गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

जब पत्रकारों को सताए भूख

ऊंची ऊंची इमारते...उन पर बडी़ बडी़ छतरियां...और सड़कों पर वाहनो की लंबी कतार...ये है हमारी फिल्मसिटी की पहचान...ये फिल्मसिटी नोएडा की ऐसी अनोखी जगह है...जहां से ताबड़तोड़ ख़बरें निकलती है...ये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का गढ़ है...हर पत्रकार दौड़ता भागता दिखाई देता है...काम का ऐसा बोझ कि ज़िंदगी जीना ही कभी कभार याद नहीं रहता...ख़बरों के मायाजाल में एक बार फंसे तो समझो कि लंका लग गई...बहुत प्रेम होता है इन्हें ख़बरों से...कोई शिफ्ट नहीं होती बेचारे पत्रकारों की...बस सतत् ही काम में लगे रहो एक बैल की तरह...बेचारे कोल्हू के बैल को तो मालिक थोड़ा आराम दे देता है लेकिन ये बेचारे पत्रकार बेचारे ही रह जाते हैं....बड़े बदनसीब...इनका दर्द कोई नहीं समझ सकता...ये तो दर्द था पेशे का...लेकिन आजकल एक दर्द औऱ सता रहा है इन ख़बर के खिलाडि़यों को...वो है पेट की छुदा का दर्द...दरअसल हमारी फिल्मसिटी में कभी पेड़ों के नीचे खाने पीने की दुकानें हुआ करती थी...वहीं पास में सुट्टा बाज़ार भी लगा करता था...जिन से दिनभर थके पत्रकार बंधु नाश्ता पानी कर लिया करते थे...और टेंशन को धुएं में उडा़ दिया करते थे...लेकिन इन दिनों फिल्मसिटी में मंदी घुस गई है...सारी दुकानें सफाचट्ट...अब हमारे सामने मुसीबत ये है कि गम ग़लग करने को जाएं तो जाएं कहां...जहां कभी दुकाने हुआ करती थीं...उन पर कमेटी की ऐसी गाज गिरी कि अब सिगरेट के खाली खोखे भी नहीं दिखाई देते...बेचारे पत्रकारों की हालत देखने वाली होती है जंब लंच टाइम में बाहर निकलते हैं...भूख मइया उनके सिर पर सवार होती हैं...पेट में सैकड़ों चूहे उछल कूद कर रहे होते हैं...कहते हैं मुझे भूख लगी है खाना दो...अब मुद्दा ये है कि खाना लाएं कहां से...सो बेचारे 11 नंबर की साइकिल से इधर उधर फंटियाते फिरते हैं...लेकिन उनकी भूख मिटाने वाला कोई नहीं मिलता...कोई उनके दर्द को नहीं समझता...फिल्मसिटी की वो दुकानें ही तो सहारा थीं...आज भूख बहुत सताती है...

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