रोम-रोम
हर रग-रग पर
दुखती हर नस
जब रह-रह कर
जलते ज़ख्मों
पर वार करे
कष्टों की बंदिश पार करे
द्रवित ह्रदय
कुछ यादों में
सिमटे, बिखरे जज्बातों में
ओझल आंचल के ख्वाबों में
दुखती है रग
चीत्कार सी करती है
कहती है
उनको मिले सज़ा
जो मिली
कभी न
कहीं किसे
क्यों बांटी तब
मौत उन्होंने
क्यों छीन लिया
एक आंचल
क्या रिश्ते
समझ नहीं पाते वो
बस ढोते हैं वहशीपन को
मौत बांटते फिरते हैं
लाशों का सौदा करते हैं
क्यों सवाल बाकी हैं उनके
जिनकी राहों में
रक्त बहा
अब नहीं चाहिए
बहता शोणित
अब नहीं चाहता
दुखती रग
अब नहीं चाहता
दुखती रग...
4 टिप्पणियां:
achha likha
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
bhai ghani bhari hai meri samajh me nai aai.
bahut khoob..
3 bbar padhne per kuch hud tak samjha per jitna pohoncha kariib utna samjha ... badiya lagi
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