मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

राम रचि राखा...

मैं बहुत छोटा सा था, मुझे इतना सा याद है बस। सामाजिक तानेबाने से दूर लोगों की अपेक्षाओं से कहीं ज्यादा दूऱ। मैं उस वक्त अकेला था, एक दम अकेला। कई बार आपके साथ बहुत सारे लोग खड़े होते हैं, लेकिन उनकी वैचारिक अभिव्यक्ति आपसे मेल नहीं खाती। बस इतना ही समझिए मुझसे मेरे अपनों के विचार मेल नहीं खाते। ऐसा नहीं कि मैं उनको या वो मुझको समझते नहीं। ये सिर्फ विचारों को समझने का बस एक इंच का अंतर है । जो वक्त के साथ एक एक इंच का नहीं बल्कि एक मीटर का हो जाता है। सोच का यही अंतर मेरी आने वाली ज़िंदगी पर भी प्रभाव डालने वाला था। इस बात का मुझे अनुमान नहीं था। क्योंकि मेरा हर चीज़ को आंकने का तरीका अलग था।
एक रोज़ की बात है, जब मैं मीडिया के एक बड़े से संस्थान में कार्यरत् था। संस्थान में बहुत सारे लोग ऐसे थे, जो अपने आप को बहुत ज्यादा ज्ञान परक होने का अक्सर दावा किया करते थे। मैं तो उनके अनुभवों के सामने एक अदने सिपाही जैसा था। जिसका न तो रसूख था, न कोई धाक थी, और न ही कोई साख थी,। इस परिस्थिति को सिर्फ ऐसे ही देख सकते थे जैसे हमारे समाज में सवर्ण दलित को देखते हैं। हीन भावना की ऐसी तस्वीर थी ये जिसे मैं कभी बना तो न सका, लेकिन मेरे ह्रदय से ये छवि कभी गायब न हो सकी। ज़िंदगी के हर एक पहलू को अपने हाथों में समेटे मैं आगे बढ़ने की ख्वाहिश पाले हुए था। लेकिन क्या वो ख्वाहिश पूरी होनी थी, ये बात मेरे ज़हन में अक्सर सवाल बनकर घूम जाया करतीं।
संगठन में करीब पैंतालीस की तादाद में कर्मचारी हुआ करते थे। उन पैंतालिस कर्मचारियों में मैं सिर्फ अकेला ऐसा व्यक्ति था । जिसे लोग बतौर हिंदी मीडियम संबोधित किया करते थे, ऐसा नहीं था कि वो मेरी हिंदी को बेज्जत करने की कोशिश किया करते थे। बस उन्हें ये पता था कि मैं एक ऐसे स्कूल से आता हूं जिसमें पढ़ने की आखिरी कीमत मैने सिर्फ डेढ़ रुपया माहवार चुकाई थी। असल में तो सच्चाई को स्वीकारने के बाद हिंदी की हमारे पास यही कीमत रह जाती है। महज़ डेढ़ रुपया। खैर आगे बढ़ते हैं। इन पैतालिस लोगों में करीब पैंतीस लोग ऐसे थे जो मुझे प्रत्यक्ष रुप से जानते थे। इन कर्मचारियों में गार्ड भी शामिल थे, और वो लोग भी शामिल थे जो गार्ड के वेतन को उनकी ड्यूटी के हिसाब से तय किया करते थे। इसके अलावा वो लोग भी थे, जो लोग गार्ड की ड्यूटी तय करने के साथ ही उन लोगों की भी दिहाड़ी पर निगरानी रखते थे, जो लोग दफ्तर में मौजूद बॉस प्रणाली के एकदम करीब हुआ करते ।
इस संगठन में 6 माह तक दिहाड़ी करने के बाद मुझे मासिक वेतनभोगी कर्मचारी के रुप में नियुक्त कर लिया गया। इन 6 महीनों में मैने मजदूरी के हर गुण और अवगुण को शिरोधार्य किया। दफ्तर के शुरुआती वक्त में मैं अपने आप को ‘ऑन एक विंटर्स नाइट’ (पूस की रात) का हलकू समझता था। जो कर्ज के बोझ से इतना दबा था, कि उस बोझ से छुटकारा पाने की उसके पास सिर्फ एक ही युक्ति होती, और वो थी इस लोक से इहि लोग में सिधार जाना। यहां मेरी हालत की तुलना हलकू से की जा सकती है। क्योंकि हलकू भी तकलीफों में जीने का आदी था, और मैं भी तकलीफों को आराम से बर्दाश्त करने का आदी हो गया था। वक्त का हकीम हर किसी को काढ़ा पिला सकता है। तो मेरी क्या बिसात थी।
इस निजी संस्थान में काम करने का हर किसी का अपना सरकारी ढर्रा था। मसलन कोई काम करता था, तो कोई जी हुजूरी का काम करता था। इस मामले में कई लोग अपने आप को मैनेजमेंट गुरु मान लिया करते । ये बात अलग है कि उन्हें प्रबंधन का आशय भी न पता हो। लेकिन उन्हें एक बात का बड़े अच्छे से पता था, कि बड़े साहब के आते ही अपनी कमर को कितनी डिग्री तक झुकाना है, और जुड़े हुए हाथों को अपने चेहरे से कितनी दूरी पर रखना था। ये मुद्रा बताने के लिए काफी थी, कि उक्त कर्मचारी के मन में बॉस के प्रति श्रद्धा नामक परी कैसे कत्थक कर रही है। ये तस्वीर तो जैसे हमारे निजी संस्थानों की तकिया कलाम बन गई है।
जैसे तैसे शुरुआती 6 महीनों को मैने संघर्ष की अवस्था में काट ही लिया। और अब आगे का वक्त काटने को तैयार हो गया था। इस दौरान जितनी तेजी से दफ्तर में मेरा वक्त गुज़र रहा था, उतनी ही तेज़ी से बॉस बदलने का सिलसिला भी चल निकला था। निजी संस्थानों में अक्सर बह निकलने वाली इस्तीफों की बयार ऐसी ही होती है। यहां नौकरी ऐसे बदलती है, जैसे किसी गर्भवती महिला की ज़ुबान का स्वाद।
संस्थान में मुझे आठ महीने हो चुके थे। अब शनय शनय दफ्तर की कठिन स्थितियां मेरे इतिहास भूगोल से मेल खाने लगी थीं। आंकड़ों और आंखों का मेलमिलाप ऐसा हुआ कि लोग मेरे कायल और मैं उनका कायल हो गया। इस दौरान बिना कमर को किसी डिग्री पर झुकाए मेरे काम करने के तरीके ने कई लोगों के पैजामे ढीले कर दिये थे। दफ्तर में ऐसी ही स्थितियां मृत प्राय मुसीबतों में प्राण फूंकती हैं। कम उम्र में अपनों से छोटों की शोहरत नाते रिश्तेदारों को भी बर्दाश्त नहीं होती। तो ये तो वो लोग थे, जो किसी अजनबी शहर में मुझे मिले थे। लेकिन मनुष्य की फितरत में विश्वास का वास होता है। इसलिए अगर मेरे भीतर किसी के लिए विश्वास था तो कुछ गलत नहीं था।
खैर वक्त गुज़रता रहा, और मैं अपने कार्यों को तल्लीनता से करता रहा। चूंकि चपरासी से लेकर दफ्तर के सीनियर सिटीजन तक मेरी पहुंच अच्छी खासी हो गई थी। इसलिए साज़िशी तंत्र को भी मेरे खिलाफ ब्यूह रचना में मशक्कत करनी पड़ रही थी। इस बात का पता मुझे अक्सर लग भी जाया करता, लेकिन हमेशा की तरह ये दफ्तरी कठिनाई मेरे भीतर ज्यादा स्ट्रेस नहीं डाल पाई। मैने साजिशी तंत्र को भगवान भरोसे कर दिया। होइहे वही जो राम रचि राखा। अक्सर ऐसी बातें बड़ी सटीक साबित होती हैं। भगवान को जो मंजूर था वही हुआ। जो हमारी तरक्की में रोड़े अटकाने के लिए दिन रात एक कर रहे थे, उन्हीं के घर मंदी का ऐसा तूफान आया, कि वो नौकरी बचाने के लिए मेरे उसी मित्र के पास पहुंचे, जिससे मेरी तरक्की को रोकने के लिए उन्होंने सिफारिश लगाई थी।
सार यही कहता है कि अगर पक्के मन से और सच्ची लगन से अगर आप से आप अपने कार्यों को अंजाम देते हैं। तो फिरकापरस्त ताकतें आपके पतन के बारे में सोच तो सकती हैं, लेकिन आपको कभी डिगा नहीं सकतीं।

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