शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

शहादत के तीन दिन

मैं मायानगरी हूं
कुछ मुझे सपनों की नगरी कहते हैं
तो कुछ कहते हैं देश धरा
मैं सिखलाता लोगों को
कैसे जीवन जाता जिया
सिखलाया मैने ही उनको
जीत दिलाकर जाना
मेरी उम्मीदों के साए
हर एक सफलता पाना
लेकिन उस दिन हुआ कुछ ऐसा
नज़र लग गई मुझको
दिन 26 का
माह नवंबर
सन् दो हजा़र था आठ
लोग व्यस्त से आने जाने में
लौट रहे थे घर को
कि अचानक हुए धमाकों ने
थामा मेरी रफ्तार को
सपनों की इस नगरी ने
देखा लाशों के संसार को
हर चौराहा, हर चौबारा रोया था
चीख पुकार से
बिखरा लहू, सिसकते लोग
भाग रहे थे सड़कों पर
आलम बदहवास था ऐसा
जां पर बनी थी हर कोई पर
गोली, गोलों और धमाकों
के बिस्तर पर सोया मैं
भारत मां से आज कहूं क्या
कि फूटी किस्मत मेरी है
इतना सबकुछ सहते सहते
अब बस मेरी बारी थी
अब जवाब देना था उनको
सांसें थामी जिन दहशतगर्दों ने
तैयार हो गए, वीर हमारे
एक और शहादत को
लहू बहे तो कोई बात नहीं थी
फिर उन्ही जवानों की टोली थी
तैयार हुए थे मां के बेटे
दुश्मन को धूल चटाने को
न माफी देंगे
देंगे गोली
ली हैं जान जिन्होंने मेरी
घायल ताज, तड़पता नरीमन
चीख चीख कर कहता मुंबई
आज गिरा दो लाशे उनकी
ली है जान जिन्होंने अपनी
हर विधवा की कसम है तुमको
हर बूढे़ को आस है
आस आज उस मां को भी है
छीना जिसका बेटी बेटा है
आज निभाना फर्ज है तुमको
खोया जिनका कोई अपना है
इन्ही कसमों को याद किया था
उन जब वीरों ने
लहू बहे या जां जाए
अब फिक्र नहीं थी लोगों को
बस मकसद था
बस हसरत थी
दिल में यही तमन्ना थी
मिट्टी में मिल जाए दुश्मन
बस बाकी यही तमन्ना थी

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