मंगलवार, 25 अगस्त 2009

काश, मैं जख्मों को खरीद सकता

अभी कल ही की बात है
ऑफिस से निकला ही था
दिमाग में कुछ हलचल सी थी
मन व्यथित सा था
आंखों में चुभन थी
दिनभर के काम की
सब कुछ तो ठीक था
लेकिन फिर भी
पता नहीं वो कौन सी बात थी
जो टीस दे रही थी।
अजीब सी उदासी
अजीब सा मौसम
न जाने क्या होने वाला था।
कि अनायास ही नज़र
एक वृद्धा पर पड़ती है
उसकी गोद में एक नवजात था
जो दर्द से तड़प रहा था, शायद
ये दर्द किस बात का था
नहीं जानता
शादय वो भूखा था
कई रोज़ से
और वैसी ही भूखी उसकी दादी
एक कोने में बैठे वो लोग
किसी के इंतजार में थे
शायद किसी अपने के
लेकिन अब जो मैने देखा
वो विचलित कर सकता था
किसी को भी
उस नवजात के शरीर से खून रिस रहा था
उसकी दादी बार-बार
अपने चीथड़ों से
उसके ज़ख्मों को पोछ रही थी
शरीर पर उसके कपड़ा सिर्फ इतना था
कि बमुश्किल ही
अपनी लज्जा को आड़ दे पा रही थी
लेकिन किसी बच्चे को इतना लाड़
शायद मैने पहली बार देखा था।
वो बच्चा तो सिर्फ
चीख ही रहा था
दर्द की कराहट
उसके पेट में मौजूद पानी को भी सोख चुकी थी
अब उसके जख्मों की आवाज़
भरभरा उठी थी
मैं मजबूर था, बेबस था।
क्योंकि न तो मेरे पास इतना पैसा ही था
और न ही इतना ररुख
कि अनजान शहर में
काश, मैं उसके ज़ख्मों को खरीद पाता।

4 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार झा ने कहा…

बहुत खूब ..बडे सुन्दर भाव पैदा किये आपने....

Ashok Kumar pandey ने कहा…

भाव वाकई अच्छे हैं
कविता में ढालने के लिये थोडी और मेहनत की दरकार है
शुभकामनायें

dragon ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
dragon ने कहा…

आपकी इस रचना को पढ़ते वक्त मेरे सामने एक दृष्य उकर रहा था....जिसमें वो नवजात और उसकी दादी मुझे साफ नज़र आ रहे थे...

वाकई रोंगटे खड़े करने लायक रचना थी...