बूढ़ा होता है हर कोई
ढलती हुई उम्र के साथ
ऐसा बूढ़ा न हो कोई
उस बूढ़े, बुढ़िया के जैसा
न खाना है
न दाना है
साथ नहीं है अपनों का
एक सहारा बस बाकी है
लाठी और अकेलेपन का
सावन भी अब बूढ़ा सा है
पतझड़ से सारे मौसम हैं
एक अकेली कोंपल को
बस तरसे विचलित सा उनका मन है
बचपन को पाल बुढ़ापे में
सब छोड़ चले अब उनको
उम्मीदों की बुझती लौ
तरस रहे तिनके-तिनके को
तन की सिलवट
सिमट रही है
कलयुग के उजियारे में
जीवन अपना काट रहे बस
थोड़े से अंधियारे में
4 टिप्पणियां:
माफ़ कीजियेगा
पर कविता बन नहीं पायी है
स्थूल होकर बिखर गयी है
कविता बनने के लिये आपको इसे और संवारना होगा। विषय जितना संवेदनशील है आपको और गहराई में उतरना होगा।
आशा है अन्यथा न लेगें।
शुभकामनाओं सहित
उम्मीदों की बुझती लौ
तरस रहे तिनके-तिनके को
तन की सिलवट
सिमट रही है
कलयुग के उजियारे में
जीवन अपना काट रहे बस
थोड़े से अंधियारे में
सही है शुभकामनायें
I am going with Mr. Ashok Kumar Pandey with same words.
अनुपम जी
ख़बरों के जरिये आपकी बात सौ फीसदी सही , आज बुजुर्गों के लिए हम युवाओं को ही आगे आना पड़गा......
उम्मीदों की बुझती लौ
तरस रहे तिनके-तिनके को
तन की सिलवट
सिमट रही है
कलयुग के उजियारे में
जीवन अपना काट रहे बस
थोड़े से अंधियारे में
बहुत खूब
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