बुधवार, 12 मई 2010

सीख, सरीखत और विनाशकारी विचार

वक्त इतना नहीं बीता कि, अभी सब कुछ ठीक न हो सके। सबकुछ समेटा जा सकता है। बहुआयामी विकास के जिस चेहरे और मोहरे को गढ़ने के चलते हमने बहुत कुछ खो दिया है। वो हम फिर से पा सकते है। भारत की विकास दर पर भले ही हल्ला होता है । लेकिन विकास की आड़ में बढ़ती विनाश दर ने ज़िंदगी के मायने ही बदल दिए हैं।
कंकड़ों के जंगल से लेकर हरी घास के मैदानों तक भारत थोथे विकास का एक ऐसा जामा ओढ़े हुए है। जिसका भविष्य सिर्फ शून्य है। विकास की अंधी में विनाश का चेहरा बड़ा भयावह हो जाता है। और यही हमारी समझ में नहीं आता । या यूं कहें बुद्धिजीवी होते हुए भी समझने की चेष्ठा नहीं करते। यही हमारा दुर्भाग्य भी है।
विकास के भोथरे चाकू के बल पर हम सरीखत कर लेते हैं। लेकिन ये सरीखत बंदर की खौं-खौं से कुछ ज्यादा नहीं है। सरीखत करने की इसी परंपरा ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। जिसका नतीजा है कि हम आज हम उदीयमान भारत की ब्लर तस्वीर देख पा रहे हैं। लेकिन कहते फिरते हैं, कि हम एलीट हो चुके हैं। सच क्या है, ये जानते हैं, फिर भी खीसें नपोरते हैं। विडंबना यही है विकास की आड़ में विनाश को ढोने के तरीके ईजाद किए जाने लगे है।
यहां एक चीज़ पर ध्यान दें। कि सरीखत और सीख में बड़ा अंतर होता है। सरीखत इंसान में बेवजह की होड़ पैदा करती है। जबकि सीख उद्देश्यपरक होती है। लेकिन हम सरीखत करते हैं। सीखते कहां हैं ? उदाहरण के तौर पर हम नकस्ली आंदोलन को ले सकते हैं। जिसको पांच दशक होने को हैं। और लाल सलाम बेगुनाहों के शोणित से सना जा रहा है। यहां भी बात विकास की ही थी। विचारों के विकास की ! साठ का दशक खत्म होने को था। और कुछ युवा बंदूक उठाकर विचारों की आजादी चाहने की फिराक में थे। सोचिए कि क्या बंदूक की नोक किसी के विचारों को आजाद करा सकती है। नहीं कतई नहीं। शायद इस आदिवासी आंदोलन को इस बात का मलाल है कि उन्हें आज़ादी के आंदोलन में शामिल नहीं किया गया। या उनकी सक्रियता को नज़र अंदाज़ कर दिया गया । यहीं हमें सीखने की जरुरत है सरीखत की नहीं। इटली एक बड़ा उदारण बन सकता है। 1861 में इटली के एकीकरण की शुरुआत थी। उनके भी आंदोलन का रंग लाल था। और नक्सली विचारधारा भी लाल रंग को मानती है। लाल रंग या तो इनके मायनों में विरोध का ज़रिया थी। या फिर रक्त को इंगित करने वाला विरोध था। इटली के एकीकरण के दौरान गैरीबाल्डी का बड़ा योगदान माना जाता है। ठीक वैसे ही चारु मजूमदार और कानू सान्याल को भी नक्सली आंदोलन की शुरुआत के लिए जाना जाता है। लेकिन यहां अंतर है विचारधारा के भटकने का । जहां इटली के एकीकरण में लाल कुर्ती वालों ने बेहतरीन भूमिका निभाई। वहीं नक्सली आंदोलन बंदूक की नोक के बल पर सियासत को जीतने वाली जंग बन गई।
एक तरफ भटकाव था। तो दूसरी तरफ सही राह पर चलने वाले आंदोलन कारी। जो लोग सही रास्ते पर चल निकले उनके हालात कभी हमसे कहीं बुरे थे। लेकिन विचारों में भटकाव को उन्होंने वक्त रहते समझ लिया और हम नहीं समझ पाए। यही वजह है कि आंतरिक आतंकवाद बन चुका नक्सलवाद भारत के कई राज्यों में अपनी पकड़ और मजबूत कर चुका है। भारत के कई राज्य अब लाल स्याही से चिन्हित हो चुके हैं। जिनके निशां मिटा पाना इतना आसान नहीं रहा जितना हम समझ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम की शुरुआत की, लेकिन रमन सिंह की नादानी ने और ज्यादा बेगुनाहों को हत्यारा बना दिया। सलवा जुडूम में आम नागरिकों को अपनी रक्षा के लिए हथियार मुहैया कराए गए। लेकिन नक्सलियों को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने बंदूक की नाल का मुंह और खोल दिया। रोजाना बह रहा खून इस आंदोलन की भद पहले ही पीट चुका था। और अब सरकार की अजीब नीतियां नक्सलियों को और ज्यादा खूंखार बना रही है।
विकास की राहों पर ये भारत का विनाशकारी चेहरा है। जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे हालात पैदा कर देता है। इस इस समस्या से क्या नहीं निपटा जा सकता ? निपटा जा सकता है। लेकिन ठोस उपायों के साथ, सरीखत से नहीं, सीख से, बंदूक से नहीं, भटकाव से नहीं। सोचिए विनाशकारी विचारों से बचने के बारे में, जो हमें बरबस ही जान लेने और जान गंवाने पर मजबूर कर रहे हैं। इन विचारों का जल्द ही अंत होना चाहिए। नहीं तो लाशों का सौदा ही इस आंदोलन की विचारधारा बन जाएगा। वक्त रहते संभल जाइये।

4 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

sahi kaha agar ham bhi samay rehte apne vicharon ka bhatkaav rok le...to bharat ki sthiti sudhar sakti hai...

Brajdeep Singh ने कहा…

ji sarkar sahi kaha aapne ,premchand ji ne kaha tha ki bat se baat banti hain aur baat se hi baat bigadti hain ,ye aur kuch nahi bus hamre vicharo ka khel hain ,lekin jis roop ki hum yahan baat kar rahe hain ,ye itna bhanayak ho chuka hain ki baato ke alawa kuch aur bhi karne ki jarooorat hain ,kyoki kisi ne kaha hian laato ke bhut baato se nahi mante ,aur doosri baat 60 ke dashak main pata nahi kin pahloo ko dhyan main rakkkar in logo ne banduk uthayi hogi ,aur ab pata nahi inka kya maksad ho gya hain ,bhatkab ki rah pe ye log sekdo aur logo ko bhi bhatka rahe hain
to guru dev hum to yahi kahna chahenge ki yahan par baat ke allawa bhi kisi aur cheej ki bhi jaroorat hain
aapki history par kaafi acchi pakad hain ,bahut khub gurudev

मधुकर राजपूत ने कहा…

नक्सल समस्या विचार से संगीन पर सवार हो गई है। यह सरकार के नज़रिये से राष्ट्र राज्य के खिलाफ युद्ध है तो नक्सली इसे आज़ादी का ताना बाना बुनना कहते हैं। इस समस्या पर गौर किया जाए तो लगेगा कि ये एक उपनिवेशवाद है। उपनिवेश आदिवासियों का और उस संपदा का जो धरती के गर्भ में छुपी है। वरना सरकार को उस समय इन पार्टियों पर प्रतिबंध लगाने का विचार क्यों नहीं आया जब इनकी विचारधारा हसिया और हथौड़े से चाकू जैसे मामूली हथियारों के इस्तेमाल पर उतरी थी। ये सरकार की सहिष्णुता नहीं बल्कि नज़रअंदाज़ी थी। आज नक्सली अत्याधुनिक हो गए हैं। अब विकराल रूप धारण कर चुकी इस समस्या से निजात पाना बहुत जल्दी आसान नहीं होने वाला।

दीपक 'मशाल' ने कहा…

मैं भी सहमत हूँ.. ये बहुत मुश्किल तो है पर असंभव नहीं..