ यहूदी उनके बंदी तो थे। लेकिन उनके अत्याचारों से मुक्त थे। ये उनके दिमाग का ही कौशल था। कि हिटलर की सेना उनका तियां पांचा नहीं कर पाई। क्यों और कैसे ये सवाल आपके दिमाग में जरुर आरती कर रहा होगा।
तो सुनिए अत्याचारी होने की सुरती खा बैठे हिटलर ने बंदी खाने में सैकड़ों संडासों का गठन कराया था। उन संडासों के लिए कई कर्मचारियों की नियुक्ति की गई थी। ये नियुक्ति गुलाम लोगों में से ही की गई थी। करे कोई भरे कोई की तर्ज पर हिटलर चाहता था। कि उसकी और उसकी सेना की करनी का खामियाजा कोई और ही भुगते। यानि उनके बंदी। उस सामूहिकत संडास में कई बंदियों को अलग-अलग काम सौंपा गया था। जैसे किसी को बटोरने का। किसी को पानी डालने का तो किसी को राख डालने का। उन संडासों को जो आकार दिया गया था। वो प्राचीन कमोड का एहसास कराता था।
सीमेंट की बैंचों में पिछवाड़े के आकारानुसार होल हुआ करते थे। कई फिट लंबी बैंचों में कई सारे होल। जिन पर कई लोग एक साथ अपना पिछवाड़ा टिका सकते थे। इस बगैर पैसे की नौकरी का शुरुआती दौर ही था। कुछ लोगों को काम में मजा आया तो कुछ को नहीं। जिन लोगों को काम पसंद नहीं आया । उन्होंने नाजियों के संगठन में दूसरी बिन पैसे की नौकरी ढूंढ ली। जैसे बाल साफ करने की । बढ़ई गिरी की । बंदूक के लिए कारतूस तैयार करने की। लेकिन जिन बेचारों ने अपना डिपार्टमेंट चेंज किया। उन्हें दिनभर एक गलती के लिए दस कोड़ों की सजा दी जाती थी। ऐसे में मौज उनकी थी। जो बदबू सूंघ कर भी अपने कार्य को तल्लीनता से किया करते थे। हिटलर उन्हें कोई सजा नहीं देता था। जो संडास साफ किया करते थे। फिर चाहे वो अपने काम को सफाई से करें या नहीं। संडास साफ करते-करते। इस दौरान एक जमादार यूनियन का गठन भी हो गया। जिसका आभास हिटलर के कानों तक नहीं पहुंचा। वो सामूहिक संडास विरोध के विचारों का अड्डा बन गई। क्योंकि जो लोग दूसरे डिपार्टमेंट में नौकरीशुदा थे। उन्हें हिटलर के हंटरों से ही फुरसत नहीं मिल पाती थी। जबकि जो संडास की सफाई करते थे। उनके पास अपने कार्य को निपटाने के बाद काफी समय बच जाता था।
क्रांतिकारी विचार ही किसी मुल्क की आज़ादी का सबब बनते हैं। और लाखों का हत्यारा हिटलर इस बात को महसूस नहीं कर पाया। संडास में विचारों का पनपना जारी रहा। और एक समय वो आया जब हिटलर की योजनाओं के खिलाफ जमादार यूनियन एक ताकत बनकर उभरी। उस यूनियन के कई बुद्धिजीवियों ने प्रतिस्पर्धा के एक युग की शुरुआत कर दी। तानाशाही के माहौल में ये कदम वैचारिक आज़ादी से कम न था। ज़रा सोचिए ये विचार उन लोगों के दिमाग में कौंधे । जो पेशे से संडास की सफाई करते थे। उनका काम जरुर गंदा था। लेकिन विचार उनकी ताकत थे। इससे ये बात भी चरितार्थ होती है, कि कमल दलदल में ही खिलता है। खैर हिटलर के उस जेलखाने में अब लोग संडास की नौकरी को ही तरजीह देने लगे। और धीरे धीरे संडास के सफाई कर्मियों की तादात भी अच्छी खासी हो गई। जैसे-जैसे लोगों की तादात बढ़ती गई वैसे-वैसे योजनाओं का विस्तार भी होने लगा। विचारों का विस्तार भी उज्ज्वल भविष्य की ओर ही संकेत करता था।
इस बीच हेयर कटिंग डिपार्टमेंट से कई लोगों ने अपना ट्रांसफर घूस को आधार बनाकर संडास डिपार्डमेंट में करा लिया था। ये लोग उन लोगों की चांद मूड़ा करते थे जिन्हें हिटलर मार दिया करता था। हिटलर दूरदर्शी था। वो उन बालों का इस्तेमाल कपड़ों इत्यादि की बुनाई में करवाता था। लेकिन उसकी दूरदर्शिता इतनी नहीं थी। कि इस आधार पर विश्व विजेता बन जाता । अगर ऐसा होता तो महज संडास में पैदा होने वाली क्रांतिकारी योजनाएं। उसकी हार का कारण न बनतीं। और यही हुआ भी। एक रोज़ उस जेल खाने में विद्रोह की ऐसी आग फूटी जिसके सामने हिटलर बेबस हो गया। और संडास-ए-नाजी से निकल आया उनकी आज़ादी का रास्ता। ये संडास में पैदा हुए बेहतर विचारों का ही नतीजा था। ये वो विचार थे जो उनके अपने थे। यानि संडास में काम करो तो सजा नहीं मिलेगी। सजा नहीं मिलेगी। तो वक्त मिलेगा क्रांतिकारी विचारों का। और जब विचारों में क्रांति आएगी तो आज़ादी मिलेगी।

रविवार, 10 जनवरी 2010

हवा हो लिए फौजी बाबा

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर ज़िले की बात है। कभी मां फूलमती, बाबा चौकसी नाथ के मंदिर के करीब एक फौजी का निवास हुआ करता था। निवास के नाम पर कोई सरकारी आवास नहीं था। बल्कि एक 16 फुट लंबे और दस फिट चौड़ा कमरा ही उनके नाम आवंटित था। सरकार की रिहायश उनसे मुंह फेरे थी। ये भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि सच यही था कि नाम फौजी होने से कोई फौजी नहीं होता। इस बात का न तो उन्हें मलाल ही था। और न ही मुगालता भी। क्योंकि न तो उन्होंने कभी बंदूक ही उठाई। न समाज के खिलाफ आवाज़। और न ही किसी सीमा की पहरेदारी की। आतंकियों से मुठभेड़ भी उनके लिए दूर की ही कौड़ी थी। लेकिन चौक में आने वाले लोगों के लिए वो फौजी ही थे। इस बात पर वो भी इतराया करते।
काम नहीं नाम ही सही की तर्ज पर फौजी बाबा को मैने कोई काम नहीं करते देखा। ऐसा नहीं था कि वो किसी सरकारी बाबू की तरह काम नहीं करना चाहते थे। असमर्थ थे बेचारे। शारीरिक मजबूरी कहें । या बूढ़ी हो चुकी हड्डियों में कैल्सियम की कमी । जो उनकी शारीरिक अक्षमता उनके कर्मशील व्यक्तित्व पर हावी होती रही। मैं लगभग तीस बसंत देखने वाला हूं। चूंकि मैं बचपन से लेकर और युवावस्था तक मोहल्ला चौकसी में ही भड़ैंती फाने था। इसलिए फौजी बाबा के बारे में अच्छा खासा शोध कर चुका था।
विश्व पटल पर फौजियों की तस्वीर लड़ाकों के साथ-साथ, खाने पीने की रही है। लेकिन फौजी बाबा को न मदिरा का शौक। न सिगरेट का । न गुटखे का । शौक था तो बस, संगीत और खाने का । छप्पन प्रकार के भोगों के लिए खास लालायित रहते थे फौजी बाबा। ऐसा नहीं था, कि उनके सोलह बाई दस के दड़बे में एक सुंदर किचन था। जिसमें वो अपने शौक पूरे कर सकते। उनके लिए तो लोगों की व्यवस्था ही रसोई थी। दिन भर कमरे के सामने वाले चबूतरे पर बैठकर वो लोगों का गीत-संगीत से मनोरंजन किया करते । और जब उदर छुदा लगती, तो जहांपना लोगों को एक आदेश जारी किया करते । ये आदेश भोजन की अभिलाषा में होता। कुछ लोग तो उनके आदेश आने से पहले ही नित नए व्यंजन मौका-ए-वारदात पर पहुंचा देते । तो कुछ उनके आदेश का इंतज़ार किया करते। और ऐसे ही रोज़ाना बाबा के सामने दस तरीके के पकवानों की थाली होती। चूंकि उनकी उम्र, उनकी उदर छुदा पर हावी थी। इसलिए वो उन दस तरीके के पकवानों से अच्छे माल का चुनाव भी करते थे। चुनाव का तरीका बेहद आसान था। बारी बारी से सारे पकवानों का जायजा नाक के माध्यम और जीभ के अग्र भाग से लिया जाता। जो पसंद आया वो साइड में, और जो न पसंद आया वो भी साइड में। ये सब उनकी दिनचर्या का ही हिस्सा था।
शाम के वक्त बाबा के लिए दड़बे से बाहर निकलने का होता। जैसा कि सभी जानते हैं, कि मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। वैसे ही लोग ये भी जानते थे। कि फौजी बाबा दिहाड़ी मजदूरी पर तय किए गए रिक्शे के माध्यम से चौक क्षेत्र की सर्राफा मार्केट जाने की तैयारी में हैं। रिक्शा इसलिए किया जाता था। क्योंकि टांगें काफी सालों पहले से ही जवाब दे चुकी थीं। रही बात सर्राफा बाज़ार से उनके लगाव की । तो कुछ बड़े व्यापारियों दुकाने ही उनका अड्डा थी। जहां वो गप्पें लड़ाया करते थे। अपनों से । और जो अपने नहीं थे उनसे भी। आते जाते लोगों से पैसे का एकतरफा विनिमय करना भी उनकी आदत का ही एक हिस्सा था। सबको पता था। कि फौजी बाबा एक समय के धनाड्य हुआ करते थे। लेकिन समय के बदलते स्वरुप के साथ ही उनका पैसा भी तेल लेने चला गया। वो कंगाली में, बदहाली में ज़िंदगी गुजारने को मजबूर थे। हालांकि मांगने की आदत ने उनका खूंट इतना तो गरम कर ही दिया था। कि वो अपना खर्च भर चला सकते थे।
अपने आदेश और आदतों की वजह से फौजी बाबा को चौक से लेकर घंटाघर तक काफी रसूखदार लोग जानते थे। उनका सम्मान करते थे। और कभी भी उनकी किसी भी फरमाइश को मना नहीं किया जाता था। मना करते तो उनकी सुनते ! उनकी आदतों में एक और आदत भी थी। मंदिर पर मिलने वाले प्रसाद को इकट्ठा करने की। खास कर मंगलवार का दिन उनके लिए बेहद मंगलकारी होता। इस दिन उन्हें सब कुछ बिन मांगे ही मिल जाया करता था। खासकर प्रसाद। महिलाएं हों, बच्चे हों, बूढे़ हों, जवान हों, कोई हो । उनके सामने जो आ जाता वो बगैर झिझक, एक आदेश के माध्यम से प्रसाद मांग लिया करते। उनका ये रुप देखकर ऐसा लगता था। कि अगर ओबामा भी आ जाए तो वो उन्हें भी डपट कर प्रसाद हासिल कर लें। ये व्यक्तित्व बताता था कि जवानी के दिनों में उन्होंने किसी की नहीं सुनी होगी।
उम्र बीत चुकी थी। लेकिन रंग नहीं ढला था। उजली काया उस समय भी उजली ही थी। ये अनुमान लगाना कठिन न था। कि जवानी के दिनों में बाबा मैदा की भेंड़ रहे होंगे। वो अपने शरीर को ज्यादा संजो नहीं सके । लेकिन उनका रंग चीख चीख कर इस बात की गवाही देता था। कि उन्हें कभी फेयर एंड लवली की जरुरत नहीं पढ़ी। बढ़ी हुई दाढ़ी जब यदा कदा शहीद हो जाती । तो उनके चेहरे का कंट्रास्ट और ब्राइटनेस देखते ही बनती थी।
मंदिर में आरती के घंटे बजने के बाद ही उनका सोने का समय होता। वो बगैर भगवान को सुलाए कभी नहीं सोए। उनका सोने का वक्त तकरीबन दस से साढ़े दस बजे का रहता होगा। उनके दड़बे में पढ़ी चारपाई में एक होल हुआ करता था। जो हुआ नहीं था। बल्कि किया गया था। किसी खास प्रायोजन के लिए। ये प्रायोजन था जब कभी हाजमें की मुसीबत हो, और हाजमें का हूटर बजने वाला हो। तो बाबा को कहीं जाने की जरुरत न पढ़े। उस होल को आधुनिक कमोड का आकार दे दिया गया था। लेकिन निसंदेह ये बाबा की मजबूरी थी। उनकी काहिलता नहीं। क्योंकि उनके साथ कोई अपना नहीं था। जो कभी अपने थे। उनके रिश्ते अब भारत और पाकिस्तान सरीखे थे।
लेकिन एक बात का मुझे हमेशा अफसोस रहेगा। मेरा घर उनके दड़बे से चंद कदम की दूरी पर था। लेकिन जब वो सदा के लिए हवा हुए, तो मुझे हवा तक न लगी। पता तब चला जब वे शमशान पहुंच चुके थे। किसी ने बताया कि अभी-अभी जिसका राम नाम सत्य हुआ है। वो और कोई नहीं मुहल्ले के फौजी बाबा थे। जो अब नहीं रहे। अब जहां भी रहें। अच्छे रहें। स्वस्थ रहें। चंगे रहें। भले रहें। लेकिन ऐसे न रहें।