रविवार, 15 मई 2011

अजनबी शहर...

अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
लौटना तो दूर है अब
तंग गलिय़ों में कहीं
मैं गुम हो गया
निशानी भी डाली थी रास्ते पर मैने
कि लौट आऊंगा सही उनके सहारे
कमज़र्फ हर निशानी कोई
हाकिम मेरी ही खा गया
अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
रहगुज़र पर मै अकेले
था वहीं चलता बना
कोई ज़िंदा, कोई मुर्दा
न मुझे ही मिल सका
सालता बीता तसब्बुर
रास्ते में फिर मिला
गर्दिशों के दौर में फिर
रास्ता भी मुड़ गया
अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
मोड़ एक आई तभी
जब पाजेब दूर थी बजी
रुक गए मेरे कदम
शायद मिल गया था हमकदम
साथ मेरे जो चलेगा
दूर तक मुझको लेकर कहीं
लेकिन वो छलावा-ए-सफर था
फिर ना मिला कोई कहीं
अजनबी शहर से गुज़रा
तो बाखुदा रास्ता भी मुड़ गया
गुम मुस्कुराहट सा सफर वो
जहां महफिलें शमशान थीं
जानिब ए मंज़िल वहां तो
हर जुस्तजू अंजान थी
फिर ठिठक जाएं कदम
बस राह मिल जाए वही
जो ना डगर अंजान हो
जो ना ज़मी वीरान हो
अजनबी शहर से गुज़रुं
तो ना डगर अंजान हो...