शनिवार, 17 जनवरी 2009

कसक-2008

देख रहा था दूर सूर्य को
सिर्फ अंधेरा पाया
नवजीवन की इस बेला में
घोर कष्ट था छाया
मानव दानव बन बैठा है
मन में छिपा कपट बैठा है
इंतजा़र में बूढ़ी मां ने
त्याग दिया इन आंखों को
मन को मारा उस बेवा ने
छीना जिसका पति उन्होंने
ये इंतज़ार की सिसकन है
ये सिसकन है उस धरती की
जिस धरती पर खून बहा
ये खून उन इंसानों का
जो बेबस थे लाचार थे
उन्हें तो ये तक न पता
कि मौत का तमाशा कब
उनके घर के बाहर होने लगे
आंखों में कसक
और ह्रदय में सिसकन
उन लोगों के लिए है
जिनके इंतजार में ये आंखें
थक कर बूढ़ी हो जाएंगी
लेकिन वो टूट चुकी सांसें
अब दोबारा वापस न आयेंगीं...अनुपम मिश्रा

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